1938 में जब पहली बार पैट्रिक हैमिल्टन द्वारा लिखित नाटक गैसलाइटिंग खेला गया होगा या दो साल बाद 1940 में इस नाटक पर आधारित दो फिल्में प्रदर्शित हुईं तब भी हैमिल्टन या किसी और ने यह नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा भी आएगा जब गैसलाइटिंग सबसे अधिक सर्च किया जाने वाला शब्द बन जाएगा। गैसलाइटिंग कोई गैस जलाने वाला लाइटर नहीं बल्कि मानसिक व मनोवैज्ञानिक रूप से अंदर तक जला देने वाली क्रियाएं हैं। दूसरे अर्थों में, व्यक्ति को अपनों या अपने आसपास वालों द्वारा मनोविज्ञानिक रूप से इतना टार्चर कर दिया जाए कि उसे पता ही नहीं चले कि उसे टार्चर किया जा रहा है। अपितु प्रभावित व्यक्ति कुंठाग्रस्त और हीनभावना से ग्रसित हो जाए।
विचारणीय यह नहीं है कि अमेरिका की ख्यातनाम डिक्शनरी मेरियम वेबस्टर के संपादक पीटर सोकोलोवस्की ने इस साल सबसे अधिक खोजे वाले शब्द के रूप में गैसलाइटिंग को घोषित किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोगों की खोज के आधार पर उन्होंने यह घोषणा की है। पिछले साल के मुकाबले 1740 प्रतिशत अधिक खोजा गया है। हालांकि यूक्रेन हमले से जुड़ा आलेगार्च, कोरोना से जुड़ा ओमिक्रान, ट्रंप से जुड़ा रेड, गर्भपात के अधिकार से जुड़ा कोडिफाई और क्वीन कैमिला से जुड़ा क्वीन कंसर्ट भी वह शब्द है जिन्हें इस साल सबसे अधिक खोजा गया। सवाल यह नहीं है कि किस शब्द को अधिक सर्च किया गया बल्कि बड़ा सवाल यह है कि खोजे जाने वाले शब्द कहीं ना कहीं लोगों की मानसिकता को दर्शाते हैं। अति आधुनिक और मानवता वाद के पुजारी होने का दावा करने के बावजूद दुनिया के लोगों की सोच जिस तरह से आगे बढ़ी है वह घोर निराशाजनक है। सवाल यह है कि आज अधिक सुशिक्षित होने के बावजूद हमारी मानसिकता और सोच में इतनी गिरावट कैसे आ रही है?
गैसलाइटिंग दरअसल व्यक्ति को मानसिक रूप से कुंठाग्रस्त और हीनभावना से प्रेरित बनाने का माध्यम है। देखा जाए तो यह सभ्यता के खोल में ब्लेकमेलिंग का निहायत गंदा खेल है। किसी व्यक्ति को टारगेट बनाकर उसे बार-बार यह कहा जाए कि तुम अधिक असंवेदनशील हो, तुममें समझ नहीं है, तुम्हारी सोच संकुचित है, तुम्हें कुछ नहीं आता, तुम्हें कुछ याद नहीं रहता, तुम ओवररिएक्ट करते हो या इसी तरह के व्यंग्य बाणों से किसी को आहत करना एक तरह से गैसलाइटिंग के दायरे में आता है। बार-बार इन शब्दों से संवाद कायम करना कि अंततोगत्वा व्यक्ति को अपनी काबलियत, सोच, कार्यों पर संदेह होने लगे और मानसिक रूप से बुरी तरह से प्रभावित हो जाए तो यह गैसलाइटिंग ही है। एक तरह से किसी के साथ साइकोलोजिकली प्ले करना हो जाता है। इसके पीछे व्यक्तिगत कारण भी हो सकते हैं तो राजनीतिक, सामाजिक या फिर कारोबारी कारण भी हो सकते हैं। इसी तरह से गैसलाइटिंग करने वाले रिश्तेदार हो सकते हैं तो जीवनसाथी भी ऐसा कर सकते हैं या फिर कार्यस्थल पर भी ऐसा आम होता जा रहा है।
होना तो यह चाहिए कि कोई व्यक्ति मानसिक या सामाजिक रूप से कमजोर है तो उसे संबल दिया जाए पर होने लगा उल्टा है। 21 वीं सदी में यह सब होना किसी भी तरह से उचित नहीं माना जा सकता। पर प्रतिस्पर्धा का दौर ऐसा चल निकला है कि दूसरे को नीचा दिखाना हमारी आदत में आ गया है। यह सब तब है जब अभी हम कोरोना के संकट से पूरी तरह से निजात नहीं पा सके हैं। देखा जाए तो कोरोना ने हमें हमारी हैसियत तो बताने का प्रयास किया पर हम हैं कि सबकुछ भूल कर वापस वहीं आ गए हैं। किसी को मनोवैज्ञानिक रूप से टार्चर करना या यों कहें कि किसी को मानसिक रूप से कमजोर करना और वह भी अपने हित के लिए, अपने को ऊंचा दिखाने के लिए या दूसरे को नीचा दिखाने के लिए तो यही हमारी कुंठित मानसिकता को ही दर्शाता है। आखिर ऐसा क्या बदलाव आया कि आज गैसलाइटिंग जैसे शब्द की खोज बढ़ रही है। कहीं ना कहीं समाज की बदलती मानसिकता को ही यह दर्शाती है। कोई अच्छे और सकारात्मक बदलाव की खोज नहीं हो रही। यह विचारणीय हो जाता है।
मनोविज्ञानियों व समाज विज्ञों के सामने यह एक तस्वीर आ गई है। अब उनके सामने यह चुनौती है कि वे समाज में ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करें जिससे लोगों की सोच व व्यवहार में नकारात्मकता के स्थान पर सकारात्मकता को बढ़ावा देना हो। कहीं ना कहीं समाज की विकृत सोच व मानसिकता में बदलाव का माहौल बनाना होगा। हमारे शिक्षाविदों को भी इस ओर ध्यान देना होगा। नहीं तो हमारा विकास, हमारी सुविधाएं, आसान होती जीवन शैली कहीं ना कहीं हमारी अंधी प्रतिस्पर्धा, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति और पैसों की दौड़ के आगे भागमभाग सब बेकार हो जाएगी। दरअसल गैसलाइटिंग का वर्ड ऑफ ईयर होना इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसके माध्यम से हमें चेतावनी मिली है। हमें समय रहते चेतना होगा।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा