भारत में अलगाववाद के अनेक रूप हैं। वह स्थाई समस्या का रूप ले चुका है, तथा आतंकवादी गतिविधियों का मुख्य कारण है। इसने कानून व व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती पेश की है। यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करता है। खालिस्तान की मांग अलगाववाद से ही जुड़ी है। आजादी के बाद खालिस्तान की मांग में तेजी आई। समय-समय पर यह मांग जोर पकड़ती रही है। इसका उग्र रूप भी देखने को मिला। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी इसे जड़-मूल से खत्म नहीं किया जा सका है। इसके तार कनाडा, इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों में बसे सिखों से जुड़ने तथा वहां से इस आंदोलन के संचालन के ठोस प्रमाण है। आम आदमी पार्टी के साथ संलिप्तता की बात चर्चा में है। 18वीं लोकसभा में पंजाब से निर्वाचित दो निर्दलीय सांसदों की जीत के बाद इस समस्या ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है।
क्या है खालिस्तान
खालिस्तान खालसा पंथ से निकला है, जिसका आशय एक ऐसा भूखंड, जहां सिख धार्मिक संप्रभु राज्य की स्थापना हो। ऐसे राज्य की मांग ब्रिटिश भारत में सबसे पहले की गई थी। आजादी के उपरांत इस मांग की दो स्थितियां सामने आईं। एक सिखों का संप्रभु राज्य जो उक्त मांग की चरम स्थिति थी, यह अलगाववादी मांग थी। दूसरी मांग थी कि संविधान के अन्तर्गत एक स्वायत्त राज्य का गठन। इसी मांग के तहत पंजाब का पुनर्गठन हुआ। यह मांग उठाने वाला मुख्यदल अकाली दल था। पंजाब में धर्म और राजनीति का गठजोड़ उभरा तथा खालिस्तान की राजनीतिक मांग के लिए धर्म को अधार बनाया गया। 1973 में पंजाब के आनन्दपुर साहिब में प्रस्ताव पारित किया गया। इसमें एक ऐसे स्वायत्त राज्य की मांग की गयी थी, जिसमें केन्द्र के पास विदेश मामले, वित्त, रक्षा और संचार सहित पांच क्षेत्र हों, बाकी राज्य के अधीन हों। इसे अलगाववादी प्रस्ताव माना गया।
इसके बाद खालिस्तान आंदोलन में उग्रता आई। अनेक उग्रवादी संगठन अस्तित्व में आए, जिनमें बब्बर खालसा, खालिस्तान कमांडो फोर्स आदि दर्जन भर शामिल हैं। 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई। इसके बाद के दौर में खालिस्तान की मांग का चरम रूप देखने को मिला। यही दौर है जब जनरैल सिंह भिंडरावाला का उदय हुआ। वह खलिस्तान आंदोलन का केन्द्रीय व्यक्ति बन गया। ‘पंजाब केसरी’ के संपादक लाला जगत नारायण की हत्या हुई। अनेक राजनीतिक व प्रशासनिक अधिकारियों की उग्रवादियों ने हत्याएं कीं। ऐसी अनेक आतंकवादी घटनाएं हुईं, जिनमें निरीह व आम लोगों को उसका शिकार होना पड़ा। खालिस्तानियों ने उन सिखों को भी अपना निशाना बनाया, जो उनकी मांग के पक्ष में नहीं थे। स्थिति उस वक्त बदतर हो गयी, जब भिंडरावाला ने सिखों के अमृतससर स्थित पवित्र स्थल ‘हरमिंदर साहिब’ जो स्वर्ण मंदिर के नाम से विख्यात है को अपने नियंत्रण में ले लिया।
अकाल तख्त उग्रवादियों का अड्डा बन गया। यह वह दौर था, जब पंजाब में गैर सिखों को आतंक के साए में जीना पड़ता था। भारत सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि वह सिखों के पवित्र स्थल स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त को आतंकवादियों से मुक्त कराए। उस वक्त इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। सरकार के लिए यह संकटपूर्ण स्थिति थी। एक तरफ उसे खालिस्तानी उग्रवादियों से निपटना था, वहीं स्वर्ण मंदिर की पवित्रता का प्रश्न भी था। अन्ततः सरकार को बल का प्रयोग करना पड़ा। इंदिरा गांधी को कार्रवाई का आदेश देना पड़ा। यह ऑपरेशन 3 जून से 8 जून 1984 तक चला। यह ब्लू स्टार ऑपरेशन के नाम से जाना जाता है। इस ऑपरेशन में खालिस्तानियों के सरगना जरनैल सिंह भिंडरावाला मारा गया। यह खालिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध भारत सरकार की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई है। भारत सरकार द्वारा जारी श्वेतपत्र के अनुसार इसमें 83 सैनिक मारे गए और 243 घायल हुए।
वहीं, 493 उग्रवादी तथा आम नागरिक मारे गए तथा 86 घायल हुए थे। 1592 लोगों को गिरफ्तार किया गया। गैरसरकारी सूत्रों के अनुसार इस ऑपरेशन में कहीं अधिक जान-माल का नुकसान हुआ। इस तरह ब्लू स्टार ऑपरेशन देश के अन्दर का अब तक का सबसे बड़ा ऑपरेशन है, जो खालिस्तानी चरमपंथियों के विरुद्ध संचालित किया गया। इसकी प्रतिक्रया भी हुई, जो ऑपरेशन के चार माह बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सुरक्षा गार्ड्स द्वारा उनकी नृशंस हत्या के रूप में सामने आई। उसके बाद जो हुआ, वह भारत के इतिहास का काला अध्याय है। दिल्ली सहित देश के अनेक जगहों पर सिख समुदाय को निशाना बनाया गया। देश में अराजकता की स्थिति पैदा हुई। इस सिख विरोधी हिंसा के हजारों लोग शिकार हुए। ब्लू स्टार ऑपरेशन, इंदिरा गांधी की हत्या तथा सिख विरोधी दंगा के मूल में खालिस्तान की मांग रही है। पंजाब जैसा बॉर्डर राज्य जो हरित क्रांति का केंद्र है, उसका अलगाववाद का केंद्र बन जाना पूरे देश के लिए चिंता का सबब रहा है और अब भी है। खालिस्तानी आतंकवाद के विरोध में भारत सरकार द्वारा चलाए गए सुदीर्घ कार्यक्रमों का नतीजा है कि पंजाब जो एक दौर में खालिस्तानियों के व्यापक प्रभाव में था, वह मुख्य धारा में लौट आया। इस संबंध में देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी है।
यहां उन पर विस्तार में चर्चा करना संभव नहीं है। फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि पंजाब से अलगाववाद पर पूरी तरह विजय प्राप्त कर लिया गया है। खालिस्तान की मांग करने वाले संगठन आज भी मौजूद हैं। उनके तार विदेश से भी जुड़े हैं। उन्हें आर्थिक व दूसरे तरह की मदद मिलती है। इसके साथ ही जनमानस में भी खालिस्तान की मांग करने वाले अलगाववादियों ने अपना सामाजिक आधार बना रखा है। ताजा उदाहरण 18वीं लोकसभा के दो निर्दलीय सदस्यों का पंजाब से विजयी होना है, जिनमें से एक का खालिस्तान समर्थक संगठन से प्रत्यक्ष जुड़ाव सामने आ चुका है, तो वहीं दूसरे का पारिवारिक संबंध ऐसे परिवार से है। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी से इन चरमपंथियों के रिश्ते की बात उजागर होती रही है। ऐसा तब होता है, जब राष्ट्रहित गौण होता है और दलीय हित तथा निहित स्वार्थ प्रधानता ग्रहण कर लेता है। प्रश्न उठा है कि क्या आम आदमी पार्टी के कार्यकाल में खालिस्तानी चरमपंथियों को फिर से मजबूत होने का आधार तो नहीं मिला है? फिलवक्त गुरपतवंत सिंह पन्नू का नाम चर्चा में है, जो अमेरिका और कनाडा से खालिस्तान के लिए राजनीतिक रूप से सक्रिय काम कर रहा है।
कौन हैं अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह खालसा?
पंजाब की 13 लोकसभा सीटों में से 7 पर कांग्रेस, 3 पर आम आदमी पार्टी, 1 सीट पर शिरोमणि अकाली दल और दो पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत हासिल की। इस चुनाव में बीजेपी का सूपड़ा साफ हो गया। सबसे ज्यादा चर्चा दोनों निर्दलीय उम्मीदवारों की हो रही है। एक अमृतपाल सिंह हैं जो खडूर साहिब सीट से विजयी हुए हैं। इन्हें 4,04,430 वोट मिले। इन्होंने 1,97,120 वोटों से जीत दर्ज की। लोकसभा चुनाव में पंजाब के किसी भी हलके से दर्ज की गई जीत का यह सबसे बड़ा अंतर है। खडूर साहिब लोकसभा क्षेत्र पंजाब के माझा इलाके का अहम हिस्सा है। यहाँ भारी संख्या में सिख रहते हैं। इस सीट के मतदाताओं ने पंथ के नाम पर अमृतपाल सिंह को वोट देकर जीत दिलाई है। फिलहाल अमृतपाल सिंह असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद है। यह न सिर्फ खालिस्तान समर्थक है, बल्कि इस शख्स पर देशद्रोह का आरोप है। यह ‘वारिस पंजाब दे’ का प्रमुख है।
इस संगठन का गठन पंजाबी एक्टर दीप सिंह सिद्धू ने किया था, जो किसान आंदोलन के दौरान चर्चा में आया था। अमृतपाल के खिलाफ एनएसए सहित 16 मामले दर्ज हैं। इस शख्स ने जेल से चुनाव लड़ा और जेल में रहते हुए चुनाव जीत गया। सांसद पद की शपथ के लिए पेरोल पर रिहा किया गया। 05 जुलाई को लोकसभा के स्पीकर ने शपथ दिलाई। इनका मुख्य चुनावी मुद्दा पंजाब को नशे से मुक्त करवाना था। विरोधाभास देखिए कि अमृतपाल के भाई हरप्रीत सिंह को जालंधर पुलिस ने ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया है। दूसरे निर्दलीय सांसद सरबजीत सिंह खालसा हैं। ये पूर्व पीएम इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह के बेटे हैं। उन्होंने फरीदकोट से जीत हासिल की। सरबजीत सिंह को 2,98,062 वोट मिले, उन्होंने 70,053 वोटों से जीत दर्ज की और पंजाबी अभिनेता करमजीत अनमोल को हराया। इनकी मां बिमला कौर खालसा तथा बाबा सुच्चा सिंह भी लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं। इसके पहले भी सरबजीत लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं, लेकिन सफलता नहीं मिली। सरबजीत विवादों में इसलिए हैं, क्योंकि वह बेअंत सिंह के बेटे हैं।
दोनों निर्दलीय सांसदों की जीत के कारण इस बात का डर सताने लगा है कि पंजाब में कहीं अलगाववाद का नया मोर्चा फलने-फूलने तो नहीं लगा। यह निर्मूल भी नहीं कहा जा सकता है। खालिस्तान की मांग की जड़ें भारत में हैं तथा यह देश की एक बड़ी समस्या है, लेकिन इसका मुख्य शक्ति और संचालन केन्द्र उन देशों में है, जहां सिख प्रवासी के रूप में हैं। उनमें अमेरिका, कनाडा और इंग्लैण्ड प्रमुख रूप से शामिल हैं। सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) एक अमेरिका आधारित अलगाववादी समूह है। इसकी स्थापनान अक्तूबर 2007 में गुरपतवंत सिंह (वकील) ने की। वही इसका मुख्य कर्ता-धर्ता है। इसका हेड क्वार्टर न्यूयांर्क में है। अनेक देशों में शाखाएं और संगठन हैं। इसका मकसद खालिस्तान के रूप में पंजाब को भारत से अलग करना है। समूह ने खालिस्तान का प्रस्तावित नक्शा भी जारी किया। इसमें पंजाब के साथ हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुछ हिस्से शामिल किए गए हैं। पन्नू का कहना है कि शिमला प्रस्तावित राष्ट्र की राजधानी होगी।
यह समूह अपने मकसद के लिए विदेश में अदालती कार्रवाई, जन अभियान तथा भारत के अन्दर हिंसात्मक गतिविधियों का सहारा लेता है और देश के अन्दर तथा बाहर के सिख समुदाय के अन्दर अलगाववादी भावना को भड़काता है। इसने करतार सिंह कारिडोर से लेकर पाकिस्तान स्थित पंजाब को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बना रखा है। खालिस्तान निर्माण में पन्नू ने पाकिस्तान से सहयोग की बात की है। एसएफजे समूह का सबसे बड़ा अभियान ‘जनमत संग्रह’ है जो पंजाब को भारत से अलग होना चाहिए या नहीं, इस बात के लिए है। इसकी शुरुआत 31 अक्टूबर 2021 को लन्दन से हुई। यूरोप के अनेक देशों के साथ अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया के एक दर्जन से अधिक शहरों में इसका आयोजन किया गया। कई स्थानों पर खलिस्तान समर्थक और भारत समर्थक समूहों के बीच झड़पें भी हुई हैं। गुरपतवंत सिंह पन्नू को मालूम है कि उसे अपना मकसद भारत में ही हासिल करना है, इसके लिए उसके निशाने पर भारत है। वह विभिन्न प्रचार माध्यमों, ऑडियो-वीडियो संदेशों के द्वारा धार्मिक समूहों, नौजवानों आदि के अन्दर अलगाववादी भावना को भड़काने तथा माहौल को विषाक्त करने में लगा है। ऐसी अनेक कार्रवाइयां हुई हैं। दर्जन भर मामले दर्ज हुए हैं। एसएफजे से जुड़े 39 लोगों की गिरफ्तारी हुई है। भारत सरकार ने पन्नू के इस संगठन को गैरकानूनी और उसको ‘व्यक्तिगत आतंकवादी’ घोषित कर रखा है। इसके 40 वेबसाइट पर प्रतिबंध है।
“आप” का खालिस्तानियों से कनेक्शन
भारत में वोट की राजनीति और नेताओं का निहित स्वार्थ भी एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह से अलगाववादियों को फलने-फूलने-फैलने का मौका मिलता है। खालिस्तान के वर्तमान उभार को पंजाब की राजनीति के साथ उसके रिश्ते के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। ऐसे तत्व विधानसभा से लेकर लोकसभा तक पहुंच जाते हैं। सवाल यह है कि आखिर कैसे पहुंच जाते हैं? जब पन्नू द्वारा विदेश में खालिस्तान के पक्ष में ‘जनमत संग्रह’ कराया जा रहा था, उसकी गूंज पंजाब विधानसभा में सुनाई पड़ी। पंजाब विधानसभा के विधायक और विपक्ष के नेता सुखपाल सिंह खैरा ने कहा कि ‘सिख रेफरेंडम 2020’ भारत में लगातार सरकारों द्वारा सिखों के प्रति पूर्वाग्रह, भेदभाव और उत्पीड़न की नीति का परिणाम है। इसका विरोध हुआ और खैरा को सफाई देनी पड़ी कि वे जनमत संग्रह का समर्थन नहीं करते हैं। वर्तमान में पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार है।
2022 में पंजाब विधानसभा की 117 सीटों में 92 पर उसे विजय मिली। देखा गया है कि इसके शासन काल के दौरान खालिस्तानी उग्रवाद बढ़़ा है। एसएफजे ने अपना पांव पसार रखा है। आप नेताओं का इनके साथ कनेक्शन उजागर हुआ है तथा चुनाव में इनका सहयोग-साथ मिला है। देश से बाहर रह रहे खालिस्तानियों का भी पंजाब से कनेक्शन है। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार के आने के बाद से ही पंजाब के साथ ही कुछ अन्य देशों में भी खालिस्तानी गतिविधियां बढ़ गई हैं। चुनाव के दौरान के कई वीडियो व तस्वीरें वायरल हुई हैं। प्रतिबंधित इंटरनेशनल सिख यूथ फेडरेशन के मुख्य कार्यकर्ता गुरदयाल सिंह ने विधानसभा चुनाव के दौरान आप के गढ़शंकर विधायक जयकिशन सिंह रोड़ी के लिए काम किया था। गुरिंदर सिंह जो कथित तौर पर खलिस्तान कमांडो फोर्स का एक मॉड्यूल था, जिसने 1997 में मोगा जिले के बाघापुराना इलाके के मंडी मुस्तफा में एक मंदिर के पास विस्फोट किया था, के साथ खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाला की जयंती पर जारी किए गए पोस्टर में अरविंद केजरीवाल, आप के पंजाब प्रमुख भगवंत मान और संजय सिंह के अलावा अन्य लोग भी शामिल थे।
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इस पोस्टर में लोगों से ‘संत भिंडरावाले’ को श्रद्धांजलि देने की अपील की गई थी। ऐसे अनेक मामले सामने आए है। एसएफजे के पन्नू के द्वारा आप को दिए जानने वाले फंडिंग और चुनाव में सहयोग की बात भी आई है। वैसे आम आदमी इसे अपने विरुद्ध दुष्प्रचार मानती है, जो विशेष रूप से विपक्षी दलों का प्रचार है। मई 2024 में दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आप सरकार के खिलाफ देविंदर पाल सिंह भुल्लर की रिहाई में मदद करने और खालिस्तान समर्थक भावनाओं को बढ़ावा देने के लिए सिख अलगाववादी समूहों से 16 मिलियन अमेरिकी डॉलर यानी 133 करोड़ रुपए का फंड प्राप्त करने के आरोपों पर एनआईए जांच की सिफारिश की है, जो पन्नू द्वारा जारी एक वीडियो पर आधारित है, जिसमें दावा किया गया कि आप को 2014 से 2022 तक पैसा दिया गया। अब जांच रिपोर्ट से सच्चाई सामने आएगी, लेकिन खलिस्तानी उग्रवादियों के आधार का मजबूत होना सभी के लिए चिन्ता का विषय है। पंजाब बार्डर राज्य है। कश्मीर की तरह इसकी सीमा भी पाकिस्तान से जुड़ी है। इसलिए इस समस्या पर भारत सरकार की कारगर कार्रवाई के साथ सभी की जागरूकता जरूरी है।
कौशल किशोर
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