Ram Janmabhoomi, लखनऊः महंत रामचंद्र दास परमहंस अयोध्या आंदोलन के इकलौते चरित्र हैं, जो मूर्तियों की स्थापना से लेकर उनके विध्वंस तक की घटनाओं में मुख्य पात्र थे। बिहार के छपरा में जन्मे महंत रामचन्द्र दास परमहंस के पिता ने उनका नाम चंद्रेश्वर तिवारी रखा था।
विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के वरिष्ठ पदाधिकारी पुरूषोत्तम नारायण सिंह बताते हैं कि 1930 में जब वह अयोध्या आए तो दिगंबर अखाड़े के शिविर में उनकी मुलाकात परमहंस रामकिंकर दास से हुई। वे आयुर्वेदाचार्य के रूप में प्रसिद्ध थे। बाद में उनका नाम ‘रामचन्द्र दास’ पड़ा।
उन्हें राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का कार्य सौंपा गया। वह 1934 में ही राम मंदिर आंदोलन से जुड़ गये। वह हिंदू महासभा के नगर अध्यक्ष भी थे। 1975 में पंच रामानंदीय दिगंबर अखाड़े के महंत बने और 1989 में राम जन्मभूमि ट्रस्ट के अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली।
फैजाबाद कोर्ट दायर किया था मुकदमा
पुरूषोत्तम नारायण सिंह ने बताया कि महंत रामचन्द्र दास परमहंस संस्कृत के अच्छे जानकार थे। उन्हें वेदों और भारतीय शास्त्रों का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने साफ-साफ बात कही। उनका दृढ़ निश्चय था। इस बात का जिक्र हर जगह है कि वह 1949 में मूर्ति रखने वाले समूह के सदस्य थे। उन्होंने राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के लिए अदालत का दरवाजा भी खटखटाया था।
1 जनवरी 1950 को उन्होंने विवादित इमारत पर मालिकाना हक और पूजा-पाठ के अधिकार को लेकर फैजाबाद कोर्ट में मुकदमा दायर किया। तब कोर्ट ने पूजा की इजाजत दे दी थी। इसके बाद मुस्लिम पक्ष ने हाई कोर्ट में अपील की। उच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी थी और पूजा निर्बाध रूप से जारी रखने के निचली अदालत के आदेश की पुष्टि की थी।
विहिप नेता पुरूषोत्तम सिंह ने कहा कि जब पहली धर्म संसद अप्रैल 1984 में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में हुई थी तो उसकी अध्यक्षता रामचन्द्र दास परमहंस कर रहे थे। वहां राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया गया। इस बैठक में जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए सीतामढी से अयोध्या तक राम-जानकी रथ यात्रा का कार्यक्रम भी तय किया गया।
रामचन्द्र दास परमहंस ने 1985 में घोषणा की थी कि यदि ताला नहीं खोला गया तो वे आत्महत्या कर लेंगे। परिणाम यह हुआ कि 1 फरवरी 1986 को ही ताला खुल गया। 1990 में कार सेवकों के जिस समूह पर गोली चलाई गई थी उसका नेतृत्व रामचन्द्र दास परमहंस ने किया था।
कारसेवकों का किया मार्गदर्शन
उन्होंने बताया कि अक्टूबर 1985 में अयोध्या से उत्तर प्रदेश भ्रमण के लिए भेजे गए छह राम-जानकी रथों की पूजा खुद रामचन्द्र दास ने की थी। उन्हीं के कारण राम जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना हुई थी। दिसंबर 1985 में द्वितीय धर्म संसद (उडुपी) में यह निर्णय लिया गया कि यदि 8 मार्च 1986 को महाशिवरात्रि तक राम जन्मभूमि का ताला नहीं खोला गया तो यह ‘ताला खोलो, ताला तोड़ो आंदोलन’ में बदल जाएगा। धर्मसंसद की अध्यक्षता रामचन्द्र दास परमहंस कर रहे थे।
जनवरी 1989 में प्रयागराज महाकुंभ के अवसर पर आयोजित तृतीय धर्मसंसद में परमहंस की उपस्थिति में शिलापूजन एवं शिलान्यास का निर्णय लिया गया। 1989 में उन्हें राम जन्मभूमि ट्रस्ट का अध्यक्ष घोषित किया गया। उनके प्रयासों से ही 9 नवंबर 1989 को तय तिथि, स्थान और पूर्व निर्धारित शुभ समय पर शिलान्यास कार्यक्रम संपन्न हुआ।
30 अक्टूबर 1990 को कारसेवा के दौरान अनेक बाधाओं को पार करते हुए अयोध्या आये लाखों कारसेवकों का उन्होंने नेतृत्व एवं मार्गदर्शन किया। 2 नवम्बर 1990 को उनका आशीर्वाद लेकर कार सेवकों ने जन्मभूमि की ओर प्रस्थान किया। वह उस दिन कार सेवकों के बलिदान के भी साक्षी थे। शहीद कारसेवकों के शव दिगंबर अखाड़े में लाए गए।
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पुरूषोत्तम सिंह ने बताया कि अक्टूबर 2000 में केन्द्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक में महंत रामचन्द्र दास परमहंस को सर्वसम्मति से मंदिर निर्माण समिति का अध्यक्ष चुना गया। जनवरी 2002 में अयोध्या से दिल्ली तक वर्नाट संत यात्रा शुरू करने का निर्णय उनका था। 27 जनवरी 2002 को, वह संतों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे थे जो प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने गए थे।
वह लगातार राम मंदिर आंदोलन को तेज करने की योजना बना रहे थे और सहमति दे रहे थे। ‘राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण आंदोलन हाई पावर कमेटी’ इसी प्रयास का हिस्सा थी। उनके परामर्श से ही श्री राम संकल्पसूत्र संकीर्तन कार्यक्रम की योजना बनाई गई। यह अपने आप में एक अनोखी योजना थी। इसके तहत दो लाख गांवों के दो करोड़ लोगों को मंदिर आंदोलन से जोड़ने का लक्ष्य था। इस प्रकार वे 31 जुलाई 2003 को अंतिम सांस लेने तक राम जन्मभूमि के लिए संघर्ष करते रहे।
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