लोकसभा चुनाव के पूर्व 14 अप्रैल 2024 को पार्टी का घोषणा पत्र ’’भाजपा का संकल्प, मोदी की गारंटी’’ जारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दस साल के कार्यकाल में पूरे हुए उन तमाम संकल्पों, तीन तलाक, अनुच्छेद-370, महिला आरक्षण, नागरिकता संशोधन अधिनियम, राम मंदिर निर्माण आदि का जिक्र करते हुए आगामी पांच साल के प्रमुख संकल्पों पर अपनी बात रखी थी। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में एक राष्ट्र एक चनुाव, आम मतदाता सूची, समान नागरिक संहिता, भ्रष्टाचार पर अंकुश, नागरिकता संशोधन अधिनियम का कार्यान्वयन तथा भारतीय न्याय संहिता को लागू किए जाने के संकल्प को दृढता से पूरा करने की गारंटी दी थी। प्रधानमंत्री ने साफ तौर पर कहा था कि सत्ता में आने पर ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ से संबंधित मुद्दो के परीक्षण के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति द्वारा की गई सिफारिशों के सफल कार्यान्वयन की दिशा में काम किया जाएगा और सभी चुनावों में एक समान मतदाता सूची का उपयोग किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने इसी क्रम में समान नागरिक संहिता कानून पर जोर देते हुए कहा कि यह संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रुप में दर्ज है।
भाजपा का मानना है कि जब तक समान नागरिक संहिता को नहीं अपनाया जाएगा, तब तक महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिल सकता है। यद्यपि भाजपा ने अपने एक पुराने संकल्प ’नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स’ (एनआरसी) को इस घोषणा पत्र में स्थान नहीं दिया, जबकि पिछले लोकसभा चुनाव के लिए जारी संकल्प पत्र में यह पार्टी का महत्वपूर्ण चुनावी वादा था, जिस पर सरकार 05 साल में कोई निर्णय नहीं ले सकी। भाजपा ने अपने पिछले 10 वर्ष के कार्यकाल की उपलब्धियों और भविष्य के संकल्प को आधार बना कर मजबूती से लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन आम मतदाताओं का वांछित सहयोग और समर्थन नहीं मिल पाने के कारण पार्टी अकेले बहुमत के आंकड़े से दूर रह गई। 2014 में 282 सीटें और 2019 में 303 सीटें पाने वाली भाजपा को इस बार 240 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा।
ऐसी स्थिति में सहयोगी दलों के सहारे भाजपा के ’’राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’’ ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाई है। इसी के साथ नरेन्द्र मोदी नेहरु के बाद दूसरे ऐसे राजनेता बने, जिन्हें लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री चुना गया है लेकिन दूसरी ओर गुजरात और केंद्र में लगभग ढाई दशक तक बहुमत वाली सरकारों की अगुवाई करने वाले नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। जिसमें प्रधानमंत्री को कोई फैसला लेते समय गठबंधन के सभी दलों की नीतियों और सिद्धांतों का ध्यान रखना पड़ेगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अब उन मुद्दों का क्या होगा, जिसे भाजपा ने साल 2014 से 2024 के बीच पूरी ताकत से बिना किसी विरोध की परवाह किए उठाया था और उन पर अमल की दिशा में कदम भी बढ़ाए थे।
समान नागरिक संहिता
भाजपा लम्बे समय से देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करने की समर्थक रही है। पार्टी का मानना है कि जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपनाता, तब तक लैंगिक समानता नहीं हो सकती है। समान नागरिक संहिता सामाजिक मामलों से संबंधित कानून होता है, जो सभी पंथ के लोगों पर समान रुप से लागू होता है। समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4, जो राज्य के नीति निदेशक तत्व से संबंधित है, के अनुच्छेद 44 में है। यदि किसी राज्य में यह कानून लागू होता है, तो वहां विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेना और सम्पत्ति के बंटवारे जैसे तमाम विषयों में सभी नागरिकों के लिए एक कानून होगा। सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा पारित समान नागरिक संहिता कानून के प्रस्ताव को मार्च 2024 में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य है, जहां यह संहिता लागू होगी।
इसके पूर्व गोवा में भी यह कानून लागू है। यद्यपि कुछ राजनैतिक दलों के साथ ही भारतीय मुस्लिम समाज इस कानून का विरोध करते रहे हैं क्योंकि यह उनके इस्लामी कानून और बहुविवाह जैसी प्रथाओं पर रोक लगाता है। कुछ आदिवासी समूहों ने भी इस कानून के खिलाफ आवाज उठाई है। इस मामले में सरकार के दो बड़े सहयोगी दलों की बात की जाए तो नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) इसके पक्ष में नहीं दिखती है। पार्टी अभी भी अपने पुराने रुख पर कायम है। सात साल पहले लॉ कमीशन ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से इस पर सुझाव मांगें थे, तब नीतीश कुमार ने सुझाव देने के बजाय लॉ कमीशन प्रमुख से यूसीसी को लागू करने के तौर-तरीकों के बारे में पूछ लिया था।
अब गठबंधन की सरकार बनने के बाद उनके पार्टी प्रवक्ता केसी त्यागी का कहना है कि हम लोग यूसीसी के विरोध में नहीं हैं। नीतीश कुमार इस बारे में लॉ कमीशन के प्रमुख को पहले लिख चुके हैं। इसमें सभी संबंधित पक्षों, राज्य के मुख्यमंत्रियों, विभिन्न राजनीतिक दलों तथा सभी धर्म के प्रतिनिधियों से बात करनी चाहिए, इससे मुद्दा सुलझ जाएगा। स्पष्ट है कि पार्टी मामले को उलझाये रखना चाहती है। तेलुगू देशम पार्टी ने अब तक यूसीसी पर कोई स्पष्ट राय जाहिर नहीं की है। पार्टी की मुस्लिम समुदाय में मजबूत पकड़ को देखते हुए तय माना जा रहा है कि वह यूसीसी का समर्थन नहीं करना चाहेगी। 2023 में पार्टी ने मुसलमानों को आश्वासन दिया था कि उनकी पार्टी ऐसा कोई निर्णय नहीं लेगी, जो उनके हितों के खिलाफ होगा। पार्टी के नेता अभी भी मीडिया से कह रहे हैं कि राज्य में अल्पसंख्यकों के हितों से कोई समझौता नहीं होगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि फिलहाल समान नागरिक संहिता लागू करना आसान नही होगा क्योंकि इसके कार्यान्वयन में बहुत सारी समस्याएं हैं।
मुसलमान सीधे विरोध में है तो दूसरी तरफ आदिवासी समुदाय भी खुश नहीं है, उन्हें ऐसा लगता है कि उनकी जीवनशैली कमजोर हो जाएगी, पारसी समुदाय भी इन्हीं सब कारणों से यूसीसी नहीं चाहता है। सहयोगी जेडीयू और टीडीपी जैसे कई दल भी साथ नहीं खडे़ होंगे। भाजपा भी इस तथ्य से भिज्ञ है क्योंकि उसने अभी तक यूसीसी का एक भी मसौदा पेश नहीं किया है, जिसे वो संसद में पारित कराना चाहती है। गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि हमारे पास पांच साल का पर्याप्त समय है और हमने उत्तराखण्ड में एक प्रयोग किया है, जहां हमारी बहुमत वाली सरकार है क्योंकि ये केंद्र के साथ-साथ राज्यों से जुड़ा विषय भी है। गृह मंत्री का कहना है कि समान नागरिक संहिता को एक बड़े सामाजिक, कानूनी और धार्मिक सुधार के रुप में देखा जाना चाहिए।
एक राष्ट्र-एक चुनाव एवं आम मतदाता सूची
भाजपा लम्बे अर्से से एक राष्ट्र एक चुनाव की पक्षधर रही है, इसीलिए उसने अपने घोषणा पत्र में एक राष्ट्र-एक चुनाव की व्यवस्था को लागू करने पर बल दिया। दरअसल, भाजपा सरकार द्वारा इसके लिए सितम्बर 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति गठित की गई थी। समिति ने मात्र 191 दिन में अपनी रिपोर्ट तैयार करके मार्च 2024 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है, जिसमें एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराए जाने का प्रस्ताव है। समिति की रिपोर्ट के अनुसार कुल 47 राजनीतिक दलों में से 32 राजनीतिक दलों ने एक राष्ट्र-एक चुनाव का समर्थन और 15 दलों ने विरोध किया है। ंचुनाव से पूर्व गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि इसे अगले पांच साल के भीतर लागू किया जाएगा।
चुनाव के नतीजे आने के बाद नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल युनाइटेड के प्रवक्ता ने कहा कि उनकी पार्टी वन नेशन-वन इलेक्शन के मुद्दे पर बीजेपी के साथ है जबकि एन चन्द्र बाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी फिलहाल इस मुद्दे पर अभी मौन है। उल्लेखनीय है कि तेलुगू देशम पार्टी उन 15 राजनीतिक दलों में शामिल है, जिसने कोविंद समिति के सामने एक राष्ट्र-एक चुनाव का समर्थन नहीं किया है। अब गठबंधन सरकार बनने के बाद माना जा रहा है कि कोविंद समिति ने भले ही अपनी रिपोर्ट सौंप कर भाजपा का काम आसान कर दिया है लेकिन यह मामला अभी शांत ही रहेगा क्योंकि आंध्र प्रदेश या बिहार जैसे राज्य अपनी विधानसभाओं को भंग करके और फिर उन्हें 2029 में आम चुनाव के साथ कराने पर सहमत नहीं होंगे। संविधान विशेषज्ञों का भी मानना है कि सरकार के तमाम सहयोगी और अधिकांश विपक्षी दल इससे सहमत नहीं होंगे।
दूसरी ओर इस प्रक्रिया को अपनाने के लिये संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी, जिसके लिये सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों के बहुमत की जरूरत होती है। वर्तमान स्थिति को देखते हुए भाजपा के लिए बहुमत जुटा पाना असम्भव तो नहीं मुश्किल जरुर लगता है। एक राष्ट्र-एक चुनाव के एजेंडे के साथ ’आम मतदाता सूची’ को जोड़ा जाता है। 2019 के लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में भी आम मतदाता सूची को शामिल किया गया था। मुख्य चुनाव आयुक्त ने विभिन्न प्रकार के चुनावों जिसमें संसदीय, विधान सभा और स्थानीय निकाय के चुनाव शामिल है, के लिए एक सामान्य मतदाता सूची स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। सरकार का भी मानना है कि इस पहल से चुनावी प्रक्रिया की दक्षता और पारदर्शिता बढ़ सकती है, जिसके कारण बेहतर और विश्वसनीय परिणाम प्राप्त हो सकेंगे परन्तु भाजपा का यह एजेंडा भी लागू होना मुश्किल लगता है।
दरअसल, एक साल पहले अगस्त 2023 में भाजपा के राज्यसभा सदस्य सुशील मोदी के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने आम मतदाता सूची को लागू किए जाने को संविधान के अनुच्देद 325 की सीमा के बाहर बताया। संविधान के अनुच्छेद 325 में प्राविधान है कि संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के लिए अलग अलग मतदाता सूची का उपयोग किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में समिति ने जहां एक ओर सरकार को सावधानीपूर्वक कदम बढ़ाने, वहीं दूसरी ओर मुख्य चुनाव आयुक्त को विधायी विभागों, विभिन्न राज्य सरकारों और राजनैतिक दलों के साथ व्यापक परामर्श करके संविधान के अनुच्छेद 325 के अनुरुप आम सहमति बनाने का सुझाव दिया है। यद्यपि आम मतदाता सूची के विषय में यह भी कहा जाता है कि इसका संबंध एक राष्ट्र-एक चुनाव से नहीं जुड़ा है लेकिन राजनीतिक समीक्षक मानते है कि यह उसी का अग्रदूत है।
जनसंख्या नियंत्रण
जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा फिलहाल भाजपा के 2024 के घोषणा पत्र में सीधे तौर पर शामिल नहीं है, लेकिन मोदी सरकार ने जिस प्रकार अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम अंतरिम बजट में इस मुद्दे को प्रमुखता देते हुए एक समिति गठन का प्रस्ताव किया, उससे ही इसके महत्व का पता चलता है। बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि जनसंख्या वृद्धि और डेमोग्राफिक चेंज से पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार एक कमेटी का गठन करेगी। यह समिति ‘विकसित भारत’ के लक्ष्य के संबंध में इन चुनौतियों से व्यापक रूप से निपटने के लिए सिफारिशें देने का कार्य करेगी। उसी समय यह सुनिश्चित हो गया था कि यदि मोदी सरकार 2024 में सत्ता में लौटती है, तो देश की बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कदम उठाए जांएगे क्योंकि दस वर्ष के कार्यकाल में मोदी सरकार द्वारा भाजपा और संघ के तमाम मुद्दों को अमलीजामा पहनाया जा चुका है।
अब समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण जैसे कुछ ही विषयों पर काम किया जाना बाकी है, जिसके संबंध में समय-समय पर संकेत भी मिलते रहे हैं। प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2019 को लाल किले से अपने संबोधन में तेजी से बढ़ती जनसंख्या को लेकर चिंता जाहिर करते हुए देशवासियों से छोटे परिवार की अपील की थी। उन्होंने कहा था कि छोटा परिवार रखना भी देशभक्ति है। वर्तमान समय में देश की आबादी 140 करोड़ से ज्यादा है और आबादी के लिहाज से भारत चीन को पछाड़कर दुनिया में नंबर एक पर पहुंच चुका है लेकिन जब भी जनसंख्या नियंत्रण कानून की बात आती है तो मुस्लिम समुदाय विरोध पर उतर आता है।
मुसलमान मानते हैं कि जनसंख्या नियंत्रण कानून मुस्लिम विरोधी है और इस कानून को मुसलमानों को टारगेट करने के लिए लाया जा रहा है। इस मुद्दे पर मुस्लिम नेताओं के साथ तमाम राजनैतिक दलों से जुड़े लोग भी कहने लगते हैं कि यह कानून नहीं बनाया जाना चाहिए। वैसे भी इतिहास गवाह है कि आजादी के बाद से अब तक 35 बार ’’दो बच्चों की नीति’’ का प्रस्ताव संसद में पेश किया जा चुका है लेकिन उस पर सहमति नही बन सकी। अब गठबंधन सरकार में भाजपा के दो मुख्य सहयोगी दलों के मुस्लिम समाज से नजदीकी रिश्ते किसी से छिपे नहीं है। ऐसे में यदि भाजपा जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने के लिए कदम बढ़ाती है तो कई सहयोगी दल विरोध में उतर सकते हैं।
निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन
मोदी सरकार के इस तीसरे कार्यकाल में जनगणना और उसके बाद परिसीमन प्रक्रिया को लेकर भी गम्भीर चर्चा चल रही है क्योंकि तीसरा और अंतिम परिसीमन 1973 में हुआ था। दरअसल, सितम्बर 2023 में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि 2024 के चुनाव के तुरंत बाद जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया शुरु की जाएगी। इसमें संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की कुल संख्या को फिर से तय करना शामिल हो सकता है। महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के कारण भी सरकार पर नए परिसीमन का दबाव बन रहा है। राजनीतिक तौर पर संवेदनशील कदम होने की वजह से इस पर सभी दलों की नजर है क्योंकि पश्चिम और दक्षिण के राज्य जनसंख्या नियंत्रण उपायों को बेहतर ढंग से लागू कर रहे हैं।
अब ऐसे राज्यों को डर सता रहा है कि यदि जनगणना के बाद आधार जनसंख्या में बदलाव किया गया तो उनके राज्यों में संसद की कुछ सीटें कम हो जाएंगी जबकि उत्तर भारत के राज्यों को अधिक जनसंख्या घनत्व के कारण संसदीय क्षेत्रों की अधिक सीटें मिल जाएंगी। दक्षिण भारत के कई राजनेताओं ने इस बारे में प्रधानमंत्री को अपनी चिंता से अवगत भी कराया है। इससे इतर यदि परिसीमन आयोग गठित होता है तो उसकी सिफारिश स्वीकार करने के लिए संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी, जिसके लिए विपक्ष समेत सहयोगी पार्टियों की सहमति आवश्यक होगी, जो वर्तमान हालात में मुश्किल लगता है।
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) के मामले में तो भाजपा ने स्वयं अपने पांव पीछे खीच लिए हैं। पार्टी के 2024 के घोषण पत्र में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप को शामिल नहीं किए जाने पर समर्थकों सहित तमाम राजनीतिज्ञों को हैरानी भी हुई, क्योंकि 2019 के चुनाव में यह पार्टी का महत्वपूर्ण चुनावी वादा था जिसमें कहा गया था कि कुछ इलाकों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान में अवैध आप्रवासन के कारण बड़ा बदलाव आया है, जिससे स्थानीय लोगों की रोजी-रोटी पर बुरा असर पड़ा है। इस स्थिति में संबंधित क्षेत्रों में तेजी से एनआरसी की प्रक्रिया पूरी करेंगे तथा भविष्य में देश के अन्य हिस्सो में भी चरणबद्ध तरीके से इसको लागू किया जाएगा।
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बिल एक रजिस्टर है, जिसमें भारत में रह रहे सभी वैध नागरिकों का रिकॉर्ड रखा जाएगा। देश में असम इकलौता राज्य है, जहां सबसे पहले 1951 में एनआरसी तैयार की गई थी और 2019 में उसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अपडेट किया गया। 2019 में सरकार बनने के बाद गृहमंत्री ने कहा था कि मैं आपको भरोसा देता हूं कि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा और सभी घुसपैठियों की पहचान करके उनको 2024 के चुनाव से पहले देश से बाहर भेज दिया जाएगा परंतु नवंबर 2023 में गृहमंत्री ने ही कहा कि अभी एनआरसी नहीं लाया जा रहा है।
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले आए इस बयान ने सबको चैंका दिया। आखिर भाजपा के रुख में बदलाव के पीछे कारण क्या हैं ? माना जा रहा है कि भाजपा लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत ऐसा निर्णय लेने के लिये बाध्य हुई क्योंकि एनआरसी तैयार करने पर सबसे ज्यादा प्रभावित लोगों में बांग्लादेशी मुसलमान हैं, जो असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में शरण लिए हुए हंै। इनके विरुद्ध कार्यवाही होने पर विरोधी दल इन प्रभावित लोगों को साथ लेकर भाजपा के विरुद्ध धरना, प्रदर्शन करके चुनाव प्रभावित करते। विरोधी दल एनआरसी की आशंका पर ही असम का उदाहरण देते रहे हैं, जहां लाखों हिंदुओं को एनआरसी से बाहर कर दिया गया था।
उल्लेखनीय है कि असम में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर की गई कार्यवाही में लगभग 19 लाख से अधिक आवेदकों को अंतिम राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) से बाहर कर दिया गया था। माना जा रहा है कि विरोधियों की रणनीति को कुंद करने के लिए ही भाजपा ने एनआरसी को इस बार संकल्प पत्र से बाहर रखा है। फिलहाल भाजपा के घोषणा पत्र को देखें तो उनमें कुछ ऐसे वादे भी रहते हैं, जिससे विपक्ष के साथ साथ सहयोगी दल भी सहमत नहीं होते हैं लेकिन पिछले दोनों कार्यकाल में जब भाजपा स्पष्ट बहुमत में थी, तब तमाम विषयों पर सहयोगी दलों के साथ-साथ विरोधी जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक जैसे नेताओं का भी समर्थन मिला था।
अब गठबंधन सरकार में भाजपा भले ही सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन तेलुगू देशम पार्टी के प्रमुख एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल युनाइटेड प्रमुख तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जा रही है। प्रधानमंत्री के समक्ष इन दोनों सहयोगी दलों के साथ-साथ अपने अन्य सहयोगी दलों के साथ समन्वय बनाये रखना बड़ी चुनौती है क्यांेकि भाजपा ने अपने 400 पार के नारे अर्थात प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाकर पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने, एक देश एक चुनाव कराने, जनसंख्या नियंत्रण कानून, आबादी असंतुलन और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाए जाने जैसे मुद्दों पर आगे बढ़ने की योजना बना रखी थी। बदले परिदृश्य में गठबंधन सरकार चलाने वाली भाजपा अपने महत्वपूर्ण वादों पर आगे कदम बढाएगी, इसको लेकर अभी संशय है।
भाजपा से अलग है नीतीश और नायडू की राह
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दो बड़े भागीदार, टीडीपी प्रमुख और आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू और जेडीयू प्रमुख और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कमार का राजनैतिक इतिहास बताता है कि यह राष्ट्रीय हितों की तुलना में अपने हितों को तरजीह देते आए हैं। इंडिया अलायंस के साथ रहे नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव से पहले पाला बदलते हुए बिहार में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई। इसी तरह से चंद्रबाबू नायडू ने भी मार्च 2024 में एनडीए में वापसी की है। दोनों नेताओं का एनडीए में शामिल होना और अलग होना सामान्य बात है। कहा जा रहा है कि आज नायडू गठबंधन में शामिल हैं तो यह उनका भाजपा या एनडीए से प्रेम नहीं, बल्कि कुछ हद तक मजबूरी है। उनके खिलाफ भी बहुत सारे मामले चल रहे हैं। भष्ट्राचार के मामले में उन्हें सितम्बर 2023 में पुलिस ने गिरफ्तार भी किया था। नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू दोनों ही ऐसे नेता हैं, जिनका आधार क्षेत्रीय राजनीति है इसीलिए यह दोनों नेता क्षेत्रीय मुद्दों के साथ अपने प्रदेश के मुसलमानों को तरजीह देते आए हैं क्योंकि मुसलमान उनके लिए एकमुश्त वोट बैंक है।
चुनाव के समय टीडीपी ने कहा कि वह राज्य में मुस्लिम समुदाय के लिए 04 प्रतिशत आरक्षण बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि, गठबंधन में होने के बाद भी मोदी और अमित शाह सहित भाजपा नेताओं ने अपने राष्ट्रीय चुनाव अभियानों के दौरान आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मुसलमानों के लिए आरक्षण की आलोचना की। उन्होंने तर्क दिया कि कोटा असंवैधानिक है और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण फिर से आवंटित करने का वादा किया। माना जाता है कि दोनों मुख्यमंत्रियों को अपने राज्य के मुसलमानों के हितों से जुड़े मुद्दों पर कोई समझौता स्वीकार्य नहीं होगा।
इसी प्रकार जातिगत जनगणना कराए जाने को लेकर विपक्ष के साथ जेडीयू और टीडीपी भी मुखर हैं। कांग्रेस सहित विपक्षी दलों की जातिगत जनगणना पर प्रधानमंत्री ने कहा था कि जाति के नाम पर देश को बांटना पाप है। उन्होंने यह भी कहा कि उनके लिए चार सबसे बड़ी जातियां युवा, महिलाएं, गरीब और किसान हैं, जिनकी बेहतरी के लिए उनकी पार्टी काम करेगीं। जेडीयू ने बिहार में पहले ही जाति जनगणना करवाई है और अब इसे पूरे देश में लागू करना चाहती है। क्या जेडीयू अब भी जाति जनगणना के लिए जोर देगी ? के सवाल पर पार्टी के एक प्रवक्ता ने कहा कि देश में किसी भी पार्टी ने जाति जनगणना से इनकार नहीं किया है।
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बिहार ने रास्ता दिखाया है, प्रधानमंत्री ने भी इसका विरोध नहीं किया है। यह समय की मांग है और हम इसे आगे बढ़ाएंगे।सुरक्षाबलों में भर्ती के लिए लागू अग्निवीर योजना को लेकर जेडीयू ने सरकार बनने से पहले ही चिंता व्यक्त की है। पार्टी का कहना है कि इस अल्पकालिक सेना भर्ती में तमाम कमियां हैं, जिसको लेकर लोग आपत्ति कर रहे हैं। जेडीयू के साथ लोजपा ने भी इस योजना पर आपत्ति की है। पार्टी ने साफ तौर कहा कि मतदाताओं के आक्रोश को देखते हुए इस योजना में सुधार किया जाए। इस मुद्दे पर भाजपा एकदम अलग-थलग पड़ गई है। कुल मिलाकर देखा जाए तो जेडीयू और टीडीपी पहले से ही प्रमुख नीतियों को लेकर अपनी ताकत दिखा रहे हैं। वह हर दिन आभास करा रहे हैं कि उनकी राह अलग है, ऐसे में सबको साथ लेकर चलने में प्रधानमंत्री को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।
हरि मंगल
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