उत्तर प्रदेश के संदर्भ में प्रचलित कहावत कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उप्र से होकर जाता है एक बार फिर सच साबित हुआ। उत्तर प्रदेश में भाजपा की करारी हार ने केन्द्र में भाजपा को सहयोगियों पर निर्भर रहने को मजबूर कर दिया। जिस प्रदेश में पांच साल पहले पार्टी को 62 सीटें मिली थी, वहां अबकी बार मात्र 33 सीटें ही मिल सकी। वोट प्रतिशत भी लगभग 09 प्रतिशत घट गया, जबकि 2019 में 05 सीट पाने वाली सपा को 37 और 01 सीट वाली कांग्रेस को 06 सीटें मिल गई। भाजपा ने समय से टिकट बांटे, टिकटों के बटवारे के बाद अन्य दलों की तरह अंतिम क्षणों में कोई परिवर्तन नहीं किया, परफार्मेंस खराब की रिपोर्ट के बाद लगभग 16 वर्तमान सांसदों के टिकट काटे गए, 2019 में हारी हुई सीटों पर तमाम नए चेहरों को मौका दिया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी सहित तमाम स्टार प्रचारकों ने उप्र में प्रचार की कोई कमी नहीं की, फिर भी परिणाम अप्रत्याशित आए। अब सवाल उठ रहा है कि भाजपा की इस अप्रत्याशित हार के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है ? यह सच है कि भाजपा पिछले सात साल से प्रदेश में सत्ता में है। उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश बन रहा है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है। सात साल में प्रदेश के मुख्यमंत्री की ईमानदारी, कानून व्यवस्था और माफियाराज के अंत का बहुधा उल्लेख भी किया जाता है। प्रदेश के जागरुक मतदाताओं का यदि वर्गीकरण किया जाए तो उसमें सर्वाधिक मतदाता गामीण क्षेत्रों के हैं और उनके जीवन का आधार कृषि है लेकिन कृषि से जीवन-यापन इन सात सालों में कठिन हो गया है।
छुट्टा और आवारा पशुओं से इन सात वर्षों में किसान जितना परेशान और बदहाल हुआ, उतना कभी नहीं हुआ था। सत्ता में आने के बाद अवैध बूचड़खानों पर रोक लगी लेकिन आए दिन आवारा छोड़े जा रहे गौवंशों को व्यवस्थित करने की कोई योजना धरातल पर परवान नहीं चढ़ सकी। न्याय पंचायत स्तर पर गौवंशों के संरक्षण हेतु गौशालाएं खोली र्गइं, कान्हा उपवन योजना और गौ-संरक्षण केन्द्र की योजनाएं बनाई तो गईं लेकिन अधिकांश स्थानों पर वह दिखाई नहीं पड़ रही है। छुट्टा जानवर फसलों को लगातार चट कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव 2022 में प्रधानमंत्री ने भी इस समस्या के निराकरण का आश्वासन दिया लेकिन मोदी की गारंटी भी सच नहीं साबित हुई। खाद बीज, दवाओं के मुल्यों में बेतहाशा वृद्धि हुई, उसके बाद भी सरकारी केन्द्रों से समय पर किसानों को खाद और बीज नहीं मिल पा रहे हैं और वह दुकानों से महंगे दामों पर खरीदने को मजबूर हो रहे हैं। किसानों में यह संदेश जा रहा है कि सरकार किसानों के लिये कुछ नही कर रही है।
मतदाताओं का दूसरा वर्ग युवाओं का है, जिसमें अधिकांश शिक्षित युवा हैं, जिनके के पास बी.ए, एम.ए, एम.बी.ए, बी.टेक या अन्य डिग्रियां है लेकिन उनको रोजगार के अवसर नहीं मिल रहे है। प्रदेश में तमाम विभागों में पद खाली पड़े है लेकिन उन पर भर्ती नहीं हो पा रही है। जिन पदों को भरने का प्रयास किया जा रहा है, उनमें से अधिकांश के पर्चे लीक हो जा रहे हैं या फिर वह भर्तियां न्यायालय विवाद में फंस जा रही हैं। एक लम्बे समय बाद सिपाही के पदों का विज्ञापन जारी हुआ। 50 लाख से अधिक लोगों ने दूर-दराज के केन्द्रों पर जाकर परीक्षा दी, बाद में पता चला कि पेपर लीक हो गया और भर्ती परीक्षा रद्द हो गई। समीक्षा अधिकारी और सहायक समीक्ष अधिकारी की परीक्षा लोक सेवा आयोग कराता है लेकिन इस परीक्षा का पेपर भी लीक हो गया। यह दो परीक्षाएं तो उदाहरण मात्र हैं, ऐसी दर्जन भर से ज्यादा परीक्षाएं पेपर लीक के कारण या तो रद्द हो गई हैं या फिर न्यायालय में विवाद का विषय बनी हुई हैं।
इससे उन लाखों परीक्षार्थियों में सरकार को लेकर आक्रोश है, जो अपने गांव, शहर से दूर रह कर तैयारी कर रहे हैं। इन युवाओं को लगता है कि यह सब सरकार की नकल माफियाओं पर नरमी के कारण हो रहा है। यह युवा तर्क देते हैं कि जिस योगी सरकार की कानून व्यवस्था से आज प्रदेश का माफिया थर्रा रहा है, वहां के नकल माफिया कैसे भयमुक्त होकर लगातार पेपर लीक कर लाखों युवाओं का भविष्य खराब कर रहे हैं। आम मतदाओं में मंहगाई को लेकर भी सरकार से नाराजगी है। सरकार तमाम प्रयासों के बाद भी दैनिक उपयोग की वस्तुओं की बढ़ती बेतहाशा कीमतों पर तत्काल अंकुश लगाने में असफल रह रही है। चुनाव के समय भी दाल, मसाले, तेल जैसी वस्तुओं की बढ़ी कीमतों ने आग में घी का काम किया है, जिसे भुनाने में विपक्ष सफल रहा है।
पूर्व की सरकारों के कार्यकाल में यह कहा जाता था कि वह अपने कार्यकर्ताओं की समस्याओं, चाहे वह जायज हो या फिर नाजायज, को दूर करने के लिए उनके प्रतिनिधि अधिकारियों को मजबूर करते थे लेकिन भाजपा के शासनकाल में यह विख्यात है कि बूथ लेबल कार्यकर्ता से लेकर विधायक या फिर मंत्री तक की कोई सुनने वाला नहीं हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं की छोटी-छोटी वाजिब समस्याओं को थाने, तहसील के अधिकारियों की दया पर छोड़ दिया गया है। यही कारण है कि पार्टी का हर जनप्रतिनिधि अब आम मतदाताओं से कटता जा रहा है। चुनाव जीतने बाद किसी खास मौके पर जनप्रतिनिधि भले ही दिख जाते हैं, लेकिन उनका सामान्य दौरा अब बंद हो चला है। यही स्थिति मंत्रियों की भी है। सचिव, प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी तानाशाह की तरह कार्य कर रहे हैं, यह बात अब किसी से छिपी नही है। मुख्यमंत्री से इसकी शिकायत भी हुई।
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विधानसभा चुनाव से पूर्व प्रयागराज में जनप्रतिनिधियों ने मुख्यमंत्री से इस बारे में दो टूक शिकायत भी की थी, आश्वासन भी दिया गया लेकिन कोई परिणाम नही निकला। यही कारण है कि इस चुनाव में अधिकांश जनप्रतिनिधि सड़कों पर चहलकदमी करते रहे। आम मतदाता भी अब जागरुक हो चला है। सत्ताधारी दल के जनप्रतिनिधियों की पार्टी कार्यकर्ताओं से दूरी ने इस बार उसे अलग सोचने को विवश किया है। प्रदेश में सपा और कांग्रेस की सफलता के बाद भले ही उनकी रणनीति, समझौते, मुद्दे और समीकरण आदि कारण गिनाए जा रहे हैं लेकिन धरातल का सच यही है कि मतदाताओं के बड़े वर्ग किसान और मजदूरों की उपेक्षा, युवाओं को रोजगार से दूर रखना बड़ा कारण है। इन पार्टियों के अतीत को देखें तो पिछले पांच साल में इन लोगों ने ऐसा कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया, जो लोगों के जेहन में हो तो फिर आम मतदाता का झुकाव उनकी ओर क्यों हुआ ? इसका सीधा और सपाट कारण यही है कि प्रदेश सरकार से मतदाताओं के एक बड़े वर्ग की नाराजगी, जो आक्रोश में सपा या कांग्रेस के वोट बैंक बनने को मजबूर हुए। इसमें सपा या कांग्रेस की नीतियों का कोई योगदान नहीं है।
हरि मंगल