किशनगंज: जिले के ठाकुरगंज के चुरली एस्टेट की तरह किशनगंज के महीनगांव का इतिहास भी सदियों पुराना है, लेकिन आज यह इतिहास लुप्त हो चुका है। महीनगांव एक एस्टेट के रूप में विकसित हुआ। वर्तमान में यहां करीब साढ़े चार हजार लोग रह रहे हैं। महीनगांव एस्टेट 18वीं सदी में बसा था। उस समय पूर्णिया के नवाब शौकत जंग थे, जिन्हें मुर्शिदाबाद के अलीवर्दी खान ने पूर्णिया प्रमंडल का गवर्नर बनाया था।
अब सिर्फ एक मस्जिद ही बची है
यह 18वीं सदी की शुरुआत की बात है, जब बंगाल की सल्तनत ने बिहार, ओडिशा और बंगाल के बाकी हिस्सों के अंदरूनी इलाकों में अपने सरकारी नुमाइंदे भेजने शुरू किए। बंगाल सल्तनत के एक अहम फौजदार पनाउल्लाह महीनगांव आए थे, जो बाद में दीवान पनाउल्लाह के नाम से मशहूर हुए। दीवान पनाउल्लाह ने महीनगांव एस्टेट को बसाया। वे वहां के जमींदार बन गए और गांव में एक मस्जिद भी बनवाई, जिसका आकार इंडो-अफगान इमारतों जैसा है। आज महीनगांव एस्टेट में पुरानी इमारतों के बीच सिर्फ वह मस्जिद ही बची है। दीवान पनाउल्लाह और उनके वंश के अन्य दीवानों की पुरानी इमारतें या तो गिर गईं या उनके रिश्तेदारों ने उन जर्जर इमारतों को तोड़कर नए मकान बनवा दिए।
पेशे से किसान सफीर ने सोमवार को बताया कि अंग्रेजों के आने के बाद इस एस्टेट की जमीन का मालिकाना हक और बढ़ गया। सफीर के बड़े भाई मोहम्मद सैफुल्लाह ने बताया कि महीनगांव एस्टेट के पहले दीवान पनाउल्लाह के परपोते अहमदुल्लाह यानी उनके पिता दीवान अहमदुल्लाह इस एस्टेट के आखिरी जमींदार थे। महीनगांव एस्टेट का लेखा-जोखा पूर्णिया के नवाब शौकत जंग के महल में भेजा जाता था। शौकत जंग पूर्णिया प्रमंडल के मुर्शिदाबाद के आलमपनाह अलीवर्दी खां के प्रतिनिधि थे। अलीवर्दी खां के जीवनकाल में उनका अच्छा खासा ओहदा था।
नवाब शौकत जंग की यहीं लड़ाई में मौत हुई
पूर्णिया के नवाब शौकत जंग नवाब सिराजुद्दौला के चचेरे भाई और नवाब अलीवर्दी खां के पोते थे। अलीवर्दी खान की मौत के बाद उसकी बेटी घासेटी बेगम ने शौकत जंग को सिराजुद्दौला के खिलाफ बंगाल और ओडिशा की गद्दी पर दावा करने के लिए उकसाया। नवाब शौकत जंग ने भी कुछ ऐसा ही किया। उसने नवाब सिराजुद्दौला को पत्र लिखकर कहा कि अब से वह सूबे का अलमपनाह है। इतना ही नहीं नवाब शौकत जंग ने सिराजुद्दौला को ढाका जाकर अपना प्रतिनिधि बनने का आदेश दिया। पत्र पढ़ने के बाद गुस्से से आगबबूला सिराजुद्दौला ने तुरंत अपनी सेना पूर्णिया के नवाब की ओर भेज दी। सिराजुद्दौला की सैन्य शक्ति के आगे पूर्णिया के नवाब शौकत जंग की हार हुई और इस लड़ाई में उसकी मौत हो गई।
बंदोबस्त नियम के तहत सौंप दी गई जमीन
महीनगांव एस्टेट उस समय से पहले शौकत जंग के अधीन सभी करों को इकट्ठा करता था। शौकत जंग की मौत के ठीक एक साल बाद प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला अंग्रेजों से हार गया और उसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक नए तरह की जमींदारी प्रथा शुरू की। 1952 के भूमि बंदोबस्त अधिनियम के लागू होने के बाद भारत सरकार ने सभी जागीरों की अधिकांश जमीन अपने कब्जे में ले ली। महीनगांव जागीर में भी इस अधिनियम के लागू होते ही जमीन भारत सरकार को सौंप दी गई। मोहम्मद सैफुल्लाह के मुताबिक जमीन का कुछ हिस्सा उनके पिता और महीनगांव के आखिरी जमींदार दीवान अशजदुल्लाह को सौंप दिया गया था।
सरकार ने मुआवजे के तौर पर दीवान अशजदुल्लाह के नाम पर एक बांड दिया था। मोहम्मद सैफुल्लाह ने हमें बताया कि 1975 के सीलिंग एक्ट में आदेश दिया गया था कि जमींदारों के परिवारों में से प्रत्येक परिवार को 30 एकड़ या उससे कम जमीन दी जाएगी। 80 के दशक तक दीवान अशजदुल्लाह और उनके बड़े भाई दीवान अशजदुल्लाह, जो 1924 में सांसद थे, के परिवार को मुआवजे के तौर पर कुछ पेंशन मिलती थी। महीनगांव स्टेट में एक मस्जिद है जो करीब 250 साल पुरानी है, जिसमें आज भी 18वीं सदी की वास्तुकला की झलक मिलती है। मोहम्मद सैफुल्लाह ने हमें औरंगजेब के जमाने की एक कुरान दिखाई। हस्तलिखित कुरान में अरबी में आयतें और फारसी में अनुवाद है। कुछ लोगों का मानना है कि इसे औरंगजेब ने लिखा था।
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इंटरनेट के इस दौर में, जब सारी जानकारी बस एक क्लिक पर है, महीनगांव जैसे दर्जनों ऐतिहासिक स्मारक गायब हो रहे हैं। दीवान पनाउल्लाह के वंशजों के पास संपत्ति से जुड़े कोई दस्तावेज नहीं बचे हैं। महीनगांव किशनगंज की हलचल से महज 8 किमी दूर है, लेकिन इसका जिक्र किसी गूगल पेज या किसी डिजिटल अखबार के पेज पर नहीं है।
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