भौतिक विकास की जिस अवधारण को लेकर इंसान बहुंत तेजी के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है, वह प्रकृति के मूल चरित्र के खिलाफ है। हमने पहाड़ों और जंगलों को काटकर अपने लिए सुगम रास्ते बना लिए, पहाड़ों का सीना चीर कर बिजली के ऊंचे-ऊचे खंभे लगा लिए और बिजली चालित संयंत्रों की मदद से पहाड़ों पर आने और जाने की प्रक्रिया को अत्यंत सरल बना लिया। ऐसा करने के दौरान हम अपने पूर्वजों की उस सीख को भूल गए कि प्रकृति के साथ उतना ही छेड़छाड़ करें, जितना सहन करने की क्षमता हमारे अंदर हो क्योंकि प्रकृति निर्माण और विध्वंस दोनों के मूल में होती है, वह समय-समय पर अपने मूल स्वरूप में वापस लौटती जरूर है।
ऐसे में पहाड़ों की कटान और जगलों का विनाश करने की प्रतिक्रिया के रूप में ग्लेशियरों (Glaciers) के पिघलने, बादलों के फटने, भू-स्खलन और कहीं अत्यधिक बारिश तो कहीं भयंकर सूखा जैसी स्थितियां हमारे सामने आ रही हैं। ऐसे में हमें जंगलों के कटान को रोकने, पर्यावरण प्रदूषण को कम करने और ग्लोबल वार्मिंग के कारणों पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। अरुणाचल प्रदेश के ईटानगर में 23 जून को बादलों के फटने के कारण भू-स्खलन और बाढ़ की स्थिति आ गयी थी। अधिकारियों के मुताबिक, प्रदेश में पिछले कुछ हफ्तों से भारी बारिश हो रही है।
संवेदनशील और नाजुक हालात को देखते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने उच्चस्तरीय बैठक कर बचाव के व्यापक इंतजाम करने के निर्देश दिए हैं। इतना ही नहीं मौसम विभाग ने भी देश के कई राज्यों में भयंकर बारिश होने की चेतावनी जारी कर दी है, जिसमें मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के अलावा गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भारी बारिश की चेतावनी दी गई है। माना जा रहा है कि इनमें से कुछ इलाकों में भारी बारिश की वजह से बाढ़ भी आ सकती है। बता दें कि 07 फरवरी 2021 को हम सभी ने पर्यावरण पर मनुष्यों के नकारात्मक प्रभाव के कारण जलवायु परिवर्तन से प्रेरित एक और आपदा देखी थी, जिसमें उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ में हिमालय के Glaciers टूटने के कारण भारी तबाही मची थी, जान-माल का भी काफी नुकसान हुआ था। इससे पूर्व 15-17 जून, 2013 के दौरान उत्तराखंड और उससे सटे हिमाचल प्रदेश राज्य में सबसे विनाशकारी बाढ़ देखी गई थी, जिसमें भयंकर तबाही मची थी।
चिंता की बात यह है कि ऐसे हिमालयी क्षेत्र में ऐसी भयंकर घटनाएं अब ज्यादा होने लगी हैं, क्योंकि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण हिमालय के Glaciers तेजी से पिघल रहे हैं और अपने साथ जल प्रलय भी ला रहे हैं। हिमालय के Glaciers असाधारण तौर पर पहले के मुकाबले 10 गुना ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं, जिसके चलते भारत सहित एशिया के कई देशों में जल संकट और गहरा सकता है। हिमालय के ग्लेशियरों से एशिया के आठ देशों की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का भविष्य भी जुड़ा हुआ है। मैदानी इलाकों में रहने वाले वे लोग जो बर्फबारी और ठंड का मजा लेने पहाड़ी क्षेत्रों में जाते हैं, वहां की फोटो लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करके खुशी जाहिर करते हैं, उन लोगों को पहाड़ी लोगों की समस्याओं और समुद्र किनारे रहने वालों का जीवन कितना कठिन और चुनौती भरा होता है, इस बात की कोई जानकारी ही नहीं होती है। सिंधु नदी के लिए संकट पैदा हो सकता है। इसके कारण इन नदियों पर निर्भर करोड़ों लोगों की समस्याएं पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा बढ़ जाएंगी।
शोध के मुताबिक हाल के दशकों में हिमालय के ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं, उसकी रफ्तार 400-700 साल पहले हुई ग्लेशियर विस्तार की घटना जिसे हिमयुग कहा जाता है, उसके मुकाबले दस गुना ज्यादा है। देखा जाए तो अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद हिमालय के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ जमा है। यही वजह है कि इसे अक्सर दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने उपग्रहों से प्राप्त चित्रों और डिजिटल तकनीकों की मदद से आज से करीब 400 से 700 साल पहले हिमालय में मौजूद रहे 14,798 ग्लेशियरों की रुपरेखा तैयार की है। आज हम सब जो ग्लेशियर देख रहे हैं, उनका क्षेत्रफल पहले के मुकाबले 40 फीसदी सिकुड़ गया है। जो कभी अपने शिखर पर 28,000 वर्ग किलोमीटर से घटकर 19,600 वर्ग किलोमीटर तक ही सीमित रह गए हैं। एक अनुमान के मुताबिक इस अवधि के दौरान यह ग्लेशियर 586 क्यूबिक किलोमीटर बर्फ को खो चुके हैं।
शोधकर्ताओं का मानना है कि यदि इतनी बर्फ पिघल जाए तो उससे दुनिया भर में समुद्र के जलस्तर में करीब 1.38 मिलीमीटर की वृद्धि हो जाएगी। इसी तरह 2020 में ही एक मीडिया रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभाव के कारण अगर पृथ्वी का तापमान यूं ही बढ़ता रहा तो सन 2100 तक यानी मात्र 80 साल में हिमालय के दो तिहाई ग्लेशियर पिघल जाएंगे। इतने ग्लेशियर यदि पिघलेंगे तो कैसी तबाही लाएंगे, यह सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ग्लेशियरों का इस तरह पिघलना या टूटना न केवल जान-माल का विनाश लाएगा, बल्कि दक्षिण एशिया के देशो के बीच नए राजनीतिक तनाव और सामाजिक आक्रोश का कारण भी बनेगा, क्योंकि ग्लेशियरो के तेजी से टूटने-पिघलने का अर्थ है, हमारी बारहमासी नदियों में जल प्रवाह का धीरे- धीरे सूख जाना।
बर्फ जमने और पिघलने का असंतुन खतरनाक
दरअसल, ग्लेशियर ऊंचे पहाड़ों पर सालों तक बर्फ जमा होते रहने के कारण बनते हैं। ग्लेशियर शब्द लैटिन भाषा के ग्लेशिया शब्द से बना है, जिसका अर्थ बर्फ होता है। ये तब बनते हैं, जब पहाड़ों पर बर्फबारी बहुत ज्यादा होती है और बर्फ पिघलने और बर्फ जमते जाने का अनुपात गड़बड़ा जाता है यानी यह वो बर्फ होती है, जो पिघलने की बजाए आइस्क्रीम की तरह जमती ही चली जाती है। इस निरंतर जमाव से निचली सतह पर ऊपरी सतहों का दबाव बढ़ता जाता है और वो दरक कर टूट जाती है। ग्लेशियर दुनिया में मीठे पानी का सबसे बड़ा स्रोत और भंडार हैं। यदि सारे ग्लेशियर पिघल गए तो दुनिया में पीने के पानी का कैसा संकट और उसके लिए कैसी मारकाट मचेगी, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
हिमालय के इन ग्लेशियरों को ‘वाटर टॉलर ऑफ एशिया’ भी कहा जाता है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ की इस मोटी और विशाल पर्त को आइस शीट कहते हैं। ये ग्लेशियर जब पिघलते हैं, तो झील में तब्दील हो जाते हैं और जब टूटते हैं तो कयामत बन जाते हैं। ग्लेशियर दो तरह के होते हैं, पहला ध्रुवीय और दूसरा महाद्वीपीय। हिमालय के ग्लेशियर महाद्वीपीय हैं। ध्रुवीय ग्लेशियर बहुत धीमी गति से पिघलते रहते हैं, जबकि महाद्वीपीय ग्लेशियर अंधाधुंध मानवीय गतिविधियों और औद्योगीकरण के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन की वजह तेजी से पिघल कर नदी और मलबे में तब्दील हो रहे हैं। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा महाद्वीपीय ग्लेशियर सियाचिन में है।
एक शोध के अनुसार पूर्वी हिमालय में नेपाल और भूटान में मौजूद ग्लेशियर बड़े पैमाने पर तेजी से पिघल रहे हैं। संभवतः ऐसा पर्वत श्रृंखला के दोनों किनारों पर भौगोलिक विशेषताओं में अंतर और वातावरण के साथ परस्पर प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हो रहा है। इसी बदलाव की वजह से मौसम के पैटर्न में भी काफी बदलाव आ रहा है। मैदानी इलाकों की तुलना में झीलों पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव ज्यादा होता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, जिस तरह से इन झीलों की संख्या और आकार में वृद्धि हो रही है, वो दर्शाता है कि इन ग्लेशियरों को बड़े पैमाने पर, निरंतर तेजी से नुकसान हो रहा है। इसी तरह जिन ग्लेशियरों में प्राकृतिक तौर पर मलबे की मात्रा ज्यादा है, वो भी तेजी से पिघल रहे हैं। अनुमान है कि कुल ग्लेशियरों का केवल 7.5 फीसदी होने के बावजूद उन्होंने ग्लेशियरों को होने वाली कुल हानि में करीब 46.5 फीसदी का योगदान दिया है।
दुनिया भर में हैं करीब 7,000 ग्लेशियर
पूरी दुनिया में करीब 7,000 ग्लेशियर हैं, जो पृथ्वी की 10 फीसदी सतह को ऊपर से ढके हुए हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, पूरी दुनिया की आइस शीट को नापा जाए तो यह अनुमानतः 1.70 लाख घन किलोमीटर होगी। अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार, उत्तराखंड के चमोली जिले की ऋषिगंगा घाटी में नंदा देवी ग्लेशियर टूटने से धौली गंगा व अन्य नदियों में आई भीषण बाढ़ से भारी तबाही मच गई थी। इससे एनटीपीसी की 13.2 मेगावाट ऋषिगंगा और 480 मेगावाट की तपोवन विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजनाएं लगभग तहस-नहस हो गईं थी। करीब दो सौ लोग लापता हो गए थे और 18 के शव मिले थे।
ये ग्लेशियर भी कैसे टूटा, बाढ़ क्यों आई, विशेषज्ञ अभी इस बारे में एक राय नहीं हैं। करीब 10 साल पहले केदारनाथ में बाढ़ के रूप में आई प्रलय के पीछे का असली कारण छौराबारी ग्लेशियर झील का टूटना था। शोधकर्ताओं के अनुसार, मध्य और पूर्वी हिमालय क्षेत्र के ज्यादातर ग्लेशियर अगले एक दशक में मिट जाएंगे। कुछ ग्लेशियर के पिघलने का खतरा ज्यादा गंभीर नजर आएगा, जिसके चलते आने वाली बाढ़ से जिन देशों को सबसे ज्यादा गुजरना होगा, उनमें भारत ही नहीं पाकिस्तान भी शामिल है। नेचर कम्युनिकेशंस नाम के जर्नल की रिसर्च के अनुसार, दुनिया में डेढ़ करोड़ लोग ग्लेशियर झीलों में बढ़ते बाढ़ के खतरे के साए में हैं, जिनमें से 20 लाख लोग पाकिस्तान में हैं। यदि ये ग्लेशियर पिघल गए तो इनका पानी झीलों में जाएगा और फिर झीलों का किनारा तोड़कर बाहर आएगा। ऐसे में झील से बाहर आने वाले पानी से बाढ़ का खतरा पैदा होगा, जिससे रिहायशी इलाकों को बड़ा नुकसान होने का खतरा उत्पन्न होगा।
विशेषज्ञों की मानें तो ग्लोबल वार्मिंग के चलते अगली सदी तक 75 प्रतिशत हिमालय का हिस्सा खत्म हो सकता है, जो एक ऐसा नुकसान होगा, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती है। ये ग्लेशियर नहीं होंगे, तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पीने का साफ पानी उपलब्ध होने में लोगों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, साथ ही पृथ्वी पर बहुत अधिक गर्मी बढ़ जाएगी। ऐसे में हमें ग्लेशियरों को पिघलने से रोकने के लिए अपेक्षित उपायों को गंभीरतापूर्वक अपनाने होंगे। गौरतलब है कि ग्लेशियर स्वाभाविक रूप से पिघलते हैं और इस तेजी से पिघलने का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है इसलिए ग्लेशियरों के पिघलने को रोकने का सबसे अच्छा तरीका ग्लोबल वार्मिंग को कम करना या रोकना है।
ग्लोबल वार्मिंग की असामान्य दर ग्लेशियरों को तेजी से पिघलाती है और बहाली को कम करती है। ऐसे में हमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना है, जो ग्लोबल वार्मिंग का एक प्रमुख कारण है। यह अक्षय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके, ऊर्जा दक्षता में सुधार करके और वनों की कटाई को कम करके किया जा सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यदि हम तेजी से बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को अगले 10-15 वर्षों में रोकने और उसमें 45 प्रतिशत की कमी लाने में सक्षम हो जाते हैं, तो काफी हद तक स्थिति नियंत्रण में होगी, लेकिन इसकी भयावहता से बचने के लिए हमें 2050 के बाद कार्बन उत्सर्जन को शून्य पर लाना होगा।
ग्लेशियरों का टूटना एक प्राकृतिक प्रक्रिया
यूं ग्लेशियरों का टूटना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। बर्फ की तहें मोटी होते-होते कई बार अपने ही भार से टूटने लगती हैं, लेकिन उनका तेजी से पिघलना केवल नैसर्गिक प्रक्रिया नहीं है। मानवीय गतिविधियों के कारण पूरी पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ रहा है, जिसका दुष्परिणाम हमेशा ठंडे और आत्मलीन पहाड़ों के हिमशिखरों पर भी पड़ रहा है। इंसान की अटूट आस्था भले ही हिमालय पर्वत, कैलाश पर्वत और जगत का कल्याण करने वाली मां गंगा में हो, लेकिन जिस तरह से ग्लेशियर पिछल रहे हैं। जंगलों का असीमित और अनियमित कटान हो रहा है, वह बहुत ही खतनाक है।
यह भी पढ़ेंः-मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ताः क्यों याद आ रहा शाहबानो का 40 साल पुराना केस ?
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियरों का अचानक पिघलना और झीलों में बदल जाना असामान्य बात नहीं है। हिमालय क्षेत्र में ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती हैं, लेकिन ग्लेशियर टूटकर नीचे गिरना और साथ में कंकड़ पत्थरों का भयानक मलबा साथ लेकर प्रलयंकारी ढंग से बहना मनुष्य के लिए प्रकृति की ओर से चेतावनी है। यदि ग्लेशियर ही नहीं रहेंगे तो गंगा और यमुना जैसी नदियों और अखंड जलस्रोतों का अस्तित्व भी खत्म हो जाएगा।
(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक और ट्विटर पर फॉलो करें व हमारे यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें)