Home अन्य संपादकीय भारतीय समाज के संस्कारों में रहा है जल संरक्षण

भारतीय समाज के संस्कारों में रहा है जल संरक्षण

जल संकट केवल देश ही नहीं, दुनियाभर में बढ़ता ही जा रहा है। जल संकट का साया अर्थव्यवस्था पर भी पडने लगा है। जल संकट से खेती और औद्योगिक गतिविधियां प्रभावित होने लगी हैं। अपने यहां खासकर पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में तो पेयजल की कमी अरसे से बड़ा मुद्दा रहा है। यहां पानी का संचयन बेहद कम होता है। बारिश का पानी तेजी से बहता है। उनके संग्रहण पर काम ढंग से नहीं होता। सूखे मौसम में कई झरने और नदियां सूख जाती हैं। ऐसे में पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं को भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह भी एक सच है कि वर्षा जल के भंडारण और संचयन के जो तरीके जनजातीय, आदिवासी समाज में दिखते रहे हैं, वे कम दिलचस्प नहीं हैं। आजकल के जो ‘सरकारी’ प्रयास जल संरक्षण को लेकर होते हैं, उनसे कहीं ज्यादा प्रायोगिक तरीका पारंपरिक वाला ही लगता है।

चाहे झारखंड में वाटरमैन कहे जाने वाले पद्मश्री सिमोन उरांव का जमीन खोदने और कुआं तैयार करने की तपस्या हो, मेघालय में छतों पर किया जाने वाला जल संचयन, मिजोरम और नागालैंड में ‘जाबो’ या ‘रूजा’ प्रणाली हो, पूर्वी हिमालयी क्षेत्र में बांस पाइप हो, असम की बोडो जनजाति द्वारा डोंग्स का उपयोग हो, मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में जनजातीय समाज के लोगों की ‘हलमा’ परंपरा हो, अरुणाचल प्रदेश में अपातानी जनजातियों द्वारा अपनाई जा रही अपातानी प्रणाली। ऐसे तमाम उदाहरण देखने को मिलेंगे, जिसमें जनजातीय समाज ने जल संरक्षण को लेकर अद्भुत प्रयोग किए हैं और जल, जंगल और जमीन के साथ अपना गहरा नाता दिखाया है।

पर्यावरणविद नीतीश प्रियदर्शी रांची सहित यहां के पठारी इलाकों में जल संकट, बदलते पर्यावरण को करीब से देखते रहे हैं। वो पानी के संकट से मुक्ति को लेकर आश्वस्त हैं। इनका कहना है कि प्रकृति ने भूमिगत जलस्तर को बरकरार रखने के लिए अपनी ओर से कई छोटी-बड़ी नदियों को रांची तथा अन्य शहरों से प्रवाहित किया है। यदि हम इनकी सफाई कर छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण कर दें, तो भूमिगत जल का स्तर बनाए रखा जा सकता है। कृत्रिम जलागारों को उपयुक्त स्थानों पर निर्मित करने से वर्षा जल संचयन किया जा सकता है। झारखंड में आबादी गुणात्मक तरीके से बढ़ रही है। सात महीने राज्य में पेयजल संकट रहता है, यहां पैर पसारते शहरों की माँग पूरी करने के लिए अविवेकपूर्ण जल दोहन का सिलसिला बढ़ता जा रहा है।

800 से 1200 फीट तक गहरे नलकूपों की खुदाई व पम्पों से जल को सींचना विज्ञान का दुरुपयोग-सा लगता है। इसके बाद भी जल मिलने की सम्भावना क्षीण होती जा रही है। झारखंड में इसकी शुरुआत करीब तीस वर्ष पहले डीप बोरिंग मशीन की घनघनाहट के साथ हुई। इसके पहले बहुत हुआ तो लोग कुआँ खुदवाते थे। ज्यादा आबादी सप्लाई जल पर ही निर्भर थे। प्रशासनिक लापरवाही के चलते सप्लाई का पानी अनियमित आपूर्ति का शिकार होता गया और मजबूर होकर लोग भूमिगत जल पर निर्भर हो गये। उपेक्षित व अनियमित जलापूर्ति के फलस्वरूप डीप बोरिंग की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। वर्ष 1946 में ब्रिटिश भूवैज्ञानिक जेबी ऑडेन ब्रिटिश सेना के हेडक्वार्टर की स्थापना के लिये स्थान का चयन कर रहे थे। तब उन्होंने कहा था कि राँची की कायान्तरित चट्टानें साल भर भूमिगत जल देने में सक्षम नहीं हैं, गर्मी शुरू होते ही भूमिगत जल सूख जाएगा।

आज कल हम लोग रूफ टॉप वाटर हार्वेस्टिंग या ग्राउंड वाटर रीचार्जिंग की बात करते हैं। झारखंड की चट्टानों में पानी सोखने की क्षमता ज्यादा नहीं है तथा यह केवल उन्हीं स्थानों पर सफल हो सकता है, जहाँ की चट्टानों में लम्बी दरार या फॉल्ट मौजूद हो। पेयजल की समस्या से अब भी मुक्ति मिल सकती है। प्रकृति ने भूमिगत जलस्तर को बरकरार रखने के लिए अपनी ओर से कई छोटी-बड़ी नदियों को रांची तथा अन्य शहरों से प्रवाहित किया है। यदि हम इनकी सफाई कर छोटे-छोटे बाँधों, चेकडैम का निर्माण कर दें तो भूमिगत जल का स्तर बनाए रखा जा सकता है। कृत्रिम जलागारों को उपयुक्त स्थानों पर निर्मित करने से वर्षा के जल को एकत्रित किया जा सकता है। भूगर्भ जल खुद रिचार्ज हो, इस पर काम करना ही होगा। राजधानी रांची में घरों की संख्या सवा दो लाख से अधिक है, पर लगभग 60 हजार में ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग का निर्माण किया गया है, जिसकी संख्या बढ़ानी होगी।

प्रधानमंत्री मोदी भी कर चुके हैं सराहना

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रांची से सटे खूंटी जिले में बोरा बांध के जरिए वर्षा जल के संरक्षण के प्रयास की चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ में भी कर चुके हैं। जिला प्रशासन, सेवा वेलफेयर सोसाइटी और ग्राम सभाओं के संयुक्त प्रयास से जल संरक्षण की यह मुहिम अब भी चल रही है। मोदीजी ने इसे जनशक्ति से जलशक्ति का शानदार उदाहरण बताया और कहा कि पानी के सदुपयोग से जुड़ा एक प्रेरक प्रयास झारखंड के खूंटी जिले में भी हो रहा है। यहां लोगों ने पानी के संकट से निपटने के लिए बोरी बांध का रास्ता निकाला है। अब यहां साग-सब्जियां भी पैदा होने लगी हैं। इससे लोगों की आमदनी भी बढ़ रही है। इलाके की जरूरतें भी पूरी हो रही हैं। जनभागीदारी का कोई भी प्रयास कैसे कई बदलावों को साथ लेकर आता है। खूंटी इसका एक आकर्षक उदाहरण बन गया है। गौरतलब है कि खूंटी झारखंड का आदिवासी बहुल जिला है। धरती आबा और उलगुलान (क्रांति) के महानायक बिरसा मुंडा की धरती है।

यह जंगल-पठार, नदी- नाला से घिरा है। हालांकि जिले के गांव-टोले घोर जल संकट से लगातार घिरने लगे थे। लोग पारंपरिक स्रोतों यथा नदी-नालों के किनारे गड्ढ़े खोदकर पानी पीने लगे। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि गर्मी के दिनों में कई गांव की महिलाएं सप्ताह में एक ही दिन नहाती थी। वे तीन किलोमीटर दूर बहने वाली नदी में नहाने जाती थीं। कारण था कि उनके गांव में पानी नहीं होता था। ग्रामसभाओं में बोरी बांध बनाकर बरसात के पानी को रोकने का निर्णय पहले लिया गया। बोरी बांध का निर्माण आदिवासियों के मदईत (श्रमदान) परंपरा के तहत करने का फैसला भी लिया गया।

इसी परंपरा को बोरी बांध निर्माण में निभाया जा रहा है। बोरी बांध बनाने के दौरान गांव की महिलाएं उसी बोरी बांध निर्माण स्थल पर भोजन तैयार करती हैं। बोरी बांध बनाने के लिए गांव के सभी लोग सामूहिक रूप से मेहनत करते हैं। वर्ष 2021-22 से इस अभियान की शुरूआत की गई। गांव के लोग जब अपने पूरे दिन का कामकाज छोड़ तपती धूप में 50 से 100 के समूह में नदी पर बोरीबांध बनाने उतरते हैं, तब उनका संपर्क नदी के पानी, मिट्टी और बालू से होता है। नदी पर एक बार बोरी बांध बनने के बाद उसका मेंटेनेंस भी गांव के लोग बरसात से पहले तक करते हैं। वे नदी से अवैध रूप से बालू का उत्खनन भी नहीं होने देते। जिले के मुरहू प्रखंड में बनई नदी में इस प्रचंड गर्मी में भी 12 किलोमीटर दूर तक पानी छलछला रहा है। जनशक्ति से जलशक्ति और नदी बचाओ अभियान के तहत अब तक तीन सालों में करीब 300 से ज्यादा बोरी बांध बनाए जा चुके हैं। बोरी बांध निर्माण में जिले के कर्रा, मुरहू, तोरपा, अड़की और खूंटी प्रखंडों के विभिन्न गांवों के 16 से 17 हजार ग्रासभा सदस्य बोरी बांध निर्माण में श्रमदान कर चुके हैँ।

जामटोली, गानालोया, गुरमी, कोठाटोली, घघारी, कसीरा, कोलोम्दा समेत 20 से ज्यादा गांवों के किसान बोरी बांध के पानी से लगभग 174 एकड़ में सिंचाई कर रहे हैं। केंद्रीय अधिकारियों, आईएएस- आईपीएस अधिकारियों समेत पूर्व मंत्री व विधायक ने बोरी बांध निर्माण में श्रमदान कर ग्रामीणों की हौसला अफजाई की है। रांची के बेड़ो प्रखंड में रहने वाले वाटरमैन सिमोन उरांव ने अपने आसपास के कई गांवों को पानीदार बना दिया है। स्थानीय लोगों के बीच सिमोन उरांव पानी बाबा के नाम से मशहूर हैं। उन्हें झारखंड का जलपुरुष भी कहा जाने लगा है। उरांव ने अपने प्रयासों से सैकड़ों हेक्टेयर भूमि को सूखे से बचा लिया है। यह जल संरक्षण के उपायों से संभव हुआ है। भारत के मरुस्थलीकरण एवं भू-क्षरण एटलस के अनुसार, यहां की करीब 68 प्रतिशत से अधिक भूमि इसकी चपेट में है। राज्य में मरुस्थलीकरण की सबसे बड़ी वजह जल क्षरण (जल अपरदन) है। जलस्रोतों का क्षरण मरुस्थलीकरण के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। वनस्पति को पहुंचा नुकसान दूसरा बड़ा कारण है।

यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन टु कॉम्बैट डेजर्टीफिकेशन के मुताबिक, मरुस्थलीकरण के कारण दुनियाभर में दो तिहाई आबादी 2025 तक पानी के संकट का सामना करेगी। उरांव के मुताबिक, पहले उनके गांव के सभी लोग काम की तलाश में पलायन कर जाते थे, लेकिन जब हमने चेकडैम बनाने शुरू किए तो पलायन थम गया। पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देने के लिए साल 2016 में पद्मश्री से नवाजा गया था। सिमोन ने सबसे बड़ा चेकडैम बेडो के नजदीक जामतोली गांव में बनवाया है। यह 12 एकड़ में बना है और इसमें साल भर पानी रहता है। बेडो ब्लॉक में 50 से अधिक गांवों ने उरांव के जल संरक्षण मॉडल को अपना लिया है। 500 हेक्टेयर से अधिक भूमि चेकडैम और तालाबों से सिंचित की जा रही है। जब जून में गर्मी चरम पर होती है, तब भी यहां के जलस्रोतों में पर्याप्त पानी दिखने लगा है। इस गर्मी में भी लोग सब्जियां उगा पा रहे हैं।

पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण के राज्यों में प्रेरक प्रयास

जहां भी पानी हो, वहां जीवन अपने आप ही पल्लवित हो उठता है। इसलिए स्थान विशेष में जल संरक्षण हेतु तमाम पद्धतियां, प्रक्रियाएं और परिणाम स्वरूप जल-संरचनाएं मिलती हैं। नागालैंड जैसे राज्य में जाबो नामक जल संरक्षण की परंपरागत तकनीक का प्रयोग किया जाता रहा है। इसे ‘रूजा प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके जरिए जल संरक्षण के साथ ही वानिकी, कृषि, पशुपालन और पर्यावरण सुरक्षा के लिए भी बेहद उपयोगी माना जाता है। असम की बोडो जनजाति सिंचाई के लिए डोंग जैसे तालाबों में पानी का संरक्षण करती है। इनमें से पानी को लहोनी नामक यंत्र से उठाकर खेतों में भेजा जाता है। पूर्वी हिमालय क्षेत्रों में बांस पाइप की सहायता से खेती की जाती है। पहाड़ी चोटियों से निकलने वाले झरनों की जलधारा में बांस का पाइप लगाकर इन्हें निचले इलाकों में भेजा जाता है। मेघालय जैसे राज्यों में, नदियों और झरनों का पानी बांस के पाइपों के ज़रिए बहता है।

इनका इस्तेमाल पहाड़ी की चोटी पर स्थित बारहमासी झरनों को निचले इलाकों में मोड़ने के लिए किया जाता है। मेघालय के खासी और जैंतिया पहाड़ियों में आदिवासी किसान अपनी खेती में ड्रिप सिंचाई के लिए इस प्रणाली का इस्तेमाल करते हैं। राज्य की राजधानी शिलांग में छत पर वर्षा जल संचयन सबसे आम तरीका है। मेघालय सरकार का ध्यान वर्षा जल संचयन पर है, क्योंकि राज्य में पीने योग्य पानी की कमी है। पश्चिमी हिमालय के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में कूह्ल तकनीक लोकप्रिय है। इससे पहाड़ों की ढलान से बहते पानी को संचित किया जाता है। कूह्ल का निर्माण करते समय झरने के बीच एक कट लगाया जाता है और वहां से पत्थर के ढेर से बंध लगा दिए जाते हैं। कुह्ल पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले जल चैनल हैं, जो ग्लेशियरों से पानी को हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी के गांवों तक ले जाते हैं। जहां भूभाग कीचड़ भरा है, वहां कुह्ल को अवरुद्ध होने से बचाने के लिए चट्टानों से घेरा जाता है। जम्मू क्षेत्र में भी इसी तरह की सिंचाई प्रणालियाँ पाई जाती हैं।

एक सामान्य सामुदायिक कुह्ल 6 से 30 किसानों को सेवा प्रदान करता है, जो लगभग 20 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई करता है। आधुनिक मानकों के अनुसार, कुह्ल का निर्माण सरल था। इसमें पत्थर और श्रम प्रमुख इनपुट थे। कुह्ल में पानी खींचने और आसपास के सीढ़ीदार खेतों की सिंचाई के लिए मोघे (कच्चे निकास) प्रदान किए गए थे। पानी एक खेत से दूसरे खेत में बहता था और यदि अतिरिक्त पानी होता तो वापस खड्ड में चला जाता था। कोहली पानी का वितरण और प्रबंधन भी करते थे। प्राकृतिक स्रोतों जैसे कि झरनों से निकलने वाला पानी आमतौर पर साफ होता है। जिन झरनों में खनिजों की महत्वपूर्ण मात्रा होती है, उन्हें ‘खनिज झरने’ के रूप में भी जाना जाता है। इस पानी को रोकने, संरक्षित करने को मिजोरम, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा में लोग पारंपरिक तरीकों का उपयोग करते हैं। वर्षा जल का भंडारण और संचयन करते हैं। जल संचयन के लिए ‘रूफटॉप हार्वेस्टिंग’ नामक विधि का उपयोग किया जाता है। इसमें बारिश के पानी को टैंकों में इकट्ठा किया जाता है। इस पानी का उपयोग सीधे उपभोग के लिए और सरल निस्पंदन उपकरणों के माध्यम से भूजल को रिचार्ज करने के लिए किया जा सकता है।

इस संग्रहित जल का उपयोग पीने, बागवानी, सिंचाई और कई अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है। वर्षा जल संचयन जल प्रबंधन और जल संरक्षण के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है। चूंकि वर्षा आमतौर पर पूरे वर्ष असमान रूप से वितरित होती है, इसलिए वर्षा जल संग्रहण विधियाँ घरेलू जल के एकमात्र पूरक स्रोत के रूप में काम करती हैं। मिजोरम में, पहाड़ी क्षेत्रों में जल की कमी की समस्या को हल करने के लिए, राज्य सरकार पानी के टैंकों के निर्माण में सहायता प्रदान करती है, जिससे वर्षा जल का संचयन किया जा सके। मिजोरम और नागालैंड में वर्षा जल संरक्षण की एक स्वदेशी प्रणाली का उपयोग किया जाता है जिसे ‘ज़ाबो’ या ‘रूज़ा’ प्रणाली के रूप में जाना जाता है। इस प्रणाली में, वर्षा जल को सिंचाई और अन्य उद्देश्यों के लिए पहाड़ी ढलानों के साथ जलग्रहण क्षेत्रों में एकत्र और संग्रहित किया जाता है। यह प्रणाली जल संरक्षण को वानिकी, कृषि और पशु देखभाल के साथ जोड़ती है। नौला उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में सतही जल संचयन की एक विशिष्ट विधि है। ये छोटे-छोटे कुएँ या तालाब होते हैं जिनमें एक धारा के ऊपर पत्थर की दीवार बनाकर पानी एकत्र किया जाता है।

खत्री लगभग 10×12 फीट आकार का और छह फीट गहरी संरचना होती है, जो कठोर चट्टान के पहाड़ में खुदी होती हैं। विशेष रूप से प्रशिक्षित राजमिस्त्री इन्हें 10,000-20,000 रुपये प्रति व्यक्ति की लागत से बनाते हैं। ये पारंपरिक जल संचयन संरचनाएं हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर, कांगड़ा और मंडी जिलों में पाई जाती हैं। खत्री दो प्रकार के होते हैं- एक पशुओं और धुलाई के लिए जिसमें छत से पाइप के माध्यम से वर्षा जल एकत्र किया जाता है। दूसरा मानव उपभोग के लिए जिसमें चट्टानों के माध्यम से वर्षा जल एकत्र किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि खत्री व्यक्तिगत और समुदाय दोनों के स्वामित्व में होते हैं। सरकारी खत्री भी होते हैं, जिनका रख-रखाव पंचायत द्वारा किया जाता है। मेज़ी नदी नागालैंड के क्विगेमा के अंगामी गांव के साथ बहती है। नदी का पानी एक लंबे चैनल द्वारा नीचे लाया जाता है। इस चैनल से, कई शाखा चैनल निकाले जाते हैं। पानी को अक्सर बांस के पाइपों के माध्यम से सीढ़ीदार खेतों में मोड़ दिया जाता है। चैनलों में से एक का नाम चेओ-ओज़ीही है-ओज़ीही का मतलब पानी है। चेओ वह व्यक्ति था, जिसने इस 8-10 किलोमीटर लंबे चैनल को अपनी कई शाखाओं के साथ बिछाने का काम किया था।

यह चैनल क्विग्वेमा में बड़ी संख्या में सीढ़ीदार खेतों और पड़ोसी गांव में कुछ सीढ़ीदार खेतों की सिंचाई करता है। गांव का पानी का बजट उनके बीच बांटा जाता है। तमिलनाडु के लगभग एक-तिहाई सिंचित क्षेत्र को एरिस (टैंक) द्वारा सींचा जाता है। एरिस ने बाढ़ नियंत्रण प्रणाली के रूप में पारिस्थितिक सद्भाव बनाए रखने, भारी वर्षा के दौरान मिट्टी के कटाव और अपव्यय को रोकने और आसपास के क्षेत्रों में भूजल को रिचार्ज करने में कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं। एरिस की उपस्थिति ने स्थानीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त सूक्ष्म जलवायु प्रदान की। एरिस के बिना धान की खेती असंभव होती। डोंग्स असम के बोडो जनजातियों द्वारा सिंचाई के लिए पानी इकट्ठा करने के लिए बनाए गए तालाब हैं। इन तालाबों पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है और इनमें समुदाय की कोई भागीदारी नहीं होती। अपाटानी प्रणाली में घाटियों को बांस के फ्रेम द्वारा समर्थित 0.6 मीटर ऊंचे मिट्टी के बांधों द्वारा अलग किए गए भूखंडों में सीढ़ीदार बनाया जाता है।

सभी भूखंडों में विपरीत दिशाओं में इनलेट और आउटलेट हैं। सीढ़ीदार भूखंड को आवश्यकतानुसार इनलेट और आउटलेट खोलकर और अवरुद्ध करके पानी से भरा या निकाला जा सकता है। इसे चैनल नेटवर्क के माध्यम से कृषि क्षेत्रों तक पहुँचाया जाता है। कोराम्बू एक अस्थायी बाँध है, इसका निर्माण नहर के दोनों किनारों को छूते हुए एक मजबूत लकड़ी के बीम को क्षैतिज रूप से स्थिर करके किया जाता है। इस फ्रेम में बारीकी से बुना हुआ या उलझा हुआ नारियल का छप्पर बांधा जाता है। उलझे हुए फ्रेम पर मिट्टी की एक परत लगाई जाती है। घास की एक परत भी सावधानी से लगाई जाती है जो लगाई गई मिट्टी को घुलने से रोकती है।

कोराम्बू का निर्माण नहर में पानी के स्तर को बढ़ाने और पानी को खेत की नहरों में मोड़ने के लिए किया जाता है। इसे इस तरह से बनाया जाता है कि अतिरिक्त पानी इसके ऊपर से बह जाए और केवल आवश्यक मात्रा में पानी ही मोड़ने वाली नहरों में बहे। कोराम्बू की ऊँचाई इस तरह से समायोजित की जाती है कि ऊपर की ओर स्थित खेत जलमग्न न हों। पानी को एक खेत से दूसरे खेत में तब तक बहने दिया जाता है जब तक कि सभी खेत सिंचित न हो जाएँ। इन्हें साल में दो बार बनाया जाता है, खास तौर पर मानसून के मौसम की शुरुआत से पहले ताकि सर्दियों और गर्मियों के मौसम में पानी की आपूर्ति की जा सके। केरल के कासरगोड और त्रिशूर जिलों में कोरम्बू को चिरा के नाम से जाना जाता है।

जल संरक्षण की भील परंपरा ‘हलमा’

जल एवं पर्यावरण संरक्षण की अद्भत भील परंपरा है ‘हलमा’। मध्य प्रदेश का जनजातीय जिला झाबुआ। यहां भील, भिलाला और पटेलिया जनजाति समाज के वनवासी न केवल झाबुआ में जलसंकट को दूर करने का जतन कर रहे हैं, बल्कि देश के दूसरे हिस्सों के लिए प्रेरणा और अनुसंधान का विषय भी बन रहे हैं। झाबुआ जिला भील जनजाति का घर है, जिसे ‘भारत के बहादुर धनुष पुरुषों’ के रूप में जाना जाता है। उत्तर में माही नदियों के प्रवाह और दक्षिण में नर्मदा के बीच भूमि का टुकड़ा इस जनजाति के सांस्कृतिक केंद्र का प्रतीक है झाबुआ। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से 3 जनजातियाँ भील, भिलाला और पटलिया शामिल हैं; भील मुख्य रूप से आबादी वाली जनजाति है। अलीराजपुर 2008 में झाबुआ से अलग होकर एक नया जिला बना। इलाका पहाड़ी और अविरल है। 1865 और 1878 के वन अधिनियम से पहले वन आदिवासियों के लिए आजीविका का मुख्य स्रोत थे, लेकिन अब बड़ी आबादी कृषि में शामिल है।

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हलामा विकास में सामुदायिक भागीदारी की गहरी परंपरा है। यदि समुदाय का कोई व्यक्ति परेशानी में है और उसके सभी प्रयासों से बाहर निकलने में असमर्थ होने के बाद, गांव में प्रत्येक परिवार से हलमा अर्थ सदस्यों के लिए कॉल शामिल होगा और सामूहिक रूप से समस्या हल करेगा। यहां अच्छी वर्षा के बावजूद, क्षेत्र में पानी की कमी की समस्या का सामना करना पड़ता है, क्योंकि पानी ढलानों के माध्यम से बहता है और मिट्टी द्वारा बरकरार नहीं रहता है। वे हलमा कर इस समस्या का हल निकाल रहे हैं। भारत में 705 से ज़्यादा जातीय समूह हैं, जिन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त है। अब समय आ चुका है, जब हम जनजातीय समाज से जल संरक्षण की परंपरा को सीखें और अमल भी करें। महज डैम और बड़े वाटर प्रोजेक्ट से बात नहीं बनने वाली।

अमित झा

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