किसी भी राष्ट्र की सच्ची सम्पत्ति, प्रगति एवं कार्य शक्ति का मूल आधार वहां की आदर्श चरित्र वाली भावी पीढ़ी को माना जाता है। इस दृष्टि से हम देशवासी बेहद सौभाग्यशाली हैं कि वर्तमान समय में हमारा भारत विश्व का सर्वाधिक युवा राष्ट्र है। हमारे भारत में पुनः विश्वगुरु बनकर समूची दुनिया का मार्गदर्शन करने की सभी संभावनाएं समाहित हैं, बशर्ते हमारी नयी पौध सुसंस्कारों के जल से सिंचित हो।
यदि हमें भारत को पुनः विश्वगुरु बनाना है, तो गर्भावस्था से ही बच्चों में सुसंस्कार डालने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। भारतीय महिला हर रूप में सक्षम है। हमें देश में अगर वीर शिवाजी को उत्पन्न करना है, तो पहले मां को जीजाबाई बनाना होगा। हममें लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर के संस्कार भी हैं और झांसी की रानी का शौर्य भी है, लेकिन वह कहीं गहरे सो गया है, आज उसी साहस को जगाने की जरूरत है।
भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए अमृत काल के पांच संकल्पों को हम स्वामी विवेकानंद के विचारों और प्रेरणा से जोड़कर देख सकते हैं, जिसमें पहला संकल्प-विकसित भारत, दूसरा संकल्प-गुलामी से मुक्ति, तीसरा संकल्प- विरासत पर गर्व, चौथा संकल्प- एकता और एकजुटता, पांचवा संकल्प- नागरिकों का कर्तव्य है।
गर्व का विषय है कि एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सशक्त नेतृत्व में हमारा भारत वर्ष 2047 तक विश्व की प्रमुख आर्थिक महाशक्ति बनने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर देशभर के सनातनधर्मी धर्मगुरु भी भारत का प्राचीन सांस्कृतिक गौरव लौटाकर इसे पुनः विश्वगुरु बनाने को कमर कस चुके हैं, लेकिन इस राष्ट्र यज्ञ में देश के प्रत्येक राष्ट्रवादी नागरिक को भी अपनी भूमिका पूरी ईमानदारी से निभाने की जरूरत है। इस दिशा में जन सामान्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका ‘बच्चों में सुसंस्कारों के बीजारोपण’ की है।
भारत को ‘संस्कारों का देश’ मानता है समूचा विश्व
काबिलेगौर हो कि उच्चतम मानवीय जीवन मूल्यों के पालने में विकसित हुए हमारे सनातन राष्ट्र को समूचा विश्व संस्कारों का देश मानता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की इस भूमि के कण-कण में शुभ संस्कार बसते हैं। हमारा भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि विदेशी दासता से पूर्व सद्भावना और परोपकार का ताना-बाना हर भारतीय के संस्कारों में जन्म से ही बुना होता था। एक दौर था जब ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ व ‘अतिथि देवो भव’ जैसी दिव्य अवधारणाओं को अमलीजामा पहनाने वाली हमारी भारतभूमि में बच्चे के जन्म से पहले ही उसके अंदर सुसंस्कारों का बीजारोपण मां द्वारा शुरू कर दिया जाता था।
गीता, रामायण व पुराण आदि पढ़कर मां अपने बच्चे के जन्म से पूर्व ही अध्यात्म के मूलभूत गुण उसमें डालने का प्रयास करने लगती थी। बच्चों को बड़ों और गुरुजनों का सम्मान करना बचपन से ही सिखाया जाता था। भोजन करने से पूर्व हाथ जोड़कर प्रार्थना करना, दान-धर्म व समाजसेवा, जरूरतमंदों की मदद, पशु-पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था, अपने से पहले दूसरों के हित के लिए सोचना जैसे मानवीय गुण परिवार के सदस्य बच्चों को बहुत कम उम्र से ही देने लगते थे। तब के परिवार हर सुख-दुःख में घर के सभी सदस्यों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते थे। यही एकता का वह सूत्र था, जो संयुक्त परिवारों को पीढ़ी दर पीढ़ी स्नेह व सद्भावना के सूत्र में बांधे रखता था।
देश के सांस्कृतिक ताने-बाने के छीनने के दुष्परिणाम
समय चक्र के परिवर्तन, गुलामी के दौर में विकसित हुई मानसिक गुलामी की मानसिकता व संस्कारहीन शिक्षा और नागरिकों द्वारा बड़े पैमाने पर पाश्चात्य जगत की धुर भौतिकतावादी संस्कृति के अन्धानुकरण के कारण आज देश का सांस्कृतिक ताना-बाना तेजी से छिन्न-भिन्न होता जा रहा है। आज एकल परिवारों का चलन तेजी से बढ़ रहा है, जिसके कई दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।
जीविकोपार्जन की प्रतिस्पर्धा में आज बड़ी संख्या में माता-पिता बच्चों को मेड व टीवी, मोबाइल के भरोसे छोड़कर कमाने चले जाते हैं। ऐसे में बच्चों को संस्कार मिलें भी तो कैसे ? दादी-नानी की वे कहानियां जिनमें जहान भर के ज्ञान का भण्डार और संस्कार होते हैं, उनसे पूर्णतः वंचित नयी पीढ़ी के जिद्दी स्वभाव के बच्चे अपनी ही दुनिया में खो जाते हैं। इस तरह न ही उनमें दूसरों से घुल-मिलकर रहने का हुनर विकसित हो पाता है और न ही अच्छे बुरे की समझ आ पाती है।
समाजशास्त्रियों की मानें तो आज के अत्याधुनिक शहरी जीवन में संयुक्त परिवारों का विघटन भी बच्चों में बढ़ती संस्कारहीनता का मुख्य कारण है। आज माता-पिता अपने व्यवसाय में इतने व्यस्त हैं कि उनके पास इतना समय नहीं है कि वह अपने बच्चों के साथ कुछ समय अकेले व्यतीत करें और उनकी समस्याओं पर विचार करें। पहले संयुक्त परिवारों में एक छत के नीचे तीन पीढ़ियां आपस में मिलजुल कर रहती थीं। घर का आंगन खेल का मैदान एवं घर के सदस्य खिलाड़ी बन जाते थे।
उस समरस माहौल में बच्चे जाने अनजाने ही खेल-खेल में सद्भाव, संस्कार व मिलनसारिता के सद्गुण सीख लेते थे, पर आज परिस्थितियां पूरी तरह भिन्न हैं। आज के बच्चों पर तकनीकी ज्ञान, इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग और सोशल मीडिया का गहरा प्रभाव है। आज का बच्चा बचपन से ही हिंसक कार्टून चैनल देखने लगता है। शरीर पर कम वस्त्रों को खूबसूरती मानने लगता है। आधुनिक दौर में अपने बच्चों को महंगा मोबाइल देना और बड़ी से बड़ी गाड़ी देना माता पिता के लिए समाज में प्रतिष्ठा का सवाल बनता जा रहा है।
देखा गया है कि आज बच्चा पार्क में घूमने की बजाय मोबाइल में फेसबुक व व्हाट्सएप चलाना ज्यादा पसंद करता है। छात्र-छात्राएं आपस में अश्लील फोटो शेयर करने से भी नहीं हिचकते। जब बात हद से ज्यादा हो जाती है, तो इसके लिए बच्चों को दोषी ठहरा दिया जाता है, लेकिन एक बार स्वयं आंकलन करके देखें कि कहीं इसके जिम्मेदार हम तो नहीं? उन्हें यह रास्ता दिखाना और इतनी सुविधा मुहैया कराना क्या उचित था?
बच्चों की संस्कारहीनता और अपराधी मानसिकता के मूल कारण
वर्तमान समाज में नयी पीढ़ी में बढ़ती संस्कारहीनता और अपराधी मानसिकता देश की सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में बहुत बड़ी विडम्बना है। दरअसल, बाल अपराधों के लिए समाज का वह सम्पूर्ण ढांचा उत्तरदायी है, जिसमें बच्चों का व्यक्तित्व ढलता है। बाल-अपराध के विश्व प्रसिद्ध अन्वेषक हीली लिखते हैं कि “इस दिशा में हुए शोध अध्ययन बताते हैं कि नशे में सहवास से पैदा होने वाले बच्चों में पैदाइशी अवगुण आ जाते हैं। जिस तरह शरीरगत दोष कोढ़, क्षय आदि बीमारियां वंश परम्परागत चलती हैं, उसी तरह बच्चों के मानसिक संस्थान की बनावट में भी वंशानुक्रम का बहुत कुछ हाथ होता है।
हीली ने 1,000 बाल अपराधियों पर शोध करके यह निष्कर्ष निकाला कि 56 प्रतिशत अपराधी वंश परम्परागत थे। वे लिखते हैं कि गर्भकाल में मां का जैसा जीवनक्रम व मनोभाव होते हैं, उनकी सूक्ष्म छाप बच्चे पर अवश्य पड़ती है। यही कारण है कि गर्भकाल में जिन स्त्रियों में उत्तेजना, क्रोध के आवेश अधिक आते हैं, उनके बच्चों का स्वभाव भी उत्तेजक व क्रोधी बन जाता है।
बच्चों के अपराधी जीवन के पीछे उनके माँ-बाप का चरित्र मुख्य होता है। कई बार वे अपने अभिभावक, माता-पिता, अध्यापक आदि के कठोर व्यवहार के कारण भी अपराधी बन जाते हैं। हीली का यह भी कहना है कि यह भी देखा गया है कि गूँगे, बहरे, अन्धे, अपाहिज मां-बाप की सन्तानें भी प्रायः बिगड़ जाती हैं, क्योंकि वे अपने बच्चों पर उचित नियन्त्रण और उनका संरक्षण नहीं कर पाते।
यही नहीं, माता-पिता के पारस्परिक झगड़े, दुर्व्यवहार के कारण भी बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मां-बाप का कलह-पूर्ण जीवन, चारित्रिक दोष, बच्चों को अपराधी बनाने का महत्वपूर्ण कारण है। पारिवारिक उथल-पुथल, कलह, दुर्व्यवहार आदि बच्चों के मानस-संस्थान पर बुरा प्रभाव डालते हैं और वे गलत मार्ग अपना लेते हैं। उनमें एकाकीपन, स्वार्थपरता एवं उदासीनता की जैसी वृत्तियां उभर आती हैं। मद्रास के समाजशास्त्री रामास्वामी अय्यर ने बाल-अपराधों की जांच करके अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि आजकल मुक्त इन्टरनेट और आधुनिक सिनेमा बाल-अपराध का एक बहुत बड़ा कारण है।
फिल्मों की अश्लीलता, हिंसा व अशिष्ट भाषा बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालती है। बच्चे भी वैसा ही करने लगते हैं और इस अभ्यास में वे जाने अनजाने ही अपराधी जीवन का मार्ग अपना लेते हैं। वर्तमान समय में प्रायः मां-बाप अपने बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य और स्कूली पाठ्यक्रम पर ही ध्यान देते हैं, उनके मानसिक, भावनात्मक एवं नैतिक विकास पर ध्यान न दिये जाने के कारण ही आज की भावी पीढ़ी दिशाविहीन, तरह-तरह के अपराधों में लिप्त, भावनात्मक एवं नैतिक मूल्यों से वंचित होती जा रही है।
इस कारण उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर भी बच्चे संस्कारों के अभाव के कारण चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता, शालीनता, आदर्शवादिता एवं दैवी गुणों से वंचित हो रहे हैं। एक ओर अतिशय भौतिकता से ऊबा पश्चिमी जगत भारत की संस्कृति को अपना रहा है और एक हम हैं कि दिन-प्रतिदिन अपने संस्कारों से पिछड़ते जा रहे हैं। अपने से छोटों को संस्कारित करना भी संस्कार की श्रेणी में आता है, लेकिन हम नई पीढ़ी को इन संस्कारों से वंचित कर रहे हैं।
हम समाजसेवा से दूर हो चुके हैं। पशु-पक्षियों का ध्यान रखने का अब हमारे पास समय ही नहीं है। समय पर भोजन करना तथा समय पर सोना अब हमारी दिनचर्या से कोसों दूर हो चुका है। ‘अहिंसा परमो धर्म’ और ‘दूसरों की मदद करो, बड़े आदमी बन जाओगे’ जैसे महान कथन, महज कोरे कथन होकर रह गये हैं।
हमें देखकर ही हमारे बच्चे बहुत सी बातें सीखते हैं, इसलिए बच्चों पर पड़ रहे इन दुष्प्रभावों के भागी कहीं न कहीं हम ही हैं। परिणामस्वरूप परिवार, समाज एवं राष्ट्र में भ्रष्टाचार व पापाचार पनप रहा है। अतः हमें यह भूल सुधारनी होगी। संयुक्त परिवार के धनी देश के बिखरे परिवारों को एक बार फिर से जोड़ना होगा, जरूरतमंदों की सहायता और समाजसेवा बच्चों के हाथों से कराना होगी, ताकि वे इसकी महत्ता को समझ सकें।
अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक युग ऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के साहित्य में भावी पीढ़ी के निर्माण के अनमोल सूत्र छिपे पड़े हैं। उनमें यह निर्देशित है कि बच्चों के गिरते मानवीय एवं नैतिक मूल्यों तथा समस्त सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक पतन की जड़ गर्भ से प्रारम्भ होती है। गर्भ से ही बच्चों में व्यक्तित्व (शरीर एवं मन ) की नींव पड़ जाती है, अतः इस ज्ञान को प्रामाणिक और वैज्ञानिक आधार के साथ न केवल व्यक्ति, परिवार वरन राष्ट्र एवं विश्व हित के लिए जन-जन तक पहुंचाकर एक सभ्य, संस्कारित, सद्गुणी पीढ़ी के निर्माण का प्रयास आवश्यक है। संतान का निर्माण मां के हाथों में होता है, एक समझदार व दक्ष मां अपनी संतान को मनचाही दिशा प्रदान करने की पूर्ण सामर्थ्य रखती है।
साइकॉलोजिस्ट पल्लवी जोशी कहती हैं कि भारतीय संस्कृति में लग रही सेंध के लिए केवल पश्चिमी सभ्यता को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। बहुत से अन्य कारण भी हैं, जिनसे हमारे समाज के बच्चे अपनी जड़, परंपरा और संस्कृति से कटते जा रहे हैं। वे कहती हैं कि उनके पास बड़ी संख्या में ऐसे मामले आते हैं, जिनमें माता-पिता अपने बच्चों को लेकर परेशान होते हैं।
वो अक्सर शिकायत करते हैं कि उनके बच्चे उनसे कोई खास लगाव नहीं रखते हैं, उन्हें किसी बात पर टोको तो वे तुरंत नाराज हो जाते हैं और बात-बात पर लड़ाई-झगड़े पर उतारू हो जाते हैं… हम तो अपने बच्चे की हर जरूरतें खुशी-खुशी पूरी करते हैं, हमने तो बच्चे को हमेशा अच्छी बातें ही सिखाने का प्रयास किया था, पता नहीं हमारे बच्चे ऐसे कैसे हो गये। फिर वो सारा दोष टीवी, फिल्मों या फिर पश्चिमी सभ्यता पर मढ़ देते हैं।
वे अपने बच्चों के संस्कारहीन होने के लिए खुद को जिम्मेदार मानने के लिए तैयार नहीं होते। किन्तु वे बच्चों के इस व्यवहार के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार उन अभिभावकों को ही मानती हैं। कारण कि बच्चा वही आदतें अपनाता है, या वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा करते हुए वो अपने मां-बाप को देखता है। बेसिक सी बात है कि किसी बात को सीखने का एक लर्निंग प्रोसेस होता है, जिसे अधिगम भी कहते हैं और वो केवल देखने से ही होता है।
मां-बाप बातों के जरिये बच्चे को चाहे कितना भी समझा लें, लेकिन वो उन बातों को आदतों में तब तक नहीं लायेगा जब तक कि वो उन बातों को एक्शन के रूप में अपने सामने नहीं देखता है। मतलब साफ है कि बच्चा ठीक वैसा ही करता है जैसा वो अपने बड़ों को करता देखता है। अगर हम ध्यान से देखें तो पाते हैं कि पिछले तीस-पैंतीस सालों में बड़ों के व्यवहार में भी काफी बदलाव आया है। पहले जहां संयुक्त परिवार उनकी प्राथिमकता होती थी, वो एकल परिवार में तब्दील हो गयी है। जब हमारे बड़े ही अपने मां-बाप को छोड़कर अपने बच्चों के साथ अलग रहने लगे हैं, तो हमारे बच्चे भी देखा-देखी वही कर रहे हैं, जो उन्होंने आपको करते देखा है। आज के बच्चे प्रणाम करने व पैर छूने की बजाय हाय-हैल्लो कहना पसंद करते हैं।
इसके लिए वे बच्चे दोषी नहीं हैं, क्यूंकि हम बड़ों से उन्होंने यह संस्कार सीखा है। जब कोई बच्चा पैर छूने के लिए आगे बढ़ता है, तो अधिकतर हम बड़े ही उन्हें ऐसा करने से रोक देते हैं, हम उन्हें आशीर्वाद कहां देते हैं, उन्हें हम ही तो सिखाते हैं कि अरे-अरे पैर छूने की क्या जरूरत है। इस तरह जब बच्चे देखते हैं कि बड़े हमें ऐसा करने से मना करते हैं, तो वो आगे ऐसा क्यों करना चाहेंगे। दरअसल, बच्चों द्वारा अपनी परंपरा और संस्कृति की अवहेलना के पीछे हमारी अपनी ही जागरूकता की कमी है। हम अपने बच्चों को तर्क देकर कुछ करने के लिए समझाते ही नहीं हैं।
जब बच्चा हमसे प्रश्न पूछता है, तो हम उसे डांटकर बस उस काम को करने के लिए कह देते हैं। यदि बच्चा उस काम के महत्व और मतलब को समझेगा नहीं, तो उसे अपने जीवन में सदा के लिए अपनाएगा कैसे? इसलिए अपने बच्चों में संस्कार और सभ्यता को जिंदा रखने के लिए सबसे जरूरी बात है कि हम बड़े भी उन सभी आदतों को अपनायें जो हम अपने बच्चों में देखना चाहते हैं।
हमें पश्चिमी सभ्यता से डरने की जरूरत नहीं है, बल्कि अपने समाज और घर में फैली गंदगी को साफ करने की जरूरत है। बच्चों में बचपन से ही संस्कारों का पौधा लगाने का प्रयास करें। अपेक्षाएं तभी रखें जब आपने स्वयं अपने बड़ों की अपेक्षाओं को पूरा किया हो। हमारी खुद की आदतों में बदलाव ही हमारे बच्चों की आदतों में बदलाव ला सकता है। बच्चों में संस्कार और परंपराएं तभी जिंदा रह सकती हैं, जब हमारे बड़ों में ये संस्कार और परंपराएं जीवित रहेंगी।
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अभिभावकों को तय करनी होगी जवाबदेही
आज समाज में बढ़ती संस्कारहीनता को दूर करने के लिए समाज के प्रत्येक जागरूक नागरिक को भावी पीढ़ी में सुसंस्कारों के बीजारोपण के अपने नागरिक कर्त्तव्य का पालन पूरी ईमानदारी से करने की जरूरत है, तभी भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने का स्वप्न साकार हो सकेगा। इसके लिए हर माता-पिता को अपने निम्न नागरिक कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी से करना होगा है।
1. बच्चों को समय-समय पर सही और गलत का बोध कराएं।
2. बच्चों को परिवार के साथ समय व्यतीत करने और घर के कामों में हाथ बटाने को कहें।
3. उन्हें महापुरुषों की कहानियां सुनाएं और रामायण, महाभारत जैसे ज्ञान, भक्ति व संस्कार के टीवी सीरियल देखने के लिए प्रेरित करें।
4. उन्हें घर पर अकेलापन महसूस ना होने दें। अगर ऐसा प्रतीत हो तो सिर्फ एक मित्र बनकर उसके साथ ज्ञानवर्धक खेल खेलें।
5. बच्चे की मानसिकता को ध्यान में रखकर उनसे मित्रवत व्यवहार करें। माता की यह ज्यादा जिम्मेदारी बन जाती है कि वह अपने बेटों को बचपन से माँ- बहन ही नहीं हर स्त्री को आदर की दृष्टि से देखना व उनका सम्मान करना सिखाये।
6. बच्चों को आपराधिक एवं अश्लील फिल्मों गानों एवं टीवी चैनलों से दूर रखें। उनको सभ्य व शालीन वस्त्र पहनने को प्रेरित करें। बच्चों को देर रात की पार्टियों, सिनेमाघरों में न जाने दें।
7. बच्चों के स्कूल जाकर वहां के वातावरण बच्चे के मित्र, अध्यापक एवं अन्य लोगों से संपर्क करें। खासकर उन गतिविधियों पर नजर रखें, जो बच्चे की शिक्षा में बाधा उत्पन्न करती हैं।
8. समय निकालकर बच्चों को परिवार के संघर्षपूर्ण किस्सों, सफल एवं योग्य लोगों के बारे में बताएं और उन्हें उन्हीं की राह पर चलने की प्रेरणा दें।
9. नौकरी करते हुए अपनी माता-पिता की जिम्मेदारियों से दूर न भागें। उन्हें अपनी बात कहने और धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनने का मौका दें। बच्चों को किशोरावस्था में आने वाले बदलावों, समस्याओं एवं उनके समाधान से परिचित कराएं।
10. किशोर बच्चों को ट्यूशन भेजने के साथ-साथ इस बात पर भी ध्यान रखें कि कहीं वह किसी गलत संगत में तो नहीं हैं। उन पर कड़ी नजर रखें और उन्हें सही मार्गदर्शन दें।
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