लखनऊः 23 फरवरी को जब लखनऊ की जनता मताधिकार का प्रयोग करेगी तो कोविड की दूसरी लहर के दौरान फैली अराजकता पर उसकी राय बंटी हुई होगी। जनता की राय इस बात पर विभाजित है कि क्या पिछले साल अप्रैल-मई में दूसरी कोविड लहर के दौरान दवाओं, ऑक्सीजन और बिस्तरों का संकट चुनाव में एक मुद्दा होगा। गंभीर संकट के बीच बेड और ऑक्सीजन की कमी के कारण अपने प्रियजनों को खोने वाले कुछ लोगों को लगता है कि चुनाव में महामारी प्रबंधन एक मुद्दा है, लेकिन लहर की चपेट में आए कई अन्य लोगों का मानना है कि यह उनकी किस्मत थी क्योंकि कोई भी सरकार उस संकट के सामने लाचार हो सकती थी, जिसने पूरी दुनिया में तबाही मचा दी। ऐसा कहने वाले ज्यादातर लोग पहले नाराज थे, लेकिन अब अस्पतालों में अधिक बेड, वेंटिलेटर, और ऑक्सीजन प्लांट और टीकाकरण तेजी से होने के बाद से संतुष्ट दिखाई दे रहे हैं।
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ऐशबाग निवासी मोहित सिंह ने कहा, न केवल लखनऊ में, बल्कि पूरे भारत में, दूसरी कोविड लहर के दौरान एक कठिन समय था। मैं अपने चाचा और चाची जी को अस्पताल में भर्ती कराने में असमर्थ था। हम वेंटिलेटर बिस्तर की तलाश में एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में भाग रहे थे। अन्ततः कोई अस्पताल भर्ती के लिए तैयार नहीं हुआ अन्त में दोनों की मृत्यु हो गई सिर्फ मेरे साथ ही नहीं लखनऊ और दूसरे शहरों में कई और लोगों के साथ ऐसा हुआ।मोहित का कहना है कि जिन्होंने रोगियों और उनके रिश्तेदारों को करीब से देखा है उनका मानना है कि महामारी से निपटने का सरकारी प्रबंध नाकाफी था और विधानसभा चुनाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। वहीं दूसरी ओर कई अन्य लोगों का कहना है कि सरकार को ऐसी आपदा के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, जिसने चिकित्सा सुविधाओं में अभूतपूर्व मांग पैदा की थी।
अलीगंज के रहने वाले विदुर खन्ना अलीगंज के सेक्टर ओ में स्टेशनरी की दुकान चलाते हैं। उन्होंने कोरोना की दूसरी लहर के दौरान अपने पिता को खोया। इसके बावजूद विदुर कहते हैं कि उन्हें लगता है कि लोग सरकार को संदेह का लाभ देंगे। उन्होंने कहा, व्यक्तिगत नुकसान होने पर लोग वास्तव में गुस्से में थे, लेकिन धीरे-धीरे दूसरों की पीड़ा देखकर उनका गुस्सा कम हो गया। मीडिया ने भी अन्य मुद्दों पर भी लोगों का ध्यान आकर्षित कराया।
निजी नौकरी करने वाले बक्शी का तालाब निवासी शैलेन्द्र सिंह का कहना है कि मैं अपने पिता के लिए न तो ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था नहीं कर सका और न ही उन्हें अस्पताल में भर्ती ही करवा सका, जिसके चलते मैंने उन्हें खो दिया। अस्पतालों में चिकित्सा सुनिश्चित करना सरकार और हमारे प्रतिनिधियों का कर्तव्य है। लेकिन उस दौरान कोई नहीं दिखाई दिया। शैलेन्द्र का कहना है कि दूसरे देशों में हताहतों की संख्या को देखकर हम दूसरी लहर से निपटने के लिए बेहतर योजना बना सकते थे, लेकिन हमने ऐसा नहीं किया और परिणाम बहुत भयानक रूप से सामने आया। शैलेंद्र ने बताया कि बिस्तर और ऑक्सीजन की बहुत कमी थी। अस्पताल में भर्ती न होने पाने की वजह से अस्पताल के कॉरिडोर में ही पिता ने दम तोड़ दिया। बिस्तर आवंटन के लिए सीएमओ की लिखित चिट्ठी न मिल पाना और कोविड परीक्षण रिपोर्ट का पांच-छह दिन तक इंतजार करना पड़ रहा था। इस विधानसभा चुनाव में कोरोना की दूसरी लहर के प्रबंधन को लेकर सरकार के खिलाफ माहौल है और चुनाव परिणाम में इस मुद्दे का असर भी देखने को मिलेगा।
निजी कम्पनी में काम करने वाले विकास नगर निवासी निहाल गुप्ता का कहना है कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान अराजक दृश्य समय के साथ सार्वजनिक स्मृति में फीके पड़ जाते हैं। इसके अलावा, जब लोगों ने सरकार को राजधानी के अस्पतालों को ऑक्सीजन में आत्मनिर्भर बनाते हुए, कोविड अस्पतालों बढ़ते बिस्तरों की संख्या, तेजी से वैक्सीनेशन, तीसरी लहर की कम गंभीरता और कोविड से मृत्यु के वितरण को देखा तो गुस्सा कम हो गया। इसके अलावा सरकार ने कोविड से हताहत होने वालों को मुआवजा भी दिया। इससे लोगों का गुस्सा शांत हुआ। मुझे नहीं लगता कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कोरोना काल की दूसरी लहर किसी भी प्रकार से चुनावी मुद्दा बनेगी।
अलीगंज में अपने पति को कोरोना में खो चुकी विमला श्रीवास्तव का कहना है कि जब महामारी चरम पर थी तब योगी सरकार दिनरात काम पर थी। पति गुजरने को वह नीयति की मार कहती हैं। सरकार से उनको कोई षिकायत नहीं। विमला का कहना है कि मुख्यमंत्री दूसरी लहर के दौरान रोजाना बैठकें कर रहे थे और जनता को राहत दी जा रही थी और समस्या का निवारण हो रहा था। आपके पास यूपी जैसी आबादी वाले राज्य के प्रत्येक निवासी के लिए अस्पताल का बिस्तर नहीं हो सकता है। सरकार तीसरी लहर अच्छी तरह से संभाल रही है। विधानसभा चुनाव में कोरोना मुद्दा नहीं बनेगा। बल्कि सरकार की कमियों को छुपाने का काम कोरोना महामारी कर सकती है।
वहीं पारा निवासी शिवान्शु सक्सेना जिनके बड़े भाई की राजाजीपुरम ग्लोब अस्पताल में मौत हो गई थी, उस दौरान किसी दूसरे अस्पताल में भर्ती ही हो पा रही थी और न ही ग्लोब अस्पताल में आक्सीजन के सिलेंडर की पूर्ति हो रही थी। अंतिम समय में वेंटिलेटर भी उपलब्ध नहीं हो सका। कोरोना की दूसरी लहर के समय निजी अस्पताल लूट का केंद्र बन चुके थे और सरकारी अस्पतालों में सुविधाएं सीमित थीं। सरकार पूरी तरह से विफल हो चुकी थी। निश्चित ही इन विधानसभा चुनाव में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान फैली अराजकता चुनावी मुद्दा बनेगी और लोग इस मुद्दे को ध्यान में रखकर वोट भी डालेंगे।
जिन्होंने अपनों को इस महामारी में खोया उन्हें लगता है कि अस्पतालों में आक्सीजन और बिस्तरों की कमी सरकारी नाकामी थी और विधानसभा चुनावों में यह नाकामी सरकार को भारी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर कुछ लोेगों का कहना है कि यह पीड़ितों की किस्मत थी। विश्व की कोई भी सरकार इस महामारी का सामना नहीं कर सकी थी। सभी सरकारों ने इस महामारी की भयावकता को सहा है।
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