लखनऊः 30 जून 1857 का वह दिन, जब चिनहट के पास अंग्रेजों की सेना के सामने भारतीय आंदोलनकारी आकर डट गये। लाख कोशिशों के बावजूद आंदोलनकारियों को गोरों की सेना पीछे हटा नहीं सकी। जयकारों की गूंज के साथ ही भारतीय जवान आगे बढ़ते गये और गोरे रेजीडेंसी में शरण लेने के लिए मजबूर हो गये। दरअसल, 10 मई 1857 को मेरठ से उठी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी 30 जून को लखनऊ तक पहुंच गयी थी। लखनऊ में भी ज्वाला धधकने लगी और लोग सड़कों पर विद्रोह शुरू कर दिये। अन्य जगहों की तरह ही यहां भी अंग्रेजों के बंगलों पर स्वतंत्रता के दीवानों ने प्रहार किया। इसके बाद बौखलाकर हेनरी लारेंस अपनी सेना के साथ निकलकर विद्रोह को दबाने की कोशिश की। इस कोशिश में चिनहट के पास विद्रोहियों ने अंग्रेजों की सेना को रोक दिया और अंग्रेजों को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। अंग्रेज गोमती किनारे स्थित रेजीडेंसी में शरण लेने के लिए मजबूर हो गये। भारतीय सेनानियों की जीत हुई और खुशी से झूम उठे। यह आजादी 86 दिनों तक चलती रही।
शहर पर आंदोलनकारियों का कब्जा मिलने के बाद अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह के नाबालिग पुत्र विरजिस को लखनऊ का वली घोषित किया गया। इसके बाद उनकी माता बेगम हजरत महल ने सत्ता को संभालना शुरू किया। हिन्दू और मुसलमान विभिन्न पदों पर बैठाये गये। शहर में जश्न का माहौल बना रहा। अंग्रेजों को आसिफद्दौला द्वारा बनवाये गये रेजीडेंसी में ही कैद कर दिया गया। अंग्रेज 86 दिनों तक उसी रेजीडेंसी में कैद रहे। इस बीच पश्चिम में विद्रोह की चिंगारी तेज होने के कारण दिल्ली से भी अंग्रेजों की सेना नहीं भेजी जा सकती थी। इस कारण अंग्रेजों ने घोषणा की कि जो भी आंदोलन कारी आंदोलन से विरत हो जाएगा, उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। इसका भी असर सेनानियों पर नहीं पड़ा। इस बीच संघर्ष के दौरान क्रांतिकारियों ने अंग्रेज कमांडर सर हेनरी लॉरेंस को मौत की नींद सुला दिया था।
गोमती नदी किनारे स्थित रेजीडेंसी में आज भी गोला-बारूद के निशान संघर्ष की दास्तां को बयां करते हैं। वह आज भी बता रही है कि अंग्रेजों के जुल्म के आगे भी संग्राम घमासान हुआ और भारत के क्रांतिकारी डटे रहे। लोगों ने इस रेजीडेंसी में ही अंग्रेजों को कैद रहने के लिए विवश कर दिया। बाद के दिनों में अंग्रेजों ने गोले बरसाकर भारतीय जवानों को खदेड़ दिया और कुछ को इसी रेजीडेंसी में दफना दिया गया।
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सिकंदर बाग में ली शरण
सिकंदर के बाग में भारतीय सैनिकों ने शरण ली थी। वहां भी जब अंग्रेजों ने घेराबंदी की तो भारतीय सैनिक टूट पड़े और तीन हजार की संख्या में सैनिकों ने गोरों के तोपों का सामना किया। लड़ाई भयंकर हुई, लेकिन 16 नवम्बर 1857 को भारतीय सेना को हार का सामना करना पड़ा। 2000 से अधिक सिपाहियों को गोरों ने मार डाला था। वर्षों बाद तक बाग से तोप, गोला बारूद, तलवारें, ढाल और हथियारों के टूटे हिस्से मिलते रहें, जिन्हें अब संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इस घमासान के दौरान बाग की दीवारों पर पड़े निशान इस ऐतिहासिक घटना की गवाही देते हैं।
ऊदा देवी की रही महत्वपूर्ण भूमिका
इस लड़ाई में वीरांगना ऊदा देवी महत्वपूर्ण भूमिका में रही। वे पूरी लड़ाई में भारतीयों की मदद आगे बढ़कर करती रहीं। उन्होंने पुरुषों के वस्त्र धारण कर रखे थे। वे बाग के ऊंचे पेड़ों पर चढ़ जातीं और अंग्रेजों की सेना पर गोल बरसाती रहती थीं। बाग में आज भी ऊदा देवी की प्रतिमा 1857 की क्रांति की याद को ताजा कर रही है।
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