Monday, November 25, 2024
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Pilibhit: इलाहाबाद HC ने 43 दोषी पुलिसकर्मियों को सुनाई सजा, फर्जी मुठभेड़ में मारे थे 10 सिक्ख

मुठभेड़

लखनऊः इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने 1991 के पीलीभीत में हुए फर्जी मुठभेड़ मामले में 43 पुलिसकर्मियों को दोषी करार दिया है। वहीं निचली अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा को रद्द कर दिया है। साथ ही सभी दोषियों को आईपीसी की धारा 304 (भाग 1) के तहत दोषी ठहराते हुए उन्हें सात साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई और प्रत्येक पर 10 हजार रुपये का जुर्माना लगाया। बता दें कि इस मुठभेड़ में 10 सिखों की मौत हो गई थी।

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दरअसल लखनऊ स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने 4 अप्रैल, 2016 को पीएसी के 47 कर्मियों को दोषी ठहराते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। कर्मियों ने इस अदालत के आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। न्यायालय में अपील के लंबित रहने के दौरान चार आरोपियों की मौत हो गई। न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति सरोज यादव की खंडपीठ ने कहा, ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित 4 अप्रैल, 2016 को 43 पीएसीकर्मियों को दी गई सजा रद्द की जाती है।

अदालत ने कहा, हालांकि यह अदालत अपीलकर्ताओं को आईपीसी की धारा 304 (भाग 1) के तहत दोषी ठहराती है और प्रत्येक को 10 हजार रुपये जुर्माने के साथ सात साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाती है। कोर्ट ने इस साल 29 अगस्त को मामले की सुनवाई पूरी कर आदेश सुरक्षित रख लिया था। अदालत ने कहा, पुलिस का यह कर्तव्य नहीं है कि वे आरोपी को केवल इसलिए मार दें क्योंकि वह एक खूंखार अपराधी है। पुलिस को आरोपी को गिरफ्तार करना होगा और अदालत में पेश करना होगा।

अदालत ने कहा कि पुलिस ने उन्हें कानून द्वारा प्रदान की गई शक्ति से अधिक सक्रियता दिखाई, जो 10 सिखों की मौत का कारण बना। गौरतलब है कि पीएसी के जवानों ने 12 जुलाई 1991 को उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में तीर्थ यात्रा पर सिखों को ले जा रही एक बस को रोक लिया था और मुठभेड़ मे उसमें सवार 10 यात्रियों की मौत हो गई थी। इस दौरान गायए हुए बच्चे का आज तक पता नहीं चल सका है।

सीबीआई की जांच में कहा गया था कि 57 जवानों ने फर्जी एनकाउंटर किया था। सीबीआई की पूछताछ के दौरान 10 आरोपियों की मौत हो गई थी। सीबीआई की विशेष अदालत ने 4 अप्रैल, 2016 को 47 आरोपियों को दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। सभी दोषियों ने विशेष सीबीआई अदालत के फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी।

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