अब नीतीश को ‘वही’ भ्रष्टाचार पसंद है

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नीतीश कुमार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके साथ सरकार में कौन है। भाजपा है या उसकी धुर विरोधी पार्टियां। कारण नीतीश कुमार को न तो पद से कोई समझौता करना है और न ही अपने राजनीतिक कद से। वह आठवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं और फिलहाल बिहार के सर्वमान्य नेता हैं। भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई राजनेता 17 साल से मुख्यमंत्री हो और उसकी पारी आठवीं हो। अंदाजा लगाया जा सकता है। वह हर दो-ढाई साल में अपना चोला बदल देते हैं। पुराने को छोड़कर पहले से आजमाए ‘नए’ को साथ जोड़ लेते हैं। हर बार सहयोगी बदल लेने के बावजूद वे बिहार के नेता और मुख्यमंत्री यदि बने हुए है तो इसमें केवल नीतीश कुमार की काबिलियत नहीं है। उनके नेता बने रहने के पीछे बिहार की राजनीतिक परिस्थितियों की भूमिका ज्यादा है। लालू प्रसाद यादव के घोर अराजकतावादी शासन से बचने के लिए दस साल तो बिहार के लोगों ने बिना कोई और विकल्प आजमाए नीतीश को बनाए रखा। अक्टूबर 2005 में बिहार विधानसभा का जो चुनाव हुआ, उसमें नीतीश कुमार के नेतृत्व को स्थायित्व मिला। राजद को केवल 54 सीटें मिली और नीतीश कुमार के जदयू को 88। भाजपा को जो 55 सीटें मिलीं, उसी ने बिहार में लालू के विकल्प के रूप में नीतीश के नेतृत्व को मजबूती प्रदान की। उसके बाद कभी भी लालू की पार्टी को अकेले सत्ता में लौटने का मौका नहीं मिला।

ऐसा नहीं है कि नीतीश ने बिना भाजपा के अपने को स्थापित करने की कोशिश नहीं की। 2005 में ही रामविलास पासवान को इसके लिए पहले मनाते रहे और फिर उनकी पार्टी तोड़ने की कोशिश भी की। पासवान ने नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने के एकमात्र विकल्प को कभी स्वीकार नहीं किया। किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाने की मांग को लेकर रामविलास पासवान की पार्टी नीतीश से अलग हो गई। यह अलग बात है कि पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) सत्ता सहयोग के बिना हाशिये के तरफ धंसती गई और एक समय ऐसा भी आया कि 2020 के चुनाव में एलजेपी के खाते में केवल एक सीट ही आई और वह भी जीता हुआ विधायक पार्टी को छोड़कर नीतीश की शरण में चला गया। एक समय था कि लोक जनशक्ति पार्टी को फरवरी 2005 के चुनाव में 29 सीटें मिली थीं। आज भाजपा से नाराज होने के बावजूद चिराग पासवान, नीतीश और जदयू की ओर देखना भी पसंद नहीं करते।

2005 से 2010 के शासनकाल में एक नया बिहार उभर कर सामने आया। डर और आतंक के साये में जी रहे बिहारियों के लिए विकास और सुशासन का नया मॉडल जेडीयू और भाजपा ने दिया। भाजपा को भी इसका राजनीतिक लाभ मिला, लेकिन डंका नीतीश का बजा। इसी काल में नीतीश को विकास पुरुष और सुशासन बाबू का तमगा मिला। जिसे आगे दस साल तक जेडीयू और नीतीश भुनाते रहे। इस दौरान बिहार में बहुत कुछ हुआ। लालू-राबड़ी राज में पूरी तरह बिगड़ चुके शासन तंत्र को ठीक किया गया। पुलिस प्रशासन सख्त हुआ तो अपराध पर नकेल लग गई। फिरौती की घटनाएं बंद हुईं। इसका नतीजा यह हुआ है कि बाहर जा चुके व्यापारी और पेशेवर लोग बिहार लौटने लगे। शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार किए गए। खासकर लड़कियों की शिक्षा के लिए अद्भुत पहल की गई । स्कूल जाने वाली हर लड़की को साइकिल दी गई। मुख्यमंत्री के इस कदम की तारीफ तो यूनाइटेड नेशन तक हुई। बिहार में बड़े पैमाने पर सड़कों का निर्माण किया गया। बिहार की छवि सुधरी तो नीतीश कुमार की इमेज सुशासन बाबू की बन गई।

जनता ने नीतीश कुमार को सिर पर बैठा लिया। 2010 के चुनाव में जदयू और भाजपा को दो तिहाई बहुमत मिला। जदयू 141 सीटों पर लड़कर 115 और भाजपा 102 पर लड़कर 91 सीट जीती। जदयू-भाजपा की सरकार शानदार तरीके से लौट तो आई, लेकिन यहां भाजपा को नीतीश ने एक बड़ा सबक दिया। मुख्यमंत्री के पद पर मजबूती से अपना दावा स्थापित करने वाले नीतीश ने कद में भी अपने को सबसे ऊपर रखने की सफल कोशिश की और भाजपा ने चुपचाप उनके इस कद को स्वीकार कर लिया। आज के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता और प्रधानमंत्री मोदी तक को नीचा दिखाने की नीतीश ने एक कोशिश की और उसमें पूरी तरह सफल हुए। तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वह हिंदू ह्रदय सम्राट की पदवी पर आसीन हो गए थे, लेकिन यहां बिहार में नीतीश को मुसलमानों को वोट लेना था। इसलिए उन्होंने 2010 के चुनाव में भाजपा को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि बिहार में मोदी का नाम नहीं आना चाहिए। तब उन्होंने केवल इस बात के लिए भाजपा नेताओं के साथ पहले से तय रात्रिभोज को स्थगित करा दिया कि भाजपा ने एक विज्ञापन में मोदी और नीतीश को साथ दिखा दिया था।

भाजपा को तब नीतीश को जरूरत थी। इसलिए अपने नेता के कद को छोटा करते हुए नीतीश के कद को बड़ा किया और तब सुषमा स्वराज ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि मोदी बिहार के चुनाव में प्रचार करने नहीं आएंगे। यही नहीं उस साल गुजरात सरकार ने बिहार के बाढ़ पीड़ितों के लिए पांच करोड़ रुपये की सहयोग राशि दी थी। नीतीश ने अपनी इमेज के लिए उसे भी लौटा दिया। अपनी इस इमेज को और मजबूत करते हुए नीतीश कुमार ने 2013 में भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया, इसकी वजह यह थी कि मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी ने प्रमुख प्रचारक नियुक्त किया था। नीतीश ने नारा दिया- मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा के साथ नहीं जाएंगे। तब यह भी कहा कि उनका लक्ष्य भारत को संघ मुक्त बनाना है।

नीतीश यदि सिद्धांत के तौर पर मोदी या आरएसएस का विरोध करते तो इसे उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता माना जा सकता था। लेकिन आगे क्या हुआ। 2014 में भाजपा केंद्र की सत्ता में आ गई। मोदी से आशीर्वाद प्राप्त कर जीतन मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। नीतीश से यह कहां बर्दाश्त होने वाला था। 2015 में होने वाले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आ बैठे और इस बार उन्होंने साथ लिया महागठबंधन का। इसमें शामिल जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद को भ्रष्टाचार का द्योतक बताते रहे हैं और फिर दो साल बाद ही यह कहकर गठबंधन तोड़ दिया कि भ्रष्टाचार के मामले में कोई समझौता नहीं कर सकते। अब फिर नीतीश को ‘वही’ भ्रष्टाचार पसंद है।

पलटू चाचा के रूप में अपनी बिगड़ती इमेज के बावजूद यदि नीतीश फिर से राजद के साथ सत्ता में हिस्सेदारी कर रहे हैं तो इस बार भी उनकी वही कमजोरी साथ में है। पद और कद के प्रति बेहद लोलुपता की। वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में उनका पुराना पद फिलहाल बरकरार है। यानी मुख्यमंत्री तो वे बने ही रहेंगे चाहे अगल-बगल कोई भी हो। दूसरा इस बार कद बड़ा कर खुद को प्रस्तुत कर रहे हैं। यानी प्रधानमंत्री पद के भावी उम्मीदवार के रूप में। पर पद और कद के इस चक्कर में नीतीश ने खुद को राजद के हाथों कैद करवा लिया है। 2024 के आम चुनाव में अभी भी 20 महीने हैं। इन 20 महीनों में नीतीश की एकमात्र कोशिश महागठबंधन के नेता बने रहने की होगी। वह नेता बने रहेंगे तो ही प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप गैर भाजपा दल के लिए विकल्प बनेंगे और नेता बनाए रखने की कुंजी सिर्फ राजद या तेजस्वी यादव के पास होगी।

अब नीतीश के पास यह विकल्प नहीं होगा कि वह राजद के मंत्रियों को किसी भी मनमानी से रोक सकें। उनके पास यह भी रास्ता नहीं बचा कि वह गठबंधन तोड़ने की कोई धमकी भी दे सकते हैं। नीतीश पद और कद के चक्कर में जिस चक्रव्यूह में फंसे हैं वहां से निकलने का कोई भी मार्ग उनके पास नहीं है। कह सकते हैं कि नीतीश अब परिस्थितियों के गुलाम हो चुके हैं। 20 महीने बिहार की सरकार एक अच्छी इमेज के साथ चला सकें और खुद को स्थापित नेता के रूप में उभार सकें, यह एक चुनौती नहीं खतरनाक खेल भी हो सकता है। नीतीश और तेजस्वी के बीच किसी भी मुद्दे पर यदि तकरार हुई तो खोना सिर्फ नीतीश को पड़ेगा।

विक्रम उपाध्याय