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लाइलाज होता नक्सलवाद !

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छत्तीसगढ़ के बीजापुर में शनिवार को सुरक्षाबल के जवानों पर जोन्नागुंड़ा के जंगल में नक्सलियों के बड़े झुंड ने घात लगाकर हमला कर दिया, जहां करीब चार घंटे तक लगातार मुठभेड़ चली। पहले तो मात्र 5 जवानों के शहीद होने का दावा किया गया था, लेकिन रविवार सुबह होते-होते नक्सलियों के खतरनाक मंसूबों का परिणाम सामने आने लगा। नक्सल ऑपरेशन के डीजी अशोक जुनेजा ने रविवार सुबह 22 जवानों के शहीद होने की पुष्टि करते हुए कहा कि एक जवान अब भी लापता है। पूरे घटनाक्रम से देश सन्न रह गया। नक्सलियों से निपटने के लिए सख्त कदम उठाने की रणनीति बनाई जा रही है, लेकिन जनमानस में प्रश्न यह है कि सरकार के द्वारा क्या ठोस रणनीति अपनाकर नक्सलवाद का देश से स्थायी तौर पर सफाया किया जा सकेगा। इस तरह की जघन्य घटना छत्तीसगढ़ में पहली बार नहीं हुई है। पूर्व में भी वहां नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर दुस्साहसिक हमलों को अंजाम दिया है।

विचारणीय यह है कि नक्सली बेखौफ होकर एक के बाद एक घटनाओं को अंजाम देकर सरकारों को चुनौती देते रहे हैं। आखिर उनके पास सरकार से लड़ने के लिए हथियार व अन्य संसाधन लगातार कहां से आ रहे हैं। वैसे तो हमारे देश में नक्सलवाद बहुत बड़ी व गंभीर समस्या है, जिसके निदान के लिए सरकार को दीर्घकालीन रणनीति पर लगातार कार्य करना होगा। वैसे हमारे देश में जिस दृढ़ संकल्प के साथ लगातार अलगाववादियों से निपटने की मुहिम सरकार के द्वारा चलाई जा रही है, वह बेहद काबिले तारीफ है। इसी संकल्प के साथ नक्सलवाद से भी लड़ने की जरूरत है। इसके निदान के लिए दूरगामी स्थायी रणनीति आखिर क्या होगी, इसके लिए नक्सलवाद के हर पहलू को बारीकी से समझना होगा।

नक्सलवाद क्या है

माओवादी विचारधारा के लोगों द्वारा गुरिल्ला युद्ध के जरिए सत्ता तंत्र को अस्थिर करने के उद्देश्य से बेहद हिंसक संसाधनों का प्रयोग करते हुए जानमाल को नुकसान पहुंचाकर सरकारी संसाधनों की लूटखसोट की जाती है। भारत में ज्यादातर नक्सलवादी संगठन माओवादी विचारधारा पर आधारित हैं। इसके जरिये वे मौजूदा शासन व्यवस्था को उखाड़ फेंकना चाहते हैं और "जनता की सरकार" बनाने का सपना दिखाकर लोगों को अपने पक्ष में करते हैं। लेकिन इन क्षेत्रों की हालात देखकर यह भी साफ हो जाता है कि ये लोग जनता के कितने बड़े हितैषी हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजुमदार और कानू सान्याल के सशस्त्र हिंसक आंदोलन का नाम नक्सलवाद है। चारू मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग से बहुत प्रभावित थे और मानते थे कि भारत में मजदूरों और किसानों की खस्ताहाल व दुर्दशा के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं। इसीलिए वर्ष 1967 में पश्चिम बंगाल के ग्राम नक्सलबाड़ी से सत्ता के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत की। जो झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे अनेक राज्यों में तेजी से फैल गया। आज भी देश के लगभग 11 राज्यों में नक्सलवाद की जड़ें बेहद गहरी हैं।

नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र का दर्द

केन्द्र व राज्य सरकारें प्रभावित इलाकों से नक्सलवाद का सफाया करना चाहती है, इसके लिए उन्होंने समय-समय पर भरपूर धन आवंटन किया है। रोजमर्रा की जरूरत व विकास की दौड़ में नक्सल प्रभावित ऐसे सभी इलाके बेहद पिछड़े हुए है, जिसके चलते नक्सलवाद प्रभावित जनपद देश में अलग-थलग रहने लगे हैं। इन इलाकों में नक्सली, अधिकारियों, नेताओं व ठेकेदारों के गठजोड़ से भ्रष्टाचार चरम पर है। नक्सलवाद उन्मूलन के नाम पर केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा आवंटित धन की जमकर बंदरबांट की जा रही है। जबकि नक्सल प्रभावित जनपद को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इतना धन आवंटित किया जाता है कि अगर उसे ईमानदारी से खर्च किया जाए तो बहुत कम समय में इन इलाकों की तस्वीर बदल सकती है।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की अधिकांश आबादी मूलभूत सुविधाओं के बिना रहती है। यहां तक कि बिजली, स्वच्छ पेयजल और शौचालय भी दूर की बात है। नक्सल प्रभावी क्षेत्रों में अगर कोई व्यक्ति बीमार हो जाता है तो उसके बेहतर उपचार के लिए पास में कोई हॉस्पिटल तक नहीं है, क्षेत्र में जरा-जरा सी बीमारियों के उपचार के लिए लोगों को मरीज के साथ मीलों धक्के खाने पड़ते हैं। स्कूल, मुख्य सड़कों व ग्रामीण संपर्क मार्गों का क्षेत्र में भारी अभाव है, रोजगार के नाममात्र के साधन हैं। इन क्षेत्रों खनन करने जैसी सरकारी नीतियों के विरोध में नक्सलियों में काफी आक्रोश रहता है, वो आम जनमानस को भी उसके खिलाफ उकसाते रहते हैं। इन इलाकों के विकास के लिए आवंटित धन की नेताओं-अफसरों-ठेकेदारों के बीच में बंदरबांट हो जाती है। इस धन में से तय बड़ा हिस्सा नक्सलियों के शीर्ष नेतृत्व के पास भी पुहंच जाता है। फिर यही धन हमारे वीर जवानों के खिलाफ लड़ने के लिए संसाधन इकट्ठा करने में खर्च किया जाता है।

लाइलाज हो चुके नक्सलवाद से निपटने के लिए सरकार को कारगर रणनीति बनानी होगी। नक्सलियों के सफाये के लिए उन्हें हर तरह की मदद मुहैया कराने वाले गठजोड़ को जल्द से जल्द समाप्त करना होगा। नक्सल प्रभावित इलाके की समस्याओं की पहचान कर उनके समाधान से लोगों के दिलों में भरोसा व विश्वास पैदा किया जा सकता है। जिससे लोग नक्सलवाद छोड़कर मुख्यधारा में शामिल हो सकें।

पिछले कुछ वर्षों में छत्तीसगढ़ के कुछ बड़े नक्सली हमले

श्यामगिरी (9 अप्रैल 2019)
दंतेवाड़ा में लोकसभा चुनाव के दौरान मतदान से ठीक पहले नक्सलियों ने चुनाव प्रचार के लिए जा रहे भाजपा विधायक भीमा मंडावी की कार पर जबरदस्त हमला किया था। हमले में भीमा मंडावी के अलावा उनके चार सुरक्षाकर्मी की हत्या हो गयी।

दुर्गपाल (24 अप्रैल 2017)
सुकमा जनपद के दुर्गपाल के पास नक्सलियों द्वारा घात लगाकर किए गए हमले में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 25 जवान शहीद।

दरभा (25 मई 2013)
बस्तर के दरभा घाटी में हुए नक्सली हमले में कांग्रेस के आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा, कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष नंद कुमार पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 अन्य लोग मारे गए।

धोड़ाई (29 जून 2010)
नारायणपुर जिले के धोड़ाई में सीआरपीएफ जवानों पर नक्सलियों का हमला, 27 जवान शहीद।

दंतेवाड़ा (17 मई 2010)
यात्री बस में दंतेवाड़ा से सुकमा जा रहे सुरक्षाबल जवानों पर नक्सलियों ने बारूदी सुरंग लगाकर हमला किया, जिसमें 12 विशेष पुलिस अधिकारी समेत 36 लोग मारे गए।

ताड़मेटला (6 अप्रैल 2010)
बस्तर के ताड़मेटला में सीआरपीएफ के जवान सर्चिंग आपरेशन के लिए निकले थे, जहां नक्सलियों ने बारुदी सुरंग लगाकर 76 जवानों की हत्या कर दी।

मदनवाड़ा (12 जुलाई 2009)
राजनांदगांव के मानपुर इलाके में पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे समेत 29 पुलिसकर्मियों पर नक्सलियों ने हमलाकर उनकी हत्या कर दी।

उरपलमेटा (9 जुलाई 2007)
एर्राबोर के उरपलमेटा में सीआरपीएफ और जिला पुलिस के दल पर नक्सलियों ने हमला बोला दिया था, जिसमें 23 पुलिसकर्मी मारे गए।

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रानीबोदली (15 मार्च 2007)
बीजापुर के रानीबोदली में पुलिस के एक कैंप पर आधी रात को नक्सलियों ने हमला कर 55 जवानों को मार दिया।

दीपक कुमार त्यागी