सनातन धर्म में भगवान शंकर सभी युगों में विशेष रूप से उपास्य देव हैं। देवीभागवत पुराण में इस सम्बंध में नारद जी को स्वयं भगवान शंकर ने कलियुग के मानवों के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कलियुग में सभी मानव सदा धर्महीन, पापाचारी तथा सत्यधर्म से विमुख हो जाएंगे। सदा सज्जनों की हानि होगी तथा दुर्जनों की उन्नति होती है। इस प्रकार घोर कलियुग में भगवान शिव का पूजन पापबुद्धि मनुष्यों के लिए भी मुक्ति प्रदान करने वाला होगा। जो व्यक्ति शिवशक्तिस्वरूप पार्थिव लिंग का निर्माण करके श्रद्धा भक्ति से उसका पूजन करता है, उसे ‘कलि’ बाधा नहीं पहुंचाता।
इस कलियुग में थोड़े से साधनों से भी सम्पन्न होने वाले भगवान शंकर के पूजन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। मिट्टी की मूर्ति, बिल्वपत्र से पूजा, बिना प्रयत्न से साध्य मुख का वाद्य (गाल बजाना) और इन सबसे प्राप्त होने वाला फल है भगवान शिव का सायुज्य मुक्ति लाभ, इसलिए अकिंचन भक्तों के लिए भगवान विश्वनाथ ही एकमात्र देवता हैं। इस कलियुग में भगवान शिव की आराधना के समान कोई सत्कर्म नहीं है। शाक्त, वैष्णव अथवा शैवों को पहले भगवान शंकर की पूजा करके तब भक्तिपूर्वक अपने ईष्ट देवता की पूजा करनी चाहिए। प्रारम्भ में बिल्वपत्रों से शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि शिव की पूजा बिना किया हुआ सभी कर्म निष्फल हो जाता है। जो पापी मनुष्य अहंकार अथवा अज्ञान से इस क्रम का उल्लंघन करता है, उसका अधः पतन हो जाता है और उसकी पूजा निष्फल होती है। जो सर्वलोकेश्वरेश्वर भगवान महादेव का पूजन करता है, उसकी सारूप्यमुक्ति हो जाती है तथा उसको भक्ति प्राप्त होती है एवं उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जो मनुष्य सद्भक्तिपूर्वक सर्वदेवमय भगवान शिव की पूजा करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर शिवलोक प्राप्त करता है। जो मानवश्रेष्ठ भक्तियुक्त होकर भगवान शंकर को पाद्य समर्पित करता है, वह भी पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक प्राप्त करता है।
भगवान शंभु को अर्ध्यादि जो कुछ पूजनोपचार समर्पित किए जाते हैं, वे सब शिवलिंग के ऊपर भी थोड़े-थोड़े चढ़ाने चाहिए। भगवान शंकर का निर्माल्य और प्रसाद अग्राह्य हो जाता है, उसका भक्षण नहीं करना चाहिए परंतु शालिग्राम शिला के स्पर्श से वह शिवनिर्मात्य भी ग्राह्य हो जाता है तथा अनादि लिंगों (ज्योतिर्लिंगों आदि स्वयम्भू लिंगों) का निर्माल्य ग्रहण कर व्यक्ति शिव सायुज्य को प्राप्त करता है। जो मानव भक्तिभाव पूर्वक अथवा भक्तिभाव रहित भी भगवान शंकर की पूजा करता है, वह यमराज के दण्ड का भागी नहीं होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। भगवान शिव के लिंग का अर्चन करके मानवश्रेष्ठ आरोग्य, अतुल आनंद, संतति तथा पुष्टि की वृद्धि को प्राप्त करता है। जो मानव भगवान शंकर के समक्ष भक्तिपूर्वक नृत्य करता है एवं गीत-वाद्य से सेवा करता है, वह भगवान शंकर के समीप रहकर उनके गणों का स्वामी हो जाता है। जिस देश में भगवान शिव की पूजा एवं भक्ति में परायण मनुष्य निवास करते हैं, गंगाविहीन होते हुए भी वह देश पुण्यतम कहा गया है। जो मनुष्य बिल्ववृक्ष के मूल में भक्तिपूर्वक भगवान शंकर का पूजन करता है, वह निश्चित रूप से हजारों अश्वमेध यज्ञ करने के समान फल प्राप्त करता है। जो मनुष्य भगवती गंगा में भगवान शंकर का बिल्वपत्रों से पूजा करता है, सैकड़ों पाप करने वाला होने पर भी वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
जो मानव काशी में अनिच्छा से भी भगवान महेश्वर की पूजा दर्शन करता है, उसे अंत में स्वयं भगवान महेश्वर भक्ति-मुक्ति प्रदान कर देते हैं। पवित्र भारतवर्ष में जो पुण्यक्षेत्र है, वहां भगवान विश्वेश्वर की पूजा करके मनुष्य पुनर्जन्म की भागी नहीं होता है। इस देश में भगवान शंकर के पूजन के समान कोई श्रेष्ठ कर्म नहीं है, जो महापाप को हरने वाला पुण्यदायी तथा सभी प्रकार की आपत्तियों का निवारण करने वाला है। अनेक शास्त्रों में मनुष्य के पापों को हरने वाले असंख्य पुण्यदायक कर्म बताए गए हैं, उनमें भगवान शंकर के पूजन, शिवनाम संकीर्तन तथा भगवती दुर्गा के नाम संकीर्तन को विशेषरूप से उत्तमोत्तम जानना चाहिए।
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भगवती दुर्गा का पूजन एवं उसी प्रकार भगवान राम के नाम जप संकीर्तन तथा उनकी लीला कथाओं गुणों के श्रवण और तीर्थों में भ्रमण को कलिकाल में पापनाशक श्रेष्ठ उपाय बताया गया है। जो मनुष्य भगवान शंकर के नामों को स्मरण कर शास्त्रों में बताए गए शुभ कर्म करता है, उसका किया हुआ कर्म अक्षय्यतम हो जाता है। शिव, विश्वनाथ, विश्वेश, रह, गौरीपते, आप प्रसन्न हो इस प्रकार जो मनुष्य एक बार भी श्रद्धा भक्तिपूर्वक कहता है, उसकी रक्षा के लिए उसके पीछे अपने गणों के साथ वेगपूर्वक शूलपाणि भगवान शिव शूल लेकर स्वयं दौड़ पड़ते हैं। जहां कहीं रहकर जो मनुष्य भगवान शंकर का स्मरण करता है, वह सभी तीर्थों का निवास हो जाता है। इस घोर कालिकाल में सैकड़ों पाप करने वाला मनुष्य भी शिवनाम का स्मरण करते हुए शरीर को त्याग करके साक्षात् शिवसायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
लोकेंद्र चतुर्वेदी