गोविन्द नाम से प्रसिद्ध भगवान श्रीकृष्ण ही जगत के परम कारक हैं। वे ही परमपद हैं, वृन्दावन के अधीश्वर हैं तथा नित्य परमात्मा हैं। सनातन धर्म में वेद, पुराण शास्त्रानुसार सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति से युक्त, जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, वे सब श्रीकृष्ण के ही वैभव हैं। उनके रूप को जो करोड़वां अंश है, उसके भी करोड़ अंश करने पर एक-एक अंश कला से असंख्य कामदेवों की उत्पत्ति होती है, जो इस ब्रह्माण्ड के भीतर व्याप्त होकर जगत के जीवों को मोह में डालते रहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के श्री विग्रह की शोभामयी कान्ति के कोटि-कोटि अंश से चन्द्रमा का आविर्भाव हुआ है।
श्रीकृष्ण के प्रकाश के करोड़वें अंश से जो किरणें निकलती हैं, वे ही अनेकों सूर्यों के रूप में प्रकट होती हैं। उनके साक्षात श्रीअंग से जो रश्मियां प्रकट होती हैं, वे परमानन्दमय रसामृत से परिपूर्ण हैं, परम आनन्द और परम चैतन्य ही उनका स्वरूप है। उन्हीं से इस विश्व के ज्योतिर्मय जीव जीवन धारण करते हैं, जो भगवान के ही कोटि-कोटि अंश हैं। उनके युगल चरणार्विन्दों के नखरूपी चन्द्रकान्तमणि से निकलने वाली प्रभा को ही सबका कारण बताया गया है। वह कारण-तत्व वेदों के लिए भी दुर्गम्य है। विश्व को विमुग्ध करने वाले जो नाना प्रकार की सुगन्ध हैं, वे सब भगवद् विग्रह की दिव्य सुगन्ध के अनन्तकोटि अंश मात्र हैं। भगवान के स्पर्श से ही पुष्प गंध आदि नाना सुगन्धों का प्रादुर्भाव होता है। श्रीकृष्ण की प्रियतमा उनकी प्राणवल्लभा श्रीराधा हैं, वे ही आद्या प्रकृति कही गई है। भगवान के परात्पर स्वरूप श्रीकृष्ण की महिमा तथा मथुरा के माहात्म्य के विषय में पद्म पुराण के पातालखण्ड में श्री महादेवजी द्वारा देवी पार्वती के संवाद के रूप में वर्णन किया गया है। श्री महादेवी जी ने कहा- देवि! महर्षि वेदव्यास ने विष्णुभक्त महाराज अम्बरीष से जिस रहस्य का वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें भी बतला रहा हूं। एक समय की बात है, राजा अम्बरीष बदरिकाश्रम गए। वहां परम जितेन्द्रिय महर्षि वेदव्यास विराजमान थे। राजा ने विष्णुधर्म को जानने की इच्छा से महर्षि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करते हुए कहा, आप विषयों से विरक्त हैं। प्रभो जो परमपद, उद्वेगशून्य-शान्त है, जो सच्चिदानन्द स्वरूप और परमब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध है, जिसे ‘परम आकाश’ कहा गया है, जो इस भौतिक जड़ आकाश से सर्वथा विलक्षण है, जहां किसी रोग-व्याधि का प्रवेश नहीं है तथा जिसका साक्षात्कार करके मुनिगण भवसागर से पार हो जात हैं, उस अव्यक्त परमात्मा में मेरे मन की नित्य स्थिति कैसे हो? वेदव्यास जी बोले- राजन् तुमने अत्यन्त गोपनीय प्रश्न किया है, जिस आत्मानन्द के विषय में मैनें अपने पुत्र शुकदेव को भी कुछ नहीं बतलाया था, वही आज तुमको बता रहा हूं, क्योंकि तुम भगवान के प्रिय भक्त हो।
पूर्वकाल में यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड जिसके रूप में स्थित रहकर अव्यक्त और अविकारी स्वरूप से प्रतिष्ठित था, उसी परमेश्वर के रहस्य का वर्णन किया जाता है, सुनो- प्रचीन समय में मैंने फल, मूल, पत्र, जल, वायु का आहार करके कई हजार वर्षों तक भारी तपस्या की। इससे भगवान मुझपर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने ध्यान में लगे रहने वाले मुझ भक्त से कहा- महामते, तुम कौन सा कार्य करना अथवा किस विषय को जानना चाहते हो? मैं प्रसन्न हूं, तुम मुझसे कोई वर मांगो। संसार का बंधन तभी तक रहता है, जब तक कि मेरा साक्षात्कार नहीं हो जाता, यह मैं तुमसे सत्य कह रहा हूं। यह सुनकर वेदव्यास जी ने श्रीकृष्ण से कहा- मधुसूदन, मैं आप ही के तत्व का यथार्थ रूप से साक्षात्कार करना चाहता हूं। जो इस जगत का पालक और प्रकाशक है, उपनिषदों में जिसे सत्यस्वरूप परब्रह्म बतलाया गया है, आपका वही अद्भुत रूप मेरे समक्ष प्रकट हो- यही मेरी प्रार्थना है। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा- महर्षे, कोई मुझे ‘प्रकृति’ कहते हैं, कोई पुरुष। मेरे विषय में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं। कोई ईश्वर मानते हैं, कोई धर्म। किन्हीं-किन्हीं के मत में मैं सर्वथा भय-रहित ‘मोक्षस्वरूप’ हूं। कोई भाव (सत्तास्वरूप) मानते हैं और कोई-कोई कल्याणमय ‘सदाशिव’ बतलाते हैं। इसी प्रकार दूसरे लोग मुझे वेदान्त प्रतिपादित अद्वितीय सनातन ब्रह्म मानते हैं। किन्तु वास्तव में जो सत्तास्वरूप और निर्वीकार है, सत्-चित् और आनन्द ही जिसका विग्रह है तथा वेदों में जिसका रहस्य छिपा हुआ है, अपना वह परमार्थिक स्वरूप आज तुम्हारे सामने प्रकट करता हूं, देखो। वेदव्यास जी ने राजा अम्बरीष से कहा- राजन, भगवान के इतना कहते ही मुझे एक बालक का दर्शन हुआ, जिसके शरीर का कान्ति नील मेघ के समान थी। वह गोप कन्याओं और ग्वालबालों से घिरकर हँस रहा था। वे भगवान श्यामसुन्दर थे, जो पतिवस्त्र धारण किए कदम्ब वृक्ष की जड़ पर बैठे हुए थे। उनके साथ ही नूतन पल्लवों से अलंकृत ‘वृन्दावन’ नामवाला वन भी दृष्टिगोचर हुआ।
इसके बाद मैंने नीलकमल की आभावाली ‘यमुना’ के दर्शन किए। फिर ‘गोवर्धन’ पर्वत पर दृष्टि पड़ी, जिसे श्रीकृष्ण तथा बलराम ने इन्द्र का घमंड चूर करने के लिए अपने हाथों पर उठाया था। गोपाल श्रीकृष्ण अबलाओं के साथ बैठकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बंशी बजा रहे थे, उनके शरीर पर सब प्रकार के आभूषण शोभा पा रहे थे। तब वृन्दावन में विचरने वाले भगवान ने स्वयं मुझसे कहा- मुने, तुमने जो इस दिव्य सनातन रूप का दर्शन किया है, यही मेरा निष्फल, निष्क्रिय, शान्त और सच्चिदानन्दमय पूर्ण विग्रह है। इस स्वरूप से बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट तत्व नहीं है। वेद इसी स्वरूप का वर्णन करते हैं। यही कारणों का कारण है। यही सत्य, परमानन्दस्वरूप, चिदानन्दघन, सनातन और शिव तत्व है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- तुम मेरी इस मथुरापुरी को नित्य समझो। यह वृन्दावन, यह यमुना, ये गोपकन्याएं तथा ग्वालबाल सभी नित्य हैं। यहां जो मेरा अवतार हुआ है, यह भी नित्य है। इसमें संशय न करना। राधा मेरी सदा का प्रियतमा है। मैं सर्वज्ञ, परात्पर, सर्वकाम, सर्वेश्वर तथा सर्वानन्दमय परमेश्वर हूं। मुझमें ही यह सारा विश्व, जो माया का विलासमात्र प्रतीत हो रहा है। तब वेदव्यास जी ने भगवान से कहा- नाथ, ये गोपियां और ग्वाल कौन हैं? तथा यह वृक्ष कैसा है? तब श्रीकृष्ण बड़े प्रेम से बोले- मुने, गोपियों को श्रुतियां समझो तथा देवकन्याएं भी इनके स्वरूप में प्रकट हुई हैं। तपस्या में लगे हुए मुमुक्षु मुनि ही इन ग्वाल बालों के रूप में दिखाई दे रहे हैं। ये सभी मेरे आनन्दमय विग्रह हैं। यह कदम्ब ‘कल्पवृक्ष’ है, जो परमानन्दमय श्रीकृष्ण का एक मात्र आश्रय बना हुआ है तथा यह पर्वत भी अनादिकाल से मेरा भक्त है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
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श्रीकृष्ण कहते हैं- कितने आश्चर्य की बात है कि दूषित चित्त वाले मनुष्य मेरी इस उत्कृष्ण, सनातन एवं मनोरम मथुरापुरी को, जिसकी देवराज इन्द्र, नागराज अनन्त तथा बड़े-बड़े मुनीश्वर भी स्तुति करते हैं, नहीं जानते। यद्यपि काशी आदि अनेकों मोक्षदायिनी पुरियां विद्यमान हैं, तथापि उन सब में मथुरापुरी ही धन्य है, क्योंकि यह अपने क्षेत्र में जन्म, उपनयन, मृत्यु और दाह संस्कार- इन चारों ही कारणों से मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करती है। जब तप आदि साधनों के द्वारा मनुष्यों के अन्तःकरण शुद्ध एवं शुभ संकल्प से युक्त हो जाते हैं और वे निरन्तर ध्यानरूपी धन का संग्रह करने लगते हैं, तभी उन्हें मथुरापुरी की प्राप्ति होती है। मथुरावासी धन्य हैं, वे देवताओँ के भी माननीय हैं, उनकी महिमा की गणना नहीं हो सकती। मथुरावासियों के जो दोष हैं, वे नष्ट हो जाते हैं, उनमें जन्म लेने और मरने का दोष नहीं देखा जाता। जो निरन्तर मथुरापुरी का चिन्तन करते हैं, वे निर्धन होने पर भी धन्य हैं, क्योंकि मथुरा में भगवान शिवशंकर का निवास है, जो पापियों को भी मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। देवताओं में श्रेष्ठ भगवान भूतेश्वर महादेव मुझको सदा ही प्रिय हैं, क्योंकि वे मेरी प्रसन्नता के लिए कभी भी मथुरापुरी के लिए परित्याग नहीं करते। जो भगवान भूतेश्वर शिवशंकर को नमस्कार, उनका पूजन अथवा स्मरण नहीं करता, वह मनुष्य दुराचारी है। जो मेरे परम भक्त शिवशंकर महादेव का पूजन नहीं करता, उस पापी को किसी तरह मेरी (श्रीकृष्ण) भक्ति नहीं प्राप्त होती। वह मेरी मथुरापुरी देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। वहां जाकर मनुष्य यदि लंगड़ा या अन्धा होकर भी प्राणों का परित्याग करे तो उसकी भी मुक्ति हो जाती है। यह उपनिषदों का रहस्य है, जिसे मैंने तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है। इस प्रकार वेदव्यास जी को श्रीकृष्ण ने अपने यथार्थ-तत्व रहस्य को प्रकट किया एवं अपने परमप्रिय मथुरापुरी धाम का माहात्म्य प्रकाशित किया।
ज्योतिर्विद- लोकेंद्र चतुर्वेदी