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अपने अस्तित्व को तरस रहा कभी लोगों की प्यास बुझाने वाला कुआं

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बेगूसराय: परिवर्तन के इस दौर में कुएं (well) और प्यासे के संबंधों की दूरी समाप्त हो रही है, कुआं का अस्तित्व ही गुम होता जा रहा है। अब तो सामाजिक संस्कारों के मौके पर ढूंढने से भी कुएं नहीं मिलते। यह तो समाज की ताकत है कि कुछ धार्मिक स्थलों पर कुएं बचे हैं, अन्यथा आज की पीढ़ी तो किताबों में ही इसे पढ़ती। एक समय था जब कुआं (well) लोगों की प्यास बुझाता था, लेकिन अब खुद प्यासा है। कुआं खुदवाना धर्म और शान की बात समझी जाती थी। कुएं (well) के जल को पूर्वजों ने इतना पवित्र माना था कि तमाम धार्मिक अनुष्ठान इसी के जल से होते थे। सबसे पहले खेतों में कच्चा कुआं खोदकर पानी निकाला जाता था और इसी पानी का उपयोग पीने एवं खेतों की सिंचाई दोनों होता था। इसके बाद कुएं की चरन का निर्माण कराया जाने लगा तथा ईट से जोड़ाई कर दी जाती थी, ताकि कुएं की दीवार की मिट्टी पानी में नहीं गिरे।

जीवन के लिए पानी की अनिवार्यता के कारण मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। कालचक्र में नदियों से होने वाली परेशानियों के कारण लोगों को पानी के अन्य विकल्प की आवश्यकता हुई तो इसी आवश्यकता के आविष्कार ने कुआं को जन्म दिया। उस जमाने में धरती का सीना चीरकर पानी निकालना आसान नहीं था। कुएं सीमित संख्या में थे, जहां कुएं (well) थे वहीं लोग बसते गए संबंध बढ़ता गया और समाज का निर्माण होता गया। किसने कितने कुएं खुदवाये यह सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता था।

नलकूप पर बढ़ती निर्भरता:-

अधिकांश जगहों पर कुआं खोदने के लिए मजदूर मजदूरी नहीं लेते थे। कुआं खुदने के बाद यज्ञ के माध्यम से पानी की देवी कमला को अधिष्ठापित किया जाता था, कुआं की शादी पूरे विधि विधान से कराई जाती थी। 1960 में कुएं पर लोहे की रहट लगाई गई। बैलों के द्वारा पानी निकालकर लोग खेतों की सिंचाई का कार्य करते थे। करीब 15 वर्षो तक रहट के माध्यम से लोग अपनी और फसलों की प्यास बुझाते रहे, फिर 1975 में नलकूप का प्रचलन शुरू हुआ। नलकूप लगने के बाद लोग धीरे-धीरे नलकूप पर निर्भर हो गए और आज कुएं के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया।

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धार्मिक अनुष्ठान तक सिमटा उपयोग:-

आधुनिक युग में कुएं (well) का महत्व केवल विवाह एवं उपनयन संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है। भारतीय संस्कृति में कुआं पूजन की प्राचीन पंरपरा है, गांव के कुआं पर आज भी विवाह, उपनयन के दौरान धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है। यह परंपरा आधुनिक युग में भी बरकरार है, वहीं, शहरों में कुओं के मिट जाने पर हैंडपंप का पूजन करके ही कुआं पूजन की रस्म अदा की जा रही है। पहले जहां यह कुआं स्वच्छ जल का प्रतीक माना जाता था, वहीं आज जल के विभिन्न साधन होने के चलते कुएं के जल का महत्व नहीं रह गया है। कुछ जगहों पर आज भी पुरानी पंरपरा को कायम रखते हुए कुएं मौजूद हैं, इनमें आज भी पानी है, लेकिन उस पानी का उपयोग नहीं के बराबर रह गया है। कुछ लोगों ने कुआं को भरकर घर बना लिया तो कुछ लोगों ने कुआं को शौचालय की टंकी और कचरा डंपिंग जोन बनाकर छोड़ दिया है।

बेगूसराय सदर प्रखंड के लडुआरा में गुम हो रहे कुआं (well) के अस्तित्व को बचाने के लिए नूर आलम ने लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन सफलता नहीं मिली। पानी निकालने के लिये जब कुएं में बाल्टी डाला जाता है तो पानी में हिलोरे उठती है, जिससे कई तरह के जीवाणुओं का खात्मा हो जाता है। वहीं सूर्य की किरणें भी कुएं के अंदर पड़ती है जो कि पानी को शुद्ध रखने में काफी कारगर है।

1311 सार्वजनिक कुआं का जीर्णोद्धार:-

डीडीसी सुशांत कुमार के अनुसार कुआं (well) के जीर्णोद्धार के प्रति विभाग जागरूक है, जल जीवन हरियाली अभियान के तहत कुओं का जिर्णोद्धार कराने की योजना है। नगर एवं ग्रामीण क्षेत्र में अब तक 2341 सार्वजनिक कुआं को चिन्हित किया गया था, जिसमें से 1311 सार्वजनिक कुआं का जीर्णोद्धार कार्य शुरू किया गया, जिसमें से अब तक 988 योजना पूरा कर लिया गया है।

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