Home अन्य संपादकीय दो कठिन पाटों के बीच फंसी है कांग्रेस

दो कठिन पाटों के बीच फंसी है कांग्रेस

राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता है। उतार व चढ़ाव इसकी चारित्रिक विशेषता है। जो आज शीर्ष पर हैं, वह कल कहां रहेगा, इसके बारे में कहना मुश्किल है। 1984 की आठवीं लोकसभा में भाजपा फर्श पर थी, उसे मात्र 02 सीटें मिली और वह भी गैर-हिंदी प्रदेशों से। उस समय कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 426 थी। 30 साल बाद 2014 की 16वीं लोकसभा के चुनाव में वह अर्श पर पहुंच गई। उसे न सिर्फ सत्ता मिली, बल्कि लंबे समय बाद लोकसभा में किसी एक दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को पूर्ण बहुमत मिला। कांग्रेस की कहानी इसके उलट है। इन वर्षों में उसकी यात्रा अर्श से फर्श पर पहुंचने की है। 1984 में वह शीर्ष पर थी। उसे लोकसभा में तीन चौथाई सीटें मिली थीं, वहीं 2014 में उसका अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन हुआ। वह दो अंकों की संख्या से आगे नहीं बढ़ पाई। 2019 में भी वही कहानी दोहराई गई। कांग्रेस स्वाधीनता आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी है। उसका देश पर सबसे लंबा शासन रहा है। वर्तमान में उसकी यह दुर्गति क्यों ? इस साल कई राज्यों में चुनाव हुए हैं और होने वाले हैं। 2024 का घमासान भी शुरू हो चुका है, ऐसे में कांग्रेस कहां खड़ी है, इस पर चर्चा करना जरूरी है। चुनाव आयोग ने हाल में मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की नई सूची जारी की है। उसके अनुसार भारत में 06 दलों को राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल की मान्यता मिली है। नई बात है कि आम आदमी पार्टी (आप) जो सर्वाधिक नया दल है, उसे राष्ट्रीय दल की मान्यता मिली। 10 वर्षों के अंदर यहां तक पहुंचना उसके लिए बड़ी उपलब्धि है। भले ही छ दल राष्ट्रीय हैं लेकिन जमीनी यथार्थ यही है कि भाजपा और कांग्रेसी ही ऐसे दल हैं, जिनका आधार राष्ट्रीय है इसीलिए जो राष्ट्रीय गठबंधन है, उनका नेतृत्व इन्हीं दोनों दलों के पास है।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का नेतृत्व भाजपा करती है, वहीं संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अगुवा कांग्रेस है। अपनी इसी स्थिति के कारण भाजपा और कांग्रेस आपस में मुख्य प्रतिद्वंदी की भूमिका में हैं। कांग्रेस ने पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक अनेक प्रधानमंत्री दिए। इनमें सर्वाधिक समय नेहरू-इंदिरा परिवार के हाथ में प्रत्यक्ष सत्ता रही है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल को भी यही माना जाता है कि इसका रिमोट इंदिरा परिवार के पास रहा है। भाजपा के चरित्र में भी परिवर्तन आया है। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के राजनीतिक संगठन के रूप में जाना जाता रहा है तथा इसके नेतृत्व का निर्माण संघ के शिक्षित-प्रशिक्षित स्वयंसेवकों से होता रहा है। वे ही इसके नेता बनते रहे हैं। कहने का आशय है कि भाजपा संघ के मिशन को पूरा करने वाला दल है। यह उसी के सिद्धांत और अनुशासन से चलता है। यहां व्यक्ति से अधिक सिद्धांत की प्रधानता रही है। भले ही दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेई, बलराज मधोक, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख जैसे राष्ट्रीय नेता इस दल के रहे हों लेकिन यहां नेता संगठन से ऊपर नहीं होते हैं। वर्तमान में उसका स्वरूप भी बदला है, विशेषकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद। एक तो भाजपा में अच्छी संख्या में ऐसे नेताओं को प्रवेश मिला है, जिनकी पृष्ठभूमि आरएसएस की नहीं है। वे अन्य राजनीतिक दलों तथा क्षेत्रों से आए हैं। दूसरी बात, नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की विराटता का राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर उभरना है। जैसे कांग्रेस में व्यक्ति प्रधानता रही है, उसी तरह भाजपा के पर्याय नरेन्द्र मोदी बन गए हैं। चुनाव भी मोदी के नाम पर लड़ा जाता है। इस तरह भारत की चुनावी राजनीति सिद्धांत से हटकर व्यक्ति केन्द्रित हुई है। भाजपा और कांग्रेस के बीच का संघर्ष नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी का रूप ग्रहण कर चुका है। इन दोनों दलों के बयानों में इसे लक्षित किया जा सकता है।

कांग्रेस राज में खूब फला-फूला भ्रष्टाचार

राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर लगातार हमले किए। इसका चरित्र व्यक्तिगत अधिक है। यही कारण है कि वे बूमरैंग की तरह उसी पर पलटवार कर रहा हैं। राहुल गांधी का बड़ा आरोप है कि मोदी शासन में लोकतंत्र खत्म हुआ है। स्वायत्त संस्थाओं और एजेंसियों का इस्तेमाल मोदी सरकार अपने राजनीतिक मकसद के लिए कर रही है। अदालते भी निरपेक्ष नहीं रही हैं। क्या कांग्रेस का शासन इस मामले में पाक-साफ रहा है ? इमरजेंसी को कोई भूल नहीं सकता है। कांग्रेस के शासन विशेष तौर इंदिरा काल पर तानाशाही का आरोप लगता रहा है। जहां तक सीबीआई, चुनाव आयोग, ईवीएम आदि के दुरुपयोग की बात है, कांग्रेसी शासन में भी ऐसे आरोप लगे हैं। मनमोहन सिंह सरकार के दौर में सीबीआई को ‘तोता’ तक कहा गया। भ्रष्टाचार खूब फला-फूला। उसकी गंगा ऊपर से नीचे तक प्रवाहित हुई। मंत्री से लेकर संत्री तक इसमें नहाते रहे, तर-ब-तर होते रहे। नरेंद्र मोदी शासनकाल में वे सीबीआई, ईडी आदि के निशाने पर हैं। समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यह राष्ट्र के विकास के लिए अति आवश्यक है। राजनीति ही इसकी गंगोत्री बनी हुई है इसलिए यहां निर्ममता से सफाई की जानी चाहिए। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में विपक्ष के नेता ही बहुतायत में पकड़े गए हैं। वे जांच के घेरे में हैं। ऐसे नेता अपवाद में मिलेंगे, जिन पर कोई जांच नहीं चल रही हो। इससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा है। भ्रष्टाचारी दहशत में हैं लेकिन कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं कि आरोपित नेता बचने के लिए भाजपा की शरण में आया और उसके साथ व्यवहार बदल गया। उसे ‘साफ-सुथरा’ का सर्टिफिकेट मिल गया। राजनीति का अपराधीकरण और भ्रष्टाचार किसी एक दल का मामला नहीं है। यह सिस्टम से जुड़ा है। सरकार चाहे किसी दल की हो, वह इन व्याधियों से मुक्त नहीं है इसलिए सिस्टम में सुधार की जो भी कोशिश हो, उसका स्वागत किया जाना चाहिए।

कांग्रेस का संकट

कांग्रेस का संकट मुख्यतः दो तरह का है। एक बाहरी है और दूसरा आंतरिक है। कुछ जानकारों का कहना है कि कांग्रेस का संकट उसी की देन है। इसका कारण इंदिरा परिवार है। यह परिवारवाद से मुक्त नहीं हो पाई है। आज भी पार्टी के केंद्रीय व्यक्ति राहुल गांधी हैं। नरेंद्र मोदी को जो थोड़ी बहुत चुनौती किसी से मिली है, तो वह यही शख्स हैं। शरद पवार, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी जैसे विपक्ष के नेता से चुनौती मिलने की संभावना नहीं है और है भी तो वह क्षेत्रीय है। राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर, सड़क से लेकर संसद तक घेरने की हरसंभव कोशिश की है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा है। यह उनकी रणनीति का अंग है। ताजा प्रसंग गौतम अडानी के संबंध में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट है। राहुल गांधी द्वारा मोदी-अडानी रिश्ते की बात तथा जेपीसी की मांग लगातार की गई। राहुल गांधी द्वारा मोदी पर व्यक्तिगत हमला नई बात नहीं है। वे ‘चौकीदार चोर है’ का नारा उछालते रहे हैं। उनके द्वारा इसी तरह की बयानबाजी होती रही है। ऐसी हल्की और व्यक्तिगत आक्षेप वाली बयानबाजी भारतीय राजनीति में आम बात है। राहुल गांधी के लिए ‘पप्पू’ शब्द का इस्तेमाल होता रहा है। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के लिए भी व्यक्तिगत आक्षेप और अशोभनीय टिप्पणियां की गई हैं। जिस बयान के लिए राहुल गांधी को दो साल की सजा हुई है, वो उन्होंने साल 2019 में लोकसभा चुनावों के दौरान कर्नाटक के कोलार में दिया था। इस बयान के खिलाफ भाजपा नेता पूर्णेश मोदी ने मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया था। राहुल गांधी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के तहत केस दर्ज किया गया था। पूर्णेश मोदी का आरोप था कि राहुल गांधी की इस टिप्पणी से पूरे मोदी समुदाय की मानहानि हुई है। सूरत की अदालत ने इस मामले की सुनवाई के बाद राहुल गांधी को दो साल की सजा सुनाई। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8(3) के तहत अगर किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जाता है और उसे दो साल या उससे अधिक की सजा मिलती है तो वह सदन के सदस्य बने रहने के योग्य नहीं रह जाएगा। इसी अधिनियम के तहत राहुल गांधी की लोकसभा से सदस्यता रद्द करने की अधिसूचना जारी हुई। राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद थे। यह है कांग्रेस का संकट नम्बर एक। जिस नेता को केन्द्र में रखकर वह 2024 के चुनावी समर में उतर रही थी, उसके राजनीतिक भविष्य पर ही ग्रहण लग गया है।

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कांग्रेस का अंदरूनी संकट कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है। जिन राज्यों में कांग्रेस की स्थिति सुदृढ़ है, वहां संकट भी उतना ही गहरा है। वह अपने को जितना ही रिवाइव करना चाहती है, नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने की तैयारी करती है, उसकी अंदरूनी समस्या पीछे धकेल देती है। वह बैकफुट पर आ जाती है। 2014 के बाद पार्टी लगातार कमजोर हुई है। उसका कमजोर होना कई व्याधियों का कारण है। कांग्रेस ऐसी पार्टी है, जो लंबे समय तक केंद्र और राज्य में सत्ता में रही है। नेताओं के अंदर सत्ता को लेकर प्रबल आकर्षण है। सत्तालोलुपता ने नेताओं के बीच टकराहट का रूप लिया है। उनकी महत्वाकांक्षाएं चरम पर हैं। उनमें गुटबाजी बढ़ी है। इन्हें हल करने में नेतृत्व की अक्षमता सामने आई है। कांग्रेस के अंदर के इस संकट का सबसे ताजा उदाहरण राजस्थान का है। एक बार फिर सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच टक्कर सतह पर है। इस राज्य में विधानसभा चुनाव होना है। यह टक्कर क्या गुल खिलाएगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। कहानी सिर्फ राजस्थान की नहीं है। अधिकांश राज्यों की कहानी इससे अलग नहीं है। छत्तीसगढ़ की समस्या भी राजस्थान से मिलती-जुलती है। ये दोनों ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस की सरकार है और दोनों जगह गुटबाजी अपने चरम पर है। छत्तीसगढ़ में वहां के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के विरुद्ध टीएस सिंह देव मोर्चा खोले हुए हैं। कर्नाटक में चुनाव चल रहा है। वहां डीके शिवकुमार बनाम सिद्धारमैया का विवाद पिछले कुछ सालों से पार्टी के लिए सिरदर्द बना हुआ है। ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री ?’ आलाकमान द्वारा इसका हल न करने से दोनों के बीच तकरार बना हुआ है। महाराष्ट्र में भी पार्टी दो भागों में बंटी है। इसी गुटबाजी के कारण मध्यप्रदेश में डेढ़ दशक बाद सत्ता में आने के बाद कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर गई। राष्ट्रीय संगठन में पहले से ही असंतुष्ट नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। जी-23 उसी की अभिव्यक्ति है। गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। कपिल सिब्बल का रुख आक्रामक तो नहीं है। लेकिन गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस को घेरा है। 5 अप्रैल को अपनी किताब लांच की। कहने के लिए यह आत्मकथात्मक है लेकिन इसमें कांग्रेस की सख्त आलोचना है। यह अन्दरुनी संकट का दस्तावेज है। पंजाब में कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे कैप्टन अमरिंदर सिंह। वे कांग्रेस से अलग हो पंजाब लोक कांग्रेस पार्टी बनाई। बाद में भाजपा में इसका विलय कर दिया। असम के मुख्यमंत्री हेमन्त विश्व शर्मा कभी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हुआ करते थे लेकिन अब भाजपा के चहेते हैं। कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होने वाले नेताओं की लंबी लिस्ट है। कांग्रेस नेतृत्व को इसका आभास है लेकिन आभास होना काफी नहीं है। वह करे तो क्या करे ? ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की ओर से कोशिश नहीं हुई है। अपनी खोई जमीन को पाने तथा साख को कायम करने के लिए राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की। यह 12 राज्यों तथा दो केन्द्र शासित प्रदेश से गुजरी। करीब 3,570 किलोमीटर की यह पदयात्रा हुई। कांग्रेस ने परिवारवाद से मुक्त होने का आभास देने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना अध्यक्ष बनाया है। बाहरी और अंदरुनी संकट को देखते हुए इस तरह के प्रयास नाकाफी है। कांग्रेस भाजपा का विकल्प बनना चाहती है लेकिन उसके सामने नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व तथा भाजपा-संघ परिवार का संगठन पहाड़ की तरह खड़ा है। उस पर से अंदर और बाहर की समस्याएं जिसकी दो पाटों में वह जिस तरह पिस रही है, उसे देखते हुए उसका संकट से निकल पाना आसान नहीं लगता है। इस संबंध में मुक्तिबोध की मशहूर कविता ‘ब्रहमराक्षस’ की चंद पंक्तियां सटीक बैठती हैं- ‘पिस गया वह भीतरी औ बाहरी/दो कठिन पाटों के बीच/ऐसी ट्रेजिडी है नीच!’

कौशल किशोर

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