टिकटों के बंटवारे में चूक से यूपी में भाजपा की हुई दुर्गति

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लखनऊः लोकसभा चुनाव में 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश को दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने का सबसे बड़ा आधार माना जाता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश में जब भी कोई दल सीटों पर टिकटों का निर्णय करता है, तो जातीय समीकरणों के साथ-साथ स्थानीय नेताओं की लोकप्रियता और संगठन के लोगों की राय को ध्यान में रखकर ही फैसले लेता है। इस बार यूपी जैसे महत्वपूर्ण राज्य में 80 की 80 सीटें जीतने का दावा करने वाली BJP टिकटों का बंटवारा करने में ही चूक गयी।

यहां पार्टी ने भाजपा की रीढ़ कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और स्थानीय नेताओं की लोकप्रियता और कार्यकर्ताओं की मांग को गंभीरता से लेने के बजाय दिल्ली में बैठकर राजनीति करने वाले कुछ बड़े नेताओं के कहने पर टिकटों का बंटवारा कर दिया गया। भाजपा ने टिकटों के बंटवारे में पूरी तरह से जातीय समीकरणों और आंकड़ों का ध्यान रखा था, इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में पार्टी को यूपी में मात्र 33 सीटों पर ही जीत मिली है।

राजनीतिक विश्वेषकों की मानें तो भाजपा का अत्यधिक केंद्रीयकरण और आंकड़ों पर ही ध्यान देने की वजह से उत्तर प्रदेश में चुनाव परिणाम चौंकाने वाले आये हैं। 2014 के बाद यह पहला चुनाव था, जिसमें भाजपा कार्यकर्ताओं में हद दर्जे की मायूसी दिखाई दी। प्रदेश संगठन के तमाम बार कहने के बावजूद कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर वोटरों से संपर्क करने, वोटरों को घरों से निकालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यूपी भाजपा के कई नेताओं ने चुनाव के दौरान दबी जुबान से कहा भी था कि जब सारे फैसले दिल्ली में बैठने वाले लोगों को ही लेने हैं, प्रदेश स्तर के नेताओं और स्थानीय नेताओं से सलाह लेने की भी जरूरत नहीं महसूस की जा रही है, तो फिर भीषण गर्मी में पार्टी के कार्यकर्ता जनसंपर्क करने और वोटरों को बूथ तक पहुंचाने की कोशिशें क्यों करें? सबसे बड़ी बात यह है कि यूपी में जब जिलाध्यक्षों के नाम तय किए गए थे, तब भी सारे फैसले दिल्ली में बैठे पार्टी हाईकमान के कुछ बड़े नेताओं की मुहर लगने के बाद ही लिए गए थे।

इतना ही नहीं विधानपरिषद चुनाव हो या राज्यसभा का चुनाव अधिकांश फैसलों में उत्तर प्रदेश के पदाधिकारियों की भूमिका नगण्य रही है। उत्तर प्रदेश में पार्टी की तरफ से जनसंपर्क और भाजपा सरकार की नीतियों को लेकर जो भी योजनाएं बनाई जाती थीं, उनके क्रियान्वयन पर भी दिल्ली से हरी झंडी मिलने के बाद ही कोई निर्णय होता था। चुनाव से पूर्व और चुनाव के दौरान पार्टी ने केंद्रीय स्तर से इतने अधिक अभियान और कार्यक्रम चलाए कि स्थानीय स्तर पर भागदौड़ करने वाले कार्यकर्ताओं में ऊर्जा और जोश की कमी नजर आने लगी। यहीं नहीं फील्ड में जाने को लेकर केंद्रीय नेतृत्व की ओर से लगातार दबाव पड़ने की वजह से कार्यकर्ता नाराज होने लगे, उनकी समस्याओं को सुनने और उनका समाधान करने वाला भी कोई नहीं था, इसलिए चुनाव में ऐन वक्त पर जब कार्यकर्ताओं को वोटरों से मिलना और उन्हें पोलिंग बूथ तक ले जाने का कार्य करना था, उसी को करने में कार्यकर्ता लापरवाह हो गये।

लोकसभा चुनाव में आरएसएस का असहयोग पड़ा भारी

केंद्रीय नेतृत्व को लगा कि पार्टी कार्यकर्ता लोगों के घर जाकर संपर्क कर रहे हैं, वोटरों को भाजपा के पक्ष में मतदान करने के लिए तैयार कर रहे हैं, लेकिन यहां तो जमीनी हकीकत कुछ और ही थी, जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा है। भाजपा के गठन से लेकर अब तक पार्टी की रीढ़ बनकर उसको मजबूती देने और चुनाव में कदम से कदम मिलाकर काम करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी 2024 के लोकसभा चुनाव में विशेष सक्रियता नहीं दिखाई। यह शायद पहला चुनाव था, जिसमें पूरे प्रदेश में आरएसएस और उससे जुड़ी अन्य आनुषंगिक संगठनों ने उदासीन होकर काम किया, इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि पार्टी में संगठन और सरकार से जुड़े हर फैसले में संघ की राय को महत्व दिया जाता था, लेकिन अब सब कुछ केंद्रीय नेतृत्व अपने मन मुताबिक करने लगा है।

केंद्रीय नेतृत्व विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति, संगठन में पदाधिकारियों की नियुक्ति, निगमों, बोर्डों आदि में नियुक्ति, चुनावों में टिकटों का वितरण करने में संघ की राय लेना और उसको महत्व देना लगभग बंद ही कर दिया है। इस लोकसभा चुनाव से पहले तीन बार संघ और भाजपा की समन्वय बैठकें हुईं। पांच चरणों के चुनाव के बाद भी संघ के पदाधिकारियों के साथ सरकार और संगठन के चेहरों ने बैठक की, संघ की तरफ से जो भी सलाह दी गई उन पर अमल करने का वादा तो किया गया लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ भी नजर नहीं आया। अपनी बात को अहमियत नहीं दिए जाने से कहीं न कहीं आरएसएस के पदाधिकारी भी उदासीन हो गये। इस बात का भी सीधा असर चुनावी नतीजों पर पड़ा है।

भाजपा के बारे में 2014 से लगातार यह कहा जाता है कि कई तरह के सर्वे के बाद ही प्रत्याशियों का चयन किया जाता है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। पार्टी नेतृत्व ने टिकटों के बंटवारे में अति आत्मविश्वास दिखाया, उसने पार्टी के अंतरिम सर्वे को अहमियत नहीं दी थी। भाजपा की 51 नामों वाली पहली सूची में ही कई ऐसे सांसदों को प्रत्याशी घोषित किया गया, जिनकी जमीनी हकीकत पार्टी की तरफ से कराए गए सर्वे में काफी खराब थी। इन नेताओं के प्रति क्षेत्र की जनता में काफी नाराजगी और गुस्सा था। चुनाव के दौरान जनसंपर्क करने निकले नेताओं को शुरुआती दौर में कई सीटों पर जनता के मुखर विरोध का सामना भी करना पड़ा था। ऐसी स्थिति फिरोजाबाद, फतेहपुर सीकरी, अलीगढ़, मुजफ्फरनगर, कैराना, मुरादाबाद, बरेली, बस्ती, संतकबीर नगर, बलिया, बांदा, अयोध्या, जालौन, सलेमपुर, कौशांबी, प्रतापगढ़, धौरहरा सहित कई अन्य सीटों पर देखने को मिली थी।

इसका नतीजा यह रहा कि तमाम सीटों पर पार्टी के विधायक और स्थानीय संगठन से जुड़े नेता ही पार्टी प्रत्याशी का समर्थन करने को तैयार नहीं थे। इसीलिए उन्होंने उन प्रत्याशियों को जिताने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किया। फतेहपुर सीकरी में भाजपा विधायक बाबूलाल के पुत्र रामेश्वर सिंह ने बगावत कर चुनाव लड़ा। रामेश्वर सिंह के साथ ही अलीगढ़ में भी कई पदाधिकारियों के निष्कासन की संस्तुति की गई। मुजफ्फरनगर में संजीव बालियान को लोकसभा सीट का टिकट दिए जाने का भाजपा नेता संगीत सोम ने जोरदार विरोध किया था। यह भी कहा जाता है कि बालियान को हरवाने में संगीत सोम का बड़ा हाथ रहा है। मोहनलालगंज लोकसभा सीट के कौशल किशोर को टिकट दिए जाने से भी पार्टी कार्यकर्ता और क्षेत्रीय जनता खुश नहीं थी, क्योंकि केंद्रीय मंत्री ने अपने क्षेत्र में कोई ऐसा कार्य नहीं किया, जिसकी वजह से जनता उन्हें दोबारा चुनकर लोकसभा में भेजे।

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इसके अलावा कौशल किशोर के परिवार में साल-दो साल के अंदर कई ऐसे घटनाएं भी हुई हैं, जिसकी वजह से समाज में उनकी छवि को काफी नुकसान पहुंचा था। यह सब कुछ जानने के बाद भी केंद्रीय नेतृत्व ने कौशल किशोर को टिकट तो दे दिया लेकिन उन्हें जीत नहीं मिल सकी। इन सबका परिणाम यह हुआ कि नरेंद्र मोदी के जिस जादुई चेहरे की वजह से भाजपा केंद्र की सत्ता में दो बार पूर्ण बहुमत हासिल करने में कामयाब रही, उसे यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से मात्र 33 सीटें ही मिल पायी, जबकि 2029 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 65 लोस सीटों पर जीत मिली थी। इस बार मोदी का मैजिक भी भाजपा को चुनाव में बहुमत नहीं दिला सका। यही नहीं भाजपा को यूपी में मिले मत प्रतिशत में भी काफी कमी आई है।

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