किसी देश में अल्पसंख्यक होना गुनाह हो सकता है तो दुनिया के कुछ गिने-चुने देशों में पाकिस्तान इस श्रेणी के तीन शीर्ष देशों में से एक होगा। पाकिस्तान में हिंदू, सिख और ईसाइयों को इस तरह से इस्लाम खतरे में है के नाम पर निशाने पर लिया जा रहा है। यदि इसी तरह कुछ वर्ष और चला तो यहां अल्पसंख्यक नाम का एक प्राणी भी मिलना दूभर हो जाएगा। ताजा घटनाक्रम इस दिशा में दुनिया के सामने एक बार फिर चिंता की लकीरें खींच रहा है।
लगातार घटती रही अल्पसंख्यकों की आबादी
यहां एक मौलवी के उकसावे पर इस्लामिक कट्टरपंथियों की भीड़ ने पाकिस्तान के पंजाब सूबे के सरगोधा की मुजाहिद कॉलोनी में ईसाइयों पर हमला कर दिया। इस दौरान कट्टरपंथियों ने एक 70 साल के बुजुर्ग ईसाई की पीट-पीटकर हत्या भी कर दी और उसके लकड़ी के कारखाने में आग भी लगा दी। घटना में कई अन्य ईसाई भी घायल हुए हैं। इसमें दुखद यह है कि जिस पुलिस पर इस तरह की वारदातों को रोकने की जिम्मेदारी है, वह हमले के आए कई वीडियो में स्पष्ट रूप से मूक दर्शक के रूप में साइट पर मौजूद दिखाई दे रही है, जो हमले में शामिल आतंकियों को उनकी मौन स्वीकृति और सुविधा प्रदान करने की ओर इशारा करता है।
दरअसल पाकिस्तान में हर अल्पसंख्यक समाज आज अपने अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रहा है, जिसमें कि यहां सबसे अधिक संकट यदि किसी पर दिखाई देता है तो वह हिंदू और ईसाई समुदाय है, उसके बाद सिख समुदाय निशाने पर रहता है। पिछले साल इसे लेकर एक रिपोर्ट भी आई, जिसमें बताया गया है क कैसे खतरों और उत्पीड़न की एक शृंखला से यहां रह रहे हिन्दू गुजर रहे हैं, क्योंकि हत्या, अपहरण और अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों पर हमले देश में एक आम मामला बन गया है। 1947 में पाकिस्तान में हिंदू आबादी 20.5% थी, जो 1998 के आते 1.6% रह गई, दो दशकों में यह संख्या और कम हो गई है। मूवमेंट फॉर सॉलिडैरिटी ऐंड पीस इन पाकिस्तान की एक रिपोर्ट जोकि पिछले माह ही सामने आई, उसमें आंकड़ों के साथ यहां अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के ताजा उदाहरणों के साथ अवगत कराया गया है।
जांच से पता चलता है कि जबरन विवाह और मतान्तरण (धर्मांतरण) के मामले एक विशिष्ट पैटर्न का पालन करते हैं, आमतौर पर 12 से 25 वर्ष की आयु के बीच की लड़कियों का अपहरण कर लिया जाता है, उन्हें इस्लाम में परिवर्तित कर दिया जाता है, और अपहरणकर्ता या तीसरे पक्ष से शादी कर दी जाती है। पीड़ित का परिवार जब स्थानीय पुलिस स्टेशन में अपहरण या बलात्कार की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराता है। तभी अपहरणकर्ता जोकि मुसलमान है, वह उल्टे अपहरण की गई लड़की की ओर से, एक जवाबी प्राथमिकी दर्ज करता है, जिसमें जानबूझकर धर्म परिवर्तन और विवाहित लड़की को परेशान करने और लड़की को वापस उसके मूल धर्म में परिवर्तित करने की साजिश रचने का आरोप उक्त लड़की के परिवार वालों पर लगाता है।
इस बीच लड़की को इतना अधिक डरा दिया जाता है कि जब उसे अदालतों में या मजिस्ट्रेट के सामने पेश भी किया जाता है तो वह पीड़ित लड़की अपनी गवाही देते वक्त ज्यादातर मामलों में यही बोलती दिखती है कि उसने अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन किया और शादी की है, जहां अपहरण की मूल घटना जोकि वास्तविक है, वह तो गायब ही हो जाती है । रिपोर्ट में दस उदाहरणात्मक मामलों की जांच के माध्यम से हिंसा के इन पैटर्न और न्याय की विफलता का पता लगाया गया है।
यहां अधिकांश मामलों में, न्यायिक प्रक्रिया के दौरान लड़की अपहरणकर्ता की हिरासत में रहती है। एक बार अपहरणकर्ता की हिरासत में आने के बाद, पीड़ित लड़की को यौन हिंसा, बलात्कार, जबरन वेश्यावृत्ति, मानव तस्करी और बिक्री, या अन्य घरेलू दुर्व्यवहार का शिकार होते हुए भी देखा जाता है। रिपोर्ट में समस्या के ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ और पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए मौजूदा कानूनी, राजनीतिक और प्रक्रियात्मक गारंटी के संबंध में पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समुदाय की विशेष शिकायतों का भी वर्णन किया गया है।
अल्पसंख्यकों का धीमा नरसंहार
रिपोर्ट हिंसा के पैटर्न पर भी प्रकाश डालती है जिसके माध्यम से अपराधियों को छूट प्रदान करने में कानून और सामाजिक दृष्टिकोण जटिल हो जाते हैं, और संबंधित अपराधों की जटिल प्रकृति के कारण इस अपराध को धार्मिक पहचान के लिए विशिष्ट रूप से वर्गीकृत करना मुश्किल हो जाता है। इसी संदर्भ में आज यूनाइटेड स्टेट्स कमिशन ऑन इंटरनेशनल रिलिजियस फ्रीडम का सार्वजनिक तौर पर डेटा मौजूद है जो यह बता रहा है कि पाकिस्तान में हिन्दू-सिख एवं ईसाइयों की स्थिति बहुत दयनीय है। पाकिस्तान में हर साल एक हजार से ज्यादा हिंदू, सिख और क्रिश्चियन लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराया जाता है। यदि इस अधिकारिक आंकड़े से अलग सामान्य धर्म परिवर्तन के मामले देखें तो अकेले अल्पसंख्यक लड़कियों के कन्वर्जन की यह संख्या एक हजार से कई गुना अधिक बढ़ जाती है।
पाकिस्तान में ईसाइयों और हिंदुओं समेत अल्पसंख्यकों पर अक्सर ईशनिंदा के आरोप लगाए जाते हैं और उसके बाद उन पर ईशनिंदा के तहत मुकदमा चल पड़ता है, फिर उन्हें सजा सुनाई जाती है। पाकिस्तान में धारा 295सी के तहत पैगंबर के बारे में अपमानजनित बात करने पर संदिग्धों को मौत की सजा या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है, जबकि धारा 295 बी के तहत जो कोई भी कुरान की प्रति या उसके उद्धरण का अपमान करता है या इसका उपयोग किसी अपमानजनक तरीके से या किसी गैरकानूनी उद्देश्य के लिए करता है। उसे आजीवन कारावास की सजा दिए जाने का संविधानिक प्रावधान पाकिस्तान ने अपने यहां करके रखा है ।
पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति (2008 से 2012 तक) जो रहे, उनकी मीडिया सलाहकार फराहनाज इस्पहानी ने अपनी पुस्तक प्यूरीफाइंग द लैंड ऑफ द प्योर: पाकिस्तान्स रिलिजियस माइनॉरिटीज में बहुत ही स्पष्ट तौर पर जिक्र किया है कि कैसे आज पाकिस्तान की अल्पसंख्यक आबादी (हिन्दू, सिख, ईसाई) पर जुल्म किए जा रहे हैं । वह अपने राजनीतिक आधार को मजबूत करने के लिए देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ धीमी गति से नरसंहार शुरू करने के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को दोषी ठहराती हैं।
वह विशेष रूप से शियाओं, अहमदियों, हिंदुओं और ईसाइयों को निशाना बनाने के लिए एक आतंकवादी समूह बनाने के लिए पाकिस्तान सेना के जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक, जो देश के छठे राष्ट्रपति थे, को दोषी मानती हैं और कहती हैं कि पाकिस्तान का मतलब ही है पाक जमीन। मैंने अपनी पुस्तक में ऐतिहासिक अभिलेखों का उपयोग करते हुए यह बताया है कि कैसे पाकिस्तान, जो मुस्लिम बहुल राज्य होते हुए भी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनना चाहता था, आखिरकार वह बन गया जो आज है, जोकि उसे नहीं बनना था। 1947 में जब पाकिस्तान बन रहा था, तब पाकिस्तान में गैर-मुसलमानों की आबादी 23% थी, आज हम नाम मात्र की बची है। अतः अल्पसंख्यकों का धर्मांतरण हुआ है।
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वे कहती हैं कि यह जो मतान्तरण हुआ है इसके लिए कोई एक सरकार या एक व्यक्ति दोषी नहीं है। यहां सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों का योजना से मतान्तरण हो रहा है। इसे मैं ड्रिप-ड्रिप नरसंहार कहती हूं। आम तौर पर जब लोग नरसंहार के बारे में बात करते हैं, तो वे नाजी जर्मनी के बारे में बात करते हैं या वे यूगोस्लाविया के बारे में बात करते हैं। पाकिस्तान के मामले में, यह धीमा नरसंहार है, जो कई वर्षों से किसी एक मटके में से टपक, टपक, टपक धीरे-धीरे नीचे गिरती बूंदों की तरह से हो रहा है । आश्चर्य है यह सब जानते हुए भी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं एवं अन्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जैसे शक्तिशाली देश जोकि मानवाधिकार के पैरोकार हैं वे चुप बैठे हैं।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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