Wednesday, November 27, 2024
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समतामूलक समाज के उन्नायक गुरुनानक देव

सिख धर्म के संस्थापक आदि गुरु नानकदेव जी मानवीय कल्याण के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों, विडंबनाओं, विषमताओं, आडंबरों, कर्मकांडों अंधविश्वासों तथा जातीय अहंकार के विरुद्ध लोक चेतना जागृत की। साथ ही तत्कालीन लोदी और मुगल शासकों के बलपूर्वक मतांतरण तथा बर्बर अत्याचारों के विरुद्ध प्रखर राष्ट्र वाद का निर्भीकतापूर्वक क्रांतिकारी शंखनाद किया। उन्होंने विभिन्न उपमाओं, रूपकों, प्रतीकों और संज्ञाओं से परिपूर्ण अमृतवाणी से एक ओंकार सतनाम, आध्यात्मिक पवित्रता ,सामाजिक समरसता, साम्प्रदायिक सद्भाव, कौमी एकत, बंधुता लैंगिक समानता, नारी सम्मान के साथ ही भेदभाव रहित समतामूलक समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर अपने स्वतंत्र दृष्टिकोण से हिंदू धर्म को संगठित संघर्ष प्रदान किया।

गुरुनानक देव जी का जन्म 1469 में लाहौर के पास तलवंडी नामक स्थान में जो अब ननकाना साहिब के नाम से प्रसिद्ध है, हुआ था। इनके पिता पटवारी कालू मेहता और माता का नाम तृप्ता देवी था। वह बचपन से ही ईश्वरीय प्रतिभा से संपन्न दिव्यात्मा थे जो ध्यान, भजन, चिंतन, सत्य, अहिंसा, संयम और आध्यात्मिक विषयों में ही अधिक रुचि लेते थे। उनके जीवन की अनेक अलौकिक, असाधारण और चमत्कारिक घटनाएं हैं जो उनकी कर्म, भक्ति और ज्ञान साधना की महानता तथा अनासक्त भाव को प्रकाशित करती हैं। पाठशाला में वे शब्द के साधक बन अपने समय से बहुत आगे भविष्य को पढ़ रहे थे। परा विद्या से अक्षरों की वर्णमाला में उन्हें परमात्मा की एकता और उनके स्वरूप का रहस्य दिखाई देता था। उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई को देख उनके गुरु और मुल्ला गुरु भी शिष्य बन गए। यज्ञोपवीत संस्कार के समय वे कहते हैं की ‘जनेऊ के लिए दया का कपास हो, उस दया रूपी कपास से संतोष रूपी सूत काता गया हो,साधना की गांठ हो। जैसे कर्म योगी कृष्ण ने गीता में उद्घाटित किया कि आत्मा को आग जला नहीं सकता, जल गला नहीं सकता, पवन उड़ा नहीं सकता उसी प्रकार जनेऊ ऐसा हो जो न कभी टूटे न कभी मैला हो और न कभी नष्ट हो। जिसने इस रहस्य को समझ लिया वही इस संसार में धन्य है। चरवाहे का कार्य करते समय वृक्ष के नीचे सो जाते हैं तब वृक्ष की छाया सूर्य से निरपेक्ष हो जाती है। नानक जी का मन बच्चों के साथ खेलने कूदने में नहीं लगता साधु-संतों की संगति अच्छी लगती है। पिता कालू मेहता नानक के स्वास्थ्य की चिंता से वैद्य को बुलाते हैं। नानक जी वैद्य से कहते हैं कि मेरे शरीर में कोई विकार नहीं है। मेरा दर्द उस परमात्मा से न मिल पाने यानी वियोग से पैदा हुआ दर्द है। यदि इसकी कोई औषधि तुम्हारे पास हो तो ले आओ।

पिता नानक जी को सच्चा सौदा करने के लिए कम कीमत पर वस्तुएं खरीद कर अधिक कीमत पर बेचने के लिए कहते हैं किंतु नानक पिता के दिए पैसों से भूखे प्यासे साधु-संतों को रसद खरीद कर दे देते हैं। उनकी दृष्टि में भूखे को अन्न देना ही सच्चा सौदा है। सुल्तानपुर लोदी में नौकरी करते हुए वह घर जोड़ने की माया से विमुख सारी तनख्वाह गरीबों और जरूरतमंदों को बांट देते हैं। उनके मन में नकार बिल्कुल नहीं है । इसलिए वे विवाह के लिए हां करते हैं क्योंकि इसके लिए सामाजिक उत्तरदायित्व से पलायन न करते हुए गृहस्थ आश्रम में रहकर भी सच्चा धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन जिया जा सकता है। वे साधु होकर भी जन समाज में ही रहे उनके सुख-दुख में भाग लेकर उन सा ही जीवन व्यतीत करते रहे। मोदी खाने में एक दिन आटा तोलते समय तेरा-तेरा अर्थात ईश्वर का करते हुए सारा आटा ही तोल दिया। नानक जी नदी में स्नान करने जाते हैं तो 3 दिन बाद एकाएक प्रकट होकर कहते हैं कि “न कोई हिंदू है ना कोई मुसलमान। मैं इंसान और इंसान के बीच कोई फर्क नहीं मानता। ईश्वर मनुष्य की पहचान उसके अच्छे गुणों से करता है न कि उसके हिंदू या मुसलमान होने के कारण।”

एक काजी ने नानक को मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने के लिए आदेश दिया। नानक मस्जिद में गए जरूर लेकिन नमाज नहीं पढ़ी। शासक दौलत खान ने नमाज न पढ़ने के लिए नानक से पूछा तो नानक ने कहा कि मैं नमाज किसके साथ पढ़ता। आप भी तो नमाज नहीं पढ़ रहे थे आपका तो ध्यान तो कंधार में घोड़े खरीदने में था ।वही काजी इस चिंता में डूबे हुए थे कि कहीं घोड़ी का नवजात शिशु आंगन के कुएं में न गिर जाए। पांच वक्त की नमाज के बारे में पूछने पर नानक जी कहते हैं कि “उसकी पहली नमाज सच्चाई है, ईमानदारी की कमाई दूसरी नमाज है, खुदा की बंदगी तीसरी नमाज है, मन को पवित्र रखना उसकी चौथी नमाज है और सारे संसार का भला चाहना उसकी पांचवीं नमाज है । जो ऐसी नमाज पढ़ता है वही सच्चा मुसलमान है।”

नानक की दृष्टि में किसी भी प्रकार की सामर्थ्य शक्ति या क्षमता प्राप्त करके एकांत में जा बैठना और उसका उपयोग समाज हित के लिए न करना कर्तव्य से विमुख होना है अपने दायित्वों से पलायन करना है। गुरु नानक जी ने लगभग 15 वर्षों तक भारत की चारों दिशाओं के प्रमुख स्थानों की यात्रा की ।अंत में अफगानिस्तान, ईरान, इराक और अरब तक गए। इस दौरान उनकी अनुभूति की गहनता और अधिक प्रखर हुई। वे जीवन पर्यंत पांच प्रार्थनाओं सत्य,यथार्थ, ईश्वर के नाम पर दया, सद्विचार तथा ईश्वर की स्थिति और गुणगान के लिए समर्पित रहे। गुरुनानक जी कहते थे कि ऊंच-नीच और भेदभाव की अमानवीय प्रथा को समाप्त करना होगा उन्होंने सदैव इस बात पर बल दिया कि हम सब मिल जुल कर रहें की शिकायत न करें और जरूरतमंदों की हर संभव मदद करें ईमानदारी से परिश्रम कर अपनी आजीविका कमाई मिल बांट कर खाएं और मर्यादा पूर्वक ईश्वर का नाम जपते हुए आत्म नियंत्रण रखें किसी भी तरह के लोग अथवा लालच को त्याग कर परिश्रम और न्याय उचित तरीके से कर्मठता पूर्वक धन कमाए।

उन्होंने सामाजिक सद्भाव और एकता के लिए एक ही धर्मशाला में एकत्रित होकर सामूहिक लंगर ,सामूहिक आराधना और सामुदायिक जीवन के आधार पर छुआछूत और अस्पृश्यता के विरुद्ध व्यापक चेतना जागृत की। वे लंगर में तब तक भोजन नहीं ग्रहण करते थे जब तक भोजन बनाने वाले और आंगन में झाड़ू लगाने वाले उनके साथ पंगत में आकर नहीं बैठ जाते थे। दीन-दुखियों, पीड़ितों, निर्बलों, उपेक्षितों और ठुकराए हुए जनों के उद्धारक नानक ने अछूत लालू की मेहनत की कमाई की रोटी से दूध और मलिक भागो के पकवान से जो झूठ फरेब घूस और बेईमानी से बना था, खून टपका कर कहा कि वह व्यक्ति ऊंचा है जो अपनी मेहनत की कमाई खाता है और उसी में से कुछ गरीबों को दान करता है। उनका विश्वास है कि गुरु कृपा से ईश्वर को अपने अंतस में प्रतिष्ठित करें तभी ईश्वर दर्शन संभव है। यह संसार जो ईश्वर का ही मंदिर है जो गुरु के बिना अंधकारमय है। नानक की दृष्टि में सृष्टिकर्ता एक है परंतु उनके रूप अनेक हैं। वे आदि अनादि मृत्यु और पुनर्जन्म से मुक्त है। स्वयं की कोई इच्छा न रखते हुए ईश्वर की इच्छा के अनुरूप आचरण करना ही उस परम सत्ता को प्राप्त कर लेने का एकमात्र विकल्प है। सुख-दुख में फंसा हुआ इंसान संसार का संपूर्ण वैभव समर्पित करने के बाद भी कोई सुख या आनंद नहीं खरीद सकता क्योंकि सृष्टि के सभी पदार्थों का प्रकटीकरण ईश्वर की इच्छा का ही अस्तित्व है। वह सृष्टि का रचनाकार और संहारक भी हैं। जीवन देने वाला और जीवन लेने वाला भी है। ईश्वर की उदारता असीम, दया करुणा अप्रतिम और आज्ञा अनुपमेय है । उनकी अनुकंपा के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। वे ईश्वरीय प्रतिभा से संपन्न दिव्यात्मा थे जिन्होंने मानव मात्र में ईश्वर का वास माना। उनकी कथनी करनी में अन्तर नहीं था। वह जो कहते थे उसे अपने आचरण में उतारते भी थे। वह सभी धर्मों व समाज के सभी लोगों को समान भाव से देखते थे।

गुरुनानक देव जी ने सदैव इस बात पर बल दिया कि हम सब मिलजुल कर रहें। किसी का अहित न करें और जरूरतमंदों की हर संभव मदद करें। ईमानदारी से परिश्रम कर अपनी आजीविका कमाएं। मिल-बांटकर खाए और मर्यादापूर्वक ईश्वर का नाम जपते हुए आत्मनियंत्रण रखें। किसी भी तरह के लोभ अथवा लालच को त्यागकर परिश्रम और न्यायोचित तरीके से कर्मठतापूर्वक धन कमायें। उन्होंने सही विश्वास, सही आराधना और सही आचरण की शिक्षा दी। हमारे प्रेरणापुंज गुरु नानक जी ने उस निराकार अनंत प्रभु की जय जयकार करते हुए यही प्रार्थना की कि वे भ्रमर की तरह प्रभु के चरण कमलों पर मधु की अभिलाषा से मंडराते रहे। वे प्रभु की महानता का वर्णन करने में असमर्थ है। उनकी दृष्टि में शब्द गुरु और आत्मा शिष्य है । यही जीवन का सौंदर्य है। शब्द के बिना अंधविश्वास और पाखंड नष्ट नहीं होता और न ही अहंकार से मुक्ति मिलती है।

जातीय अहंकार की दूषित मानसिकता के संकीर्ण गलियारों में भटकता हुआ भ्रमित समाज समतामूलक समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता। कहने को तो यह देख संतों महात्माओं, धर्माचार्यो का देश है जहां पेड़, पौधों पशु, पक्षी और यहां तक की पत्थरों की भी पूजा की जाती है किंतु यह कैसा दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास है कि समाज के अंतिम छोर पर खड़े हुए दीन हीन अछूत व्यक्ति को छूने से पवित्रता भ्रष्ट हो जाती है। यह मिथ्या विश्वास किसी भी सभ्य समाज के प्रगतिशील होने का संकेत कैसे हो सकता है? निसंदेह ‘कीरत करो, नाम जपो और वंड छको’ तथा दसवंध का अमूल्य मंत्र एवं पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब हमारे जीवन के उच्च आदर्शों मूल्यों की प्रेरक धरोहर है। उन्होंने अंतिम समय में भाई लेहणा को कठिन परीक्षा के बाद बिना किसी भेदभाव, पूर्वाग्रह के योग्यता के आधार पर गुरु पद प्रदान कर एक स्वस्थ परंपरा का शुभारंभ किया। आज हम मंदिरों में उन मूर्तियों का ध्यान कर रहे हैं जिन्हें हमने ही बनाया है किंतु उनका ध्यान कब करेंगे जिसने हमें बनाया है। निसंदेह ईश्वर सर्वज्ञ, शाश्वत, सत्य है जो सृष्टि से पहले भी था। आज भी है और प्रलय के बाद भी रहेगा।

डॉ. अशोक कुमार भार्गव

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