spot_imgspot_imgspot_imgspot_img
Homeअन्यसंपादकीयखलनायक नहीं हैं उद्योगपति, संपत्ति सृजनकर्ताओं का सम्मान जरूरी

खलनायक नहीं हैं उद्योगपति, संपत्ति सृजनकर्ताओं का सम्मान जरूरी

टाटा परिवार भारत के सबसे सम्मानित और प्रभावशाली परिवारों में से एक है, जो अपने मजबूत नैतिक मूल्यों और असाधारण योगदानों के लिए जाना जाता है। संपत्ति का सृजन करना राष्ट्र की सबसे बड़ी सेवा है, यह रतन टाटा ने और उसके पूर्व भी टाटा समूह ने सिद्ध किया है। टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा ने देश को उद्योग और शिक्षा के माध्यम से बेहतर बनाने का सपना देखा। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी विरासत में भारतीय विज्ञान संस्थान और टाटा स्टील जैसी प्रमुख संस्थाएं शामिल हैं। टाटा के वारिसों ने उनके कार्यों को आगे बढ़ाते हुए न सिर्फ समूह का विस्तार किया बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अन्य अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना की, जिसने देश के विकास में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोरोनावायरस महमारी से निपटने के लिए टाटा ग्रुप ने 1,500 करोड़ रुपए दिए थे। टाटा सन्स ने 1,000 करोड़ रुपए का अलग से योगदान दिया था।

रतन नवल टाटा की मृत्यु के पश्चात जिस प्रकार से पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई और लोगों की प्रतिक्रिया आई, वह एक औद्योगिक समूह और समर्पित उद्योगपति के प्रति लोगों के स्नेह, समूह की विश्वसनीयता और उसके देशव्यापी ब्रांड वैल्यू को दर्शाती है। टाटा ग्रुप भारत का सबसे मूल्यवान ब्रांड, जिसकी ब्रांड वैल्यू 28.6 अरब डॉलर की है, ऐसे ही नहीं है। उद्योग जगत में अतुलनीय योगदान के लिए रतन टाटा को भारत सरकार पद्मभूषण और पद्मविभूषण से सम्मानित कर चुकी है। रतन टाटा ने टाटा ग्रुप की 65 प्रतिशत कमाई शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और ग्रामीण विकास के लिए काम करने वाले टाटा ट्रस्ट को दिया है। उन्होंने केवल 09 वर्षों में लगभग 36 कंपनियों का अधिग्रहण किया, जिससे कि वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़े, भारत की ब्रांड वैल्यू बढ़े और विदेशी निवेशक भारत में निवेश करने के लिए आकर्षित हों।

टाटा ग्लोबल बेवरेज के नाम से पहचान रखने वाली टाटा टी ने वर्ष 2000 में टेटली समूह का अधिग्रहण किया। टेटली समूह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक व वितरक समूह है। टेटली ब्रिटेन की सबसे बड़ी चाय कंपनी है। वर्ष 2004 में टाटा मोटर्स की लिस्टिंग न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में हुई। इसी वर्ष कंपनी ने डेबू मोटर्स की हैवी व्हेकिल्स यूनिट का अधिग्रहण भी किया। वर्ष 2007 में टाटा स्टील ने एंग्लो-डच कंपनी कोरस का अधिग्रहण किया। यह यूरोप की दूसरी सबसे बड़ी स्टील उत्पादक कंपनी है।

पूरे कॉर्पोरेट जगत में उनकी आलोचना हो रही थी, तब भी उन्होंने कोरस को खरीदा। वर्ष 2008 में ही टाटा मोटर्स ने फोर्ड की जगुआर-लैंडरोवर का अधिग्रहण किया। इसके बाद जगुआर लैंडरोवर नाम से नई कंपनी बनाई गई। वर्ष 2012 में टाटा ग्लोबल बेवरेज और स्टारबक्स ने संयुक्त उपक्रम के तहत टाटा स्टारबक्स लिमिटेड की शुरुआत की। रतन टाटा ने आम लोगों के लिए लखटकिया कार बनाई। भारत का अपना एक देशी ब्राण्ड हो, इसके लिए टाटा इंडिका को आगे बढ़ाने में जी जान लगा दिया।

देश में स्टार्टअप्स को प्रोत्साहित करने में रतन टाटा का बड़ा योगदान रहा है। रतन टाटा ने लगभग 50 घरेलू और विदेशी स्टार्टअप्स में निवेश किया। इनमें पेटीएम, ओला इलेक्ट्रिक, लेंसकार्ट और ब्लू स्टोन जैसे स्टार्टअप्स बहुत बड़ा रूप ले चुके हैं। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पश्चात सरकारी कंपनियों के साथ-साथ निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी, जिसका लाभ स्पष्ट रूप से उपभोक्ताओं को मिला-नई वस्तुएं और सेवाएं, उनकी गुणवत्ता में सुधार, ढेर सारे ब्रांड! कीमत में प्रतिस्पर्धा के चलते कंपनियों ने अपनी लागत में कमी करने के लिए भी प्रयास किया।

जो कंपनियां इन बदली हुई परिस्थितियों में अपने को नहीं बदल सकीं, वे बाजार से बाहर हो गईं। ऐसे ही समय में टाटा समूह का उत्तराधिकार रतन टाटा ने ग्रहण किया था और संरक्षण के चलते टाटा समूह की भी कंपनियां की स्थिति काफी हद तक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की तरह निष्क्रियता की शिकार हो चुकी थी, लेकिन अपने प्रयासों से रतन टाटा ने अपनी कंपनियों की कार्य कुशलता को बढ़ाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुधार किये। टाटा समूह की कार्य पद्धति के विपरीत जाकर कर्मचारियों की छंटनी भी की, युवा प्रतिभाओं की भर्ती की और प्लांट तथा मशीनरी का नवीनीकरण भी किया, लेकिन रतन टाटा ने टाटा समूह के कार्य पद्धति के अनुरूप अपने कर्मचारियों के कल्याण संबंधी कार्य में कोई कमी नहीं की, अपने उत्पादों की गुणवत्ता और विश्वसनीयता से किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया।

भारतीय उद्योग जगत को वैश्विक स्तर पर दिलाई पहचान

टाटा समूह के अध्यक्ष के रूप में रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा समूह का कुल राजस्व 46 गुना बढ़कर 4.75 लाख करोड़ और लाभ 50 गुना बढ़कर 33,500 करोड रुपए तक पहुंच गया। कंपनियों के लाभ के बढ़ने से ही वे आगे निवेश कर पाने और कम्पनी का विस्तार करने में सक्षम हो पाती हैं और रतन टाटा ने इसका इस्तेमाल टाटा को वैश्विक स्तर पर एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी बनाने और इस प्रकार से भारत का सिक्का पूरे विश्व में जमाने के लिए इस्तेमाल किया।

रतन टाटा सिर्फ अपने समूह को संकट काल की स्थिति से सफलतापूर्वक बाहर निकालने और टाटा को वैश्विक विस्तार देने के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय उद्योग जगत को वैश्विक पहचान दिलाने के लिए याद किए जाएंगे। यह ऐसे देश में जहां दशकों तक समाजवाद का राग अलापा जाता रहा, राज्य और सरकार को ही सामाजिक न्याय के ध्वजवाहक के रूप में देखा जाता रहा हो, जहां पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को सम्मान की दृष्टि से प्रायः नहीं देखा जाता रहा है, उन्हें जनता के पैसे का लुटेरा माना जाता है, रतन टाटा की एक यह बहुत बड़ी उपलब्धि है कि उन्होंने भारतीय समाज में पूंजी, उद्यम और धन के सृजन को स्वीकार्यता और सम्मान दिलाने का कार्य किया है।

इस गड़बड़ सोच से बाहर निकालने की आवश्यकता है कि लाभ एक गलत और गंदा शब्द है और उद्योगपति गरीब जनता को लूट कर लाभ कमाते हैं तथा सम्पति का सृजन और वृद्धि गलत है। अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए धन सृजन और पूंजी निर्माण में निजी क्षेत्र की भूमिका के महत्व को समझना बहुत आवश्यक है। सामान्य तौर पर हम घर के दरवाजे पर लिखते हैं ‘शुभ लाभ’ अर्थात अच्छे कार्य के द्वारा सृजित लाभ। रतन टाटा इसीलिए आज पूरे देश में आदरणीय हैं, क्योंकि उन्होंने शुभ लाभ की भावना से कार्य किया और अपने उद्योग का विस्तार किया, देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चाणक्य का कहना है, धन का मूल आर्थिक गतिविधि है और इसका अभाव भौतिक संकट लाता है। फलदायी आर्थिक गतिविधि के अभाव में वर्तमान समृद्धि और भविष्य की संवृद्धि दोनों ही नष्ट होने का खतरा है।

एक राजा उत्पादक आर्थिक गतिविधि करके वांछित उद्देश्यों और धन की प्रचुरता को प्राप्त कर सकता है। कौटिल्य आर्थिक स्वतंत्रता की वकालत करते हुए राजा से आर्थिक गतिविधि में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करने के लिए कहते हैं। निजी क्षेत्र का विकास औद्योगिक क्षेत्रों, संयंत्रों और रोजगार केंद्रों को विकसित करने में मदद करता है, वे अपने आस-पास के क्षेत्रों को भी विकसित करते हैं। 2017 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में नौकरियां प्रदान करने में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत से अधिक थी, जबकि इसने घरेलू पूंजी निर्माण में 75 प्रतिशत से अधिक का योगदान दिया। वे सकल घरेलू उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय, बुनियादी ढांचे और जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।

यह क्षेत्र प्रतिस्पर्धात्मक रूप से कम लागत पर आवश्यक वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध कराने का प्रयास करता है। तीव्र प्रतिस्पर्धा के कारण कंपनियां नई तकनीकें विकसित करने और संसाधनों की बर्बादी को कम करने के तरीके अपनाने पर मजबूर हैं। साथ ही, ग्राहकों को बेहतर तरीके से संतुष्ट करने के लिए कंपनियां ऐसे नए उत्पाद और सेवाएं बनाती हैं, जिनसे जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। इंफोसिस की शुरुआत 80 के दशक के अंत में छह लोगों ने की थी। आज, इसमें लाखों लोग काम करते हैं। यह एक ऐसी फर्म है, जिसने वास्तव में बहुत अधिक संपत्ति बनाई है। स्विगी, जोमैटो, फ्लिपकार्ट आदि जैसे नए जमाने के अनेक स्टार्टअप्स हैं, जो लोगों को रोजगार दे रहे हैं।

स्वतंत्रता के बाद समाजवाद की तरफ झुकाव ने न सिर्फ निजी क्षेत्र के लिए अनेक अवरोध और गैर प्रोत्साहन की नीति अपनाई बल्कि जनता के मन-मस्तिष्क में भी भर दिया कि सरकार ही सिर्फ माई बाप है, वही रोटी, कपड़ा और मकान देगी, वही रोजगार देगी। 1991 के पश्चात निजी क्षेत्र ने भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इससे न सिर्फ पूंजी व रोजगार का सृजन हुआ है, आर्थिक विकास तीव्र गति से हुआ और सरकार के कर राजस्व में वृद्धि हुई है। सरकार के पास सामाजिक कल्याण के लिए अधिक संसाधन उपलब्ध हो सके हैं।

आर्थिक प्रगति को गति देने में धन सृजनकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर अब विस्तार से चर्चा हो रही है। वस्तुतः धन सृजनकर्ता एक संपन्न अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। 1991 के बाद जिन क्षेत्रों को उदारीकृत किया गया, उन क्षेत्रों में, जिन्हें उदारीकृत नहीं किया गया, उससे अधिक तेजी से वृद्धि हुई है। आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय में तेजी से वृद्धि हुई है, साथ ही स्टॉक मार्केट में धन सृजन में भी महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। एक उद्यम द्वारा धन सृजित करने का लाभ उसके उद्यम में कार्य करने वाले कर्मचारियों को मिलेगा, उसकी कंपनी में कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले उद्यमी या फर्म को होगा, उसके द्वारा पूंजी व्यय में वृद्धि के कारण पूंजीगत मशीन बनाने वाली फर्म और उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों को मिलेगा।

उस उद्यमी या फर्म द्वारा कमाए गए विदेशी विनिमय का देश के समस्त आर्थिक स्थिरता में महत्वपूर्ण योगदान होता है, विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है, व्यापार घाटे में कमी लाने में भी इससे सहायता मिलती है। एक उद्यमी द्वारा सम्पत्ति सृजन से देश के आम व्यक्तियों को भी लाभ मिलता है। उद्यमियों के धन सृजन के कारण सरकार की प्रत्यक्ष कर व अप्रत्यक्ष कर प्राप्तियों, दोनों में वृद्धि होती है, जिसका लाभ अंतत: समाज को होता है। सरकार सार्वजनिक वस्तुओं के सृजन में अधिक व्यय कर पाती है, सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर अधिक व्यय करने में सक्षम हो पाती है।

सरकारी हस्तेक्षप कम हो, उसकी गुणवत्ता सुधरे

एक औद्योगिक समूह या उद्यमियों को गलत रास्ता चुनने के लिए राजनेता और सरकारी नौकरशाही बाध्य करते हैं। समाजवादी युग में नौकरशाहों और राजनेताओं को राष्ट्रीय संसाधनों के मध्यस्थ के रूप में जो शक्ति प्राप्त थी, उसे देखते हुए, व्यवसाय करने के लिए अक्सर सत्ता में बैठे मालिकों को खुश रखना आवश्यक था। इससे व्यवसायियों के लिए सरकारी सम्पर्क विकसित करने और उन्हें पोषित करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई। इस तरह के मानदंडों ने भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया, जिसके कारण धन सृजन को अक्सर अनैतिक होने के संदेह के साथ देखा जाने लगा।

पंचवर्षीय योजनाओं में पूंजीगत माल के उत्पादन को उच्चतम प्राथमिकता दिए जाने के बावजूद, पूंजीगत माल, अन्य अभियांत्रिकी उद्योगों, परिवहन के उपकरणों आदि के धातु आधारित क्षेत्रों के बड़े हिस्से को बहुत कम या नकारात्मक संरक्षण मिला, जबकि रसायन आधारित उद्योगों को बहुत अधिक संरक्षण मिला। इसके कारण 1980 के बाद पेट्रो रसायन जैसे पूंजी प्रधान उद्योगों की समृद्धि अच्छी रही, यही नहीं अभियांत्रिकी उद्योगों जैसे श्रम प्रधान उद्योगों की समृद्धि कम रही। इसका लाभ रिलायंस इंडस्ट्री जैसे उद्योगों को खूब मिला। ऐसा रास्ता 90 के दशक में गौतम अडानी ने भी अपनाया। सभी रतन टाटा होकर अपने उद्योग का विस्तार नहीं कर सकते।

एक इंटरव्यू में रतन टाटा ने बताया था कि एक उद्योगपति ने उन्हें सलाह दी थी कि वह एक मंत्री को 15 करोड़ रुपये दे दें। उसने कहा, ‘आप एयरलाइन चाहते हैं, तो 15 करोड़ रुपये दे दें, इससे बिजनेस डील फाइनल हो जाएगी।‘ परन्तु रतन टाटा ने हमेशा ही नैतिक मूल्यों को जिंदगी में सबसे ऊपर रखा। उनके लिए देश और समाज की भलाई ही सबसे जरूरी थी। आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के नाम पर स्वतंत्रता के बाद की सरकारों ने आर्थिक अधिशेष का एक बड़ा हिस्सा हथिया लिया और उसका निवेश नौकरशाही द्वारा निर्देशित आर्थिक गतिविधियों में किया।

राजनेताओं और शासन तंत्र को गरीबी दूर करने के साथ-साथ राज्य के हस्तक्षेप के द्वारा अर्थव्यवस्था के औद्योगीकरण और विकास का एक अपरिहार्य साधन माना गया, लेकिन नेताओं और नौकरशाहों की केंद्रीकृत होती शक्ति ने अपनी राजनीतिक और आर्थिक हित के अनुरूप कार्य किया और ना तो गरीबी दूर कर पाए और न ही आर्थिक विकास को त्वरित कर पाए।

यह भी पढ़ेंः-सुसंस्कारी बच्चे बनेंगे भारत को विश्वगुरु बनाने की आधारशिला

चाणक्य से लेकर एडम स्मिथ तक ने यह माना है कि निजी क्षेत्र को उत्पादन कार्य के लिए छूट देनी चाहिए। निजी उद्यम सार्वजनिक उद्यम से ज्यादा कुशल होंगे। नौकरशाहों द्वारा संचालित किसी भी व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक सामान्य घटना है। निजी क्षेत्र निश्चित ही अपने लाभ को बढ़ाने और अपने उद्यम का विस्तार करने के लिए ज्यादा कुशलतापूर्वक संसाधनों का प्रयोग करेगा। राज्य का कार्य निजी क्षेत्र के उद्योगों के लिए आवश्यक सुविधाएं, वातावरण और प्रोत्साहन उपलब्ध कराना है।

राज्य अपने हस्तक्षेप की गुणवत्ता सुधारे तथा विनियमन और नियंत्रण की व्यवस्था को प्रभावी बनाये। आर्थिक मामलों में अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप से धन सृजन और नवाचार के प्राकृतिक तंत्र को नुकसान होने की संभावना रहती है। मुक्त बाजार, प्रतिस्पर्धा और उद्यमशीलता के लिए अनुकूल वातावरण को बढ़ावा देकर आर्थिक विकास और समृद्धि को आगे बढ़ाने में व्यक्तियों और व्यवसायों की रचनात्मक ऊर्जा को मुक्त करने के महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है।

डॉ उमेश प्रताप सिंह

(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक और ट्विटर पर फॉलो करें व हमारे यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें)

सम्बंधित खबरें
- Advertisment -spot_imgspot_img

सम्बंधित खबरें