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आजादी के दीवाने : 14 साल की सुनीति ने दफ्तर में घुसकर अंग्रेज अफसर को मारी थी गोली

कोलकाता: देशभर में आजादी का राष्ट्रीय पर्व मनाने की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। इस बार देश आजादी की प्लेटिनम जुबली (75वां स्वतंत्रता दिवस) मनाने जा रहा है। स्वतंत्रता दिवस की आहट होते ही वीर और वीरांगनाओं की कहानियां भी याद आने लगी हैं, जिन्होंने आजादी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था। ऐसी ही एक वीरांगना थीं 14 साल की सुनीति चौधरी। सुनीति चौधरी ने इतनी कम उम्र में ही उन्होंने कोलकाता में अंग्रेज मजिस्ट्रेट के दफ्तर में घुसकर उसके सीने पर गोली मार दी थी। जेल की सजा काटने के बाद वे आजाद भारत में मशहूर डॉक्टर भी बनीं। वे भारत की सबसे कम उम्र की क्रांतिकारी थीं। सुनीति चौधरी का जन्म अविभाजित बंगाल के कोमिला सब-डिविजन में एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में 22 मई, 1917 को हुआ था। साल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने ज़ोरों पर था। आंदोलनकारियों पर पुलिस की क्रूरता को देख कर सुनीति के मन में उनसे बदला लेने की भावना प्रबल होती जा रही थी।

सुभाष चंद्र बोस ने चुना था आजादी की लड़ाई के लिए

सुनीति आंदोलनात्मक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने लगीं। वे डिस्ट्रिक्ट वॉलन्टियर कॉर्पस की मेजर बनीं। जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने विद्यार्थी संगठन को संबोधित करने के लिए शहर का दौरा किया, तब सुनीति लड़कियों की परेड का नेतृत्व कर रही थीं। आजादी की लड़ाई में लड़कियों को लड़कों के बराबर ज़िम्मेदारी दिए जाने की मांग प्रफुल्ल नलिनी, शांतिसुधा घोष और सुनीति चौधरी ने ही उठाई थी। कुछ वरिष्ठ नेताओं के संदेह जताने पर सुनीति ने इसका विरोध करते हुए कहा, “हमारे खंजर और लाठी के खेल का क्या मतलब, अगर हमें वास्तविक लड़ाई में भाग लेने का मौका ही नहीं मिले?”

कम उम्र की वजह से रिवाल्वर के ट्रिगर तक नहीं पहुंचती थी उंगली

उनकी असल चुनौती लक्ष्य को भेदना नहीं, बल्कि रिवॉल्वर के बैक किक को संभालना भी था। सुनीति की अंगुली ट्रिगर तक पहुंच नहीं पाती थी, पर वह हार मानने को तैयार नहीं थीं। ये बेल्जियन रिवॉल्वर से शॉट मारने के लिए अपनी मध्यमा उंगली का इस्तेमाल करने लगीं। इनका निशाना ज़िला मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवन था, जो सत्याग्रह को दबाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था। 14 दिसंबर, 1931 को सुबह 10 बजे ज़िला मजिस्ट्रेट के बंगले के बाहर एक गाड़ी आकर रुकी। दो किशोरियां उसमें से हंसते हुए उतरीं। दोनों ने शायद ठंड से बचने के लिए रेशमी कपड़े को साड़ी के ऊपर से ओढ़ रखा था। उनके गलियारे तक पहुंचने के पहले ही गाड़ीवाला पूरी रफ्तार से वहां से निकल गया। इन लड़कियों ने मिलने के स्लिप भेजा। स्लिप पर दोनों ने इला सेन और मीरा देवी नाम लिखा था। इला ने अपनी पहचान एक पुलिस अफसर की बेटी के रूप में कराई, ताकि ‘मैजेस्टी’ की सहानुभूति उसे मिल जाए।लड़कियां स्वीकृति के लिए अधीर हो रही थीं। इसके लिए उन्होंने स्टीवन से उस पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया। वह अपने चेंबर में गया और जल्दी ही हस्ताक्षर किए कागज़ ले कर लौट आया। इसके बाद उसका घर गोलियों की आवाज़ से गूंज उठा। इस क्रूर मैजिस्ट्रेट ने अपनी आंखें बंद होने के पहले देखा कि ये वहीं दो लड़कियां थीं, जिन्होंने अब रेशमी कपड़ा उतार दिया था और उसके सीने पर पिस्तौल ताने खड़ी थीं। इसके बाद दोनों लड़कियों शांति और सुनीति को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने उन्हें हर तरह की यातनाएं दीं लेकिन दोनों ने अपने गुप्त संगठन के बारे में एक शब्द नहीं बोला।

न्यायालय में जज को भी सिखाया था सबक

जब अदालत में मुकदमा शुरू हुआ तो उन्हें देखकर सब हतप्रभ रह गए। वे मुस्कुरा रही थीं। जब उन्हें बैठने के लिए कुर्सी देने से इनकार किया गया तो वे जज और कोर्ट के अन्य सदस्यों की ओर पीठ करके खड़ी हो गईं। उन्होंने किसी भी ऐसे इंसान को सम्मान देने से मना कर दिया, जो शिष्टाचार के सामान्य नियमों का भी पालन नहीं कर सकता था। जब स्टीवन के एसडीओ सेन गवाह के रूप में कोर्ट में आए और बनावटी कहानी गढ़ने लगे, तब इन्होंने इतनी ज़ोर से ‘बड़ा झूठा! बड़ा झूठा!’ बोलना शुरू कर दिया कि पूरे कोर्ट रूम में हलचल मच गई। दोनों के मन में कोर्ट को लेकर कोई भय नहीं था। दोनों पुलिस वैन से कोर्ट रूम तक जाते समय और फिर वापसी में देशभक्ति की गीत गातीं और उन लोगों को देख कर मुस्कुराती थीं। कोर्ट ने दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गई थी। इस पर दोनों दुखी हुईं कि इन्हें शहीद होने से रोक लिया गया था। दोनों ने चिल्ला कर कहा था कि – “फांसी मिलनी चाहिए थी! फांसी इससे कई गुना बेहतर होती!” शांति को जेल में दूसरी श्रेणी के अन्य क्रांतिकारियों के साथ रखा गया, जबकि सुनीति को तीसरी श्रेणी में भेज दिया गया, जहां चोर और जेबकतरों को रखा जाता था। वह पुलिस द्वारा अपने माता-पिता पर हो रहे अत्याचारों और अपने बड़े भाई की गिरफ्तारी की खबर को सुनकर भी रोज़मर्रा के काम में व्यस्त रहतीं। अपने छोटे भाई की भूख और बीमारी से मरने की खबर भी सुनीति को तोड़ नहीं पाई। यह यातना आखिरकार छह दिसंबर,1939 को आम माफ़ी की वार्ता के बाद इनको रिहा कर दिया गया था। तब तक सुनीति 22 वर्ष की हो चुकी थीं। क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त रहने के कारण उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं ली थी।

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जेल से छूटने के बाद शुरू की थी पढ़ाई

जेल से छूटने के बाद सुनीति ने पूरे ज़ोर-शोर से पढ़ाई शुरू कर दी और आशुतोष कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स (आई. एससी) प्रथम श्रेणी से पास किया। साल 1944 में इन्होंने मेडिसिन एंड सर्जरी में डिग्री के लिए कैम्पबेल मेडिकल स्कूल में दाखिला लिया। एमबी (आधुनिक एमबीबीएस) करने के बाद इन्होंने आंदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता और भूतपूर्व राजनैतिक कैदी प्रद्योत कुमार घोष से शादी कर ली। सुनीति का दयालु और समर्पण भरा स्वभाव उनके डॉक्टरी के पेशे से मेल खाता था। जल्द ही वे चंदननगर की एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बन गईं। लोग उन्हे प्यार से ‘लेडी मां’ बुलाने लगे।1951-52 के आम चुनावों में डॉ. सुनीति घोष को कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने की पेशकश की गई। राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के कारण इन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

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