बदल रही है मासूमों की दुनिया

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बचपन इंसानी जिंदगी का ऐसा सबसे खुशनुमा पड़ाव होता है, जिसकी मधुर स्मृतियां व्यक्ति कभी भी नहीं भूलता। बालपन का आकर्षण ही कुछ ऐसा निराला होता है कि इस वय का आनंद उठाने के लिए भगवान भी धराधाम पर अवतरित होने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। कन्हैया की बाल लीलाओं का वर्णन आज भी हमें मंत्रमुग्ध कर देता है। हम कितने ही क्रोध, उदासी या तनाव में हों, मासूम बच्चों (Innocents) की अल्हड़ अठखेलियां सहज ही हमारे चेहरों पर मुस्कान ले आती हैं। नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलखिलाती हंसी, भोली निश्छल शरारतें, छोटी-छोटी बातों पर रूठना-मनाना और जिद पर अड़ जाना, बचपन की इन सुनहरी यादों से हममें से शायद ही कोई अछूता हो।

बचपन का नाम जेहन में आते ही आँखों के आगे उम्र का वह भोला व मासूम दौर स्वतः ही तैर आता है, जिसमें बगैर किसी चिंता व तनाव के हम अपनी ही मस्ती में डूबे रहते थे। सचमुच कुछ दशक पूर्व तक ऐसा ही था हम सबका बचपन, पर अत्याधुनिकता की चकाचौंध में आज उस बचपन को ग्रहण लगता जा रहा है, जिसमें लुभाने वाली मासूमियत व भोलापन बसा होता था। चिंता का विषय है कि आज बचपन के खेल खिलौने ही नहीं, खान-पान भी तेजी से बदलता जा रहा है।

हाँ ! इस बात से कोई इनकार नहीं है कि वक्त के साथ दुनिया बदलती ही है क्यूंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है इसीलिए विकास के साथ जीवन के प्रति हमारी प्राथमिकताएं, सोच, रहन-सहन और आदतें भी बदल जाती हैं लेकिन इन बदली हुई प्राथमिकताओं में कई बार हम उन आदतों व चीजों से अनजाने ही दूर होते जाते हैं, जो कभी हमारी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं, मसलन वे खेल-खिलौने जिनके साथ हम बड़े हुए हैं।

कहना गलत न होगा कि आज के बच्चों का बचपन और उनके खेल-खिलौने वक्त के साथ पूरी तरह बदल चुके हैं। वे खेल, जिन्हें खेलकर हम और हमारी कई पीढ़ियां बड़ी हुई हैं, अब गुजरे जमाने की बात प्रतीत होती है। जरा याद कीजिए! हमारे बचपन के वो भी क्या दिन थे, जब स्कूल से घर आते ही बस्ता पटक कर हम सीधे खेलने के लिए भाग जाते थे। मम्मी बोलती रहती थी कि पहले खाना तो खा लो लेकिन तब खेल के आगे हमें न भूख लगती थी, न प्यास। आज के ये बच्चे बारिश के पानी में कागज की नाव चलाने और कागज के हेलीकॉप्टर उड़ाने का मजा भला क्या जानें!

हमारे जमाने में कागज की नाव बनाकर नालियों में तैराकी की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं। पड़ोसियों के बगीचे से आम और अमरूद चुरा कर खाने का अपना एक अलग ही मजा था। पकड़े जाने पर डांट भी खूब पड़ती थी, पर उन शरारतों, खेल-कूद और मौज-मस्ती में न कल की फिक्र होती थी न आज की चिंता लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। दिन-दिन भर की धमाचैकड़ी, तरह तरह के खेलों में छोटी-छोटी तकरारें, रूठना-मनाना अब यह सब गायब सा हो चुका है।

आधुनिक डिजिटल युग के इन बच्चों से छुपन-छुपाई, आंख-मिचैली, लंगड़ी टांग, ऊंच-नीच, पोसंपा, कोड़ा जा मार खाई, पिट्ठू खेल, विष-अमृत, सिकड़ी, गिल्ली-डंडा, खो-खो, कबड्डी, गुट्टक, कौड़ी या कंचे खेलना, म्यूजिकल चेयर, लूडो, सांप सीढ़ी, और कैरम जैसे पुरानी पीढ़ी के तमाम खेलों के बारे में पूछना और बात करना ही बेमानी है। वह भी क्या समय था, जब बच्चों को गर्मी की छुट्टी का बेसब्री से इंतजार रहता था। गर्मी की छुट्टी शुरू होने के पहले से हम बच्चे नाना-नानी या दादा-दादी के पास गांव जाने के लिए उतावले रहते थे।

गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही हम बच्चे विभिन्न प्रकार के खेलों का सुबह से रात तक आनंद लेते थे, लेकिन टेक्नोलॉजी के युग में बचपन अब खोता जा रहा है। शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में भी बच्चे इनसे दूर होते जा रहे हैं। आधुनिक युग में बच्चे टीवी गेम, कार्टून तथा मोबाइल में व्यस्त हो गए हैं। समय की तेज धारा ने बच्चों को भी एक-दूसरे से अलग-थलग कर अपने-अपने आंगन तक बांध कर दिया है। सैटेलाइट चैनलों ने बचपन की तस्वीर ही बदल दी है। उम्र से जुड़ी चंचलता, बाल सुलभ शरारतें सहजता और अल्हड़पन अब कहां है, बचपन की पूरी तस्वीर ही बदल गई है।

खेद का विषय है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने आज के बच्चों से सतरंगी बचपन छीन सा लिया है। बीते बचपन के उन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते तक नहीं। मोबाइल और कम्प्यूटर पर फ्री फायर, पबजी, मोर्टल कॉम्बैट, सबवे सर्फ और टैंपल रन जैसे इंटरनेट खेलों ने इन खेलों से बच्चों को दूर कर दिया है।

रामायण, महाभारत और परियों की कहानियां हुईं दूर

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आज की आपाधापी और भाग-दौड़ भरी जिंदगी में बच्चों का बचपन गुम हो गया है। अब बच्चों को रामायण, महाभारत और परियों की कहानियां कोई नहीं सुनाता। मेले में बच्चे अब खिलौनों के लिए हठ भी नहीं करते। उनमें वो पहले जैसा चंचलपन और अल्हड़पन भी नहीं रह गया। इस सबमें उनके परिवेश व माता-पिता का बहुत ज्यादा कसूर है। उनके पास अपने बच्चों के लिए समय ही नहीं है। वे बच्चों को वीडियो गेम थमा देते हैं और बच्चा घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया को कभी समझ ही नहीं पाता। वह अपने में ही दुबक कर रह जाता है। अभिभावक अपनी इच्छाओं के बोझ तले उनके बचपन को दबाने को लालायित हैं।

अपने बचपन के दिनों को तो याद कर वे जरूर फिल्म ‘दूर की आवाज’ का ये गाना गुनगुनाते होंगे- ‘हम भी अगर बच्चे होते, नाम हमारा होता गपलू, पपलू, खाने को मिलते लड्डू।’ आज के बच्चे केवल अपने घरों में कैद होकर रह गए हैं। वे दिन भर मोबाइल, टीवी, वीडियो गेम आदि पर व्यस्त रहते हैं। एक वर्चुअल दुनिया में सिमट कर रह गए हैं। आज बच्चों की किलकारियां और उनकी शरारतों की आवाजें सुनने को नहीं मिलतीं। अब बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे हैं क्योंकि उन्हें मोबाइल, टीवी आदि के माध्यम से वह सारी जानकारी प्राप्त हो जा रही है, जो बड़ों को मिलनी चाहिए। यह समाज के लिए एक चिंताजनक स्थिति है।

आज का बचपन पढ़ाई के बोझ तले गुम हो गया है। छोटी सी उम्र में ही इन बच्चों को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है, जिसके चलते उन्हें स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करना होता है। बेहतरी व प्रतिस्पर्धा की इस कश्मकश में बच्चों का बचपन कहीं खोता जा रहा है। क्या कभी हम सबने इस बात पर गहराई से सोचा है कि मुस्कुराहट के बजाय आज के नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव क्यों छाया रहता है ? छोटी-छोटी उम्र में बच्चे आज कंधों पर भारी बस्ता टांगे बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं।

छोटी सी उम्र में ही इन नन्हें बच्चों को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में धकेल दिया जाता है। आजकल होने वाले रियलिटी शो भी बच्चों के कोमल मन में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ा रहे हैं। नन्हें बच्चे जिन पर पहले से ही पढाई का तनाव रहता है, ऊपर से कॉम्पीटिशन में जीत का दबाव इन बच्चों को कम उम्र में ही बड़ा व गंभीर बना देता है। उन्हें अपने बचपन का हर साथी अपना प्रतिस्पर्धी नजर आने लगता है। इस प्रतिस्पर्धा की कश्मकश में बच्चों का बचपन कहीं खो सा जाता है।

आज अधिकतर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर डॉक्टर, इंजीनियर या बड़ा अफसर बने। वे अब तक उस अवधारणा को ही अपनाए हुए हैं कि ‘खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब’, जिसके चलते हर पल प्रतिस्पर्धा के माहौल में आज बच्चों पर बस्ते का बोझ बढ़ता जा रहा है। हालांकि, पढ़ाई-लिखाई भी जीवन में जरूरी है और उसकी महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बचपन भी कहां दोबारा लौट कर आने वाला है।

ऐसे में अभिभावकों का भी दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को इस अवस्था का भरपूर लाभ उठाने दें। पढ़ाई-लिखाई अपनी जगह है, आज के दौर में उसकी अहमियत को नजरंदाज नहीं किया जा सकता, परंतु बचपन भी दोबारा लौटकर नहीं आता, इसलिए इस उम्र में तो हमें चाहिए कि हम उन्हें बचपन का पूरा लुत्फ उठाने दें।

‘इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर’ का शिकार हो रहे बच्चे

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एक क्लास में टीचर ने बच्चों से पूछा- जीवन क्या है ? एक बच्चे ने छोटा सा लेकिन बहुत चौंकाने वाला जवाब दिया। बच्चे ने कहा कि मोबाइल फोन के साथ बिताया गया समय ही असली जीवन है। सोशल मीडिया पर वायरल यह मैसेज बच्चों के जीवन में इस उपकरण की गहराती पकड़ का बेहद सटीक उदाहरण माना जा सकता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की मानें तो हर वक्त स्मार्टफोन से चिपके रहने की वजह से तनाव, बेचैनी व अवसाद की समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।

इससे न केवल आंखों व मन-मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, बल्कि कई अन्य गंभीर बीमारियां भी जन्म ले रही हैं। मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल में मेंटल हेल्थ व विहैवियरल साइंस विभाग के प्रमुख डॉ. समीर मल्होत्रा की मानें तो आजकल के इंटरनेट लविंग बच्चों का डेटा के जंगल में गुम होता बचपन बेहद चिंताजनक है। डॉ. मल्होत्रा के मुताबिक, आज के बच्चे तकनीक के प्रभाव से इस कदर प्रभावित हैं कि एक पल भी वे स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते।

इंटरनेट की यह बढ़ती लत बच्चों में अनेक शारीरिक और मानसिक विकारों का कारण बन रही है। इंटरनेट के आदी बच्चे धीरे-धीरे अपनी पढ़ाई और सामाजिक हकीकत से दूर होकर आभासी दुनिया के तिलिस्मी संसार में रमते जा रहे हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि दिन भर वीडियो गेम से चिपके रहने वाले बच्चों में सामान्य बच्चों की अपेक्षा चिड़चिड़ापन व गुस्सैल प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। यह आदत बच्चों को एकाकीपन की ओर ले जाती है और एक समय के बाद वे अवसाद से घिर जाते हैं।

वैज्ञानिक भाषा में इसे ‘इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर’ कहा जाता है। डॉ. मल्होत्रा का कहना है कि उनके पास कई अभिभावक अपने बच्चों को इलाज के लिए लेकर आते हैं। इनमें से कई बच्चे तो पूरी तरह वर्चुअल दुनिया में खोए रहते हैं। एक बच्चा तो ऐसा था कि उसे मोबाइल इस्तेमाल करने के चक्कर में यह भी पता नहीं चल पाता था कि उसने पैंट में ही पॉटी कर दी है।

माता-पिता भी शुरुआत में बच्चों के इस असामान्य व्यवहार को नोटिस नहीं कर पाते, लेकिन जब हालात बदतर हो जाते हैं, तब उन्हें लगता है कि कुछ गड़बड़ है और फिर बच्चे को लेकर चिकित्सक या काउंसलर के पास पहुंचते हैं। महानगरों में यह मानसिक बीमारी इस कदर बढ़ चुकी है कि कई बच्चों को तो स्वास्थ्य सुधार केंद्र में भर्ती कराना पड़ रहा है। यदि इस पर काबू नहीं पाया गया, तो समाज में एक नई विकृति पैदा हो सकती है।

वे सुझाव देते हैं कि यदि मोबाइल की स्क्रीन और अंगुलियों के बीच सिमटते बच्चों के बचपन को बचाना है, तो एक बार फिर से उन्हें मिट्टी से जुड़े खेल और धमाचैकड़ी मचाने वाले बचपन की ओर ले जाना होगा। जनी-मानी साहित्यकार क्षमा शर्मा कहती हैं कि पहले जहां बच्चे स्कूलों में अपने खेल की घंटी का बेसब्री से इंतजार करते थे ताकि वे चित्रकला, नाटक और संगीत प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग कर अपना हुनर निखार सकें, वहीं अब उनकी दिलचस्पी इन गतिविधियों में न होकर सिर्फ किसी इलेक्ट्राॅनिक उपकरण की स्क्रीन में है।

साहित्य अकादमी ने भारतीय भाषाओं में बच्चों के लिए लिखने वाले लेखकों की प्रमुख चिंता है कि आज बच्चे मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटाप मिलने से बातचीत करना, खेलना-कूदना, पढ़ना भूल रहे हैं। एक तरफ तो बच्चों के हाथों में इस तरह की अत्याधुनिक तकनीकें हैं, तो दूसरी तरफ लगातार उन्हें तरह-तरह के अपराधों का शिकार भी होना पड़ता है। इनमें यौन अपराध, आर्थिक अपराध और तमाम तरह के साइबर अपराध शामिल हैं। गौरतलब हो कि एकल परिवारों में ज्यादातर माता-पिता अपने-अपने दैनंदिन कामों में व्यस्त हैं। मजबूरी भी है कि काम और नौकरी न करें तो घर कैसे चले, बच्चे कैसे पलें इसीलिए ऐसे परिवारों के अधिकांश बच्चे डे केयर सेंटर या सहायिकाओं के भरोसे पल रहे हैं।

घरों में दादा-दादी, नाना-नानी की अनुपस्थिति ने बच्चों को और भी अकेला कर दिया है। आखिर रात-दिन व्यस्त माता-पिता से बच्चे अपने मन की बातें कैसे करें ? बहुत बार तो यह होता है कि बच्चा कुछ कहना चाहता है, किसी बात की जिद करता है तो उसकी समस्या सुनने, उसके निराकरण के बदले उस वक्त उससे पिंड छुड़ाने के लिए किसी चॉकलेट या किसी खिलौने से उसे बहला दिया जाता है या डांटकर चुप करा दिया जाता है। बच्चों के प्रति अधिकांश अपराधों में यही बात सामने आती है कि वे अपने माता-पिता को अपराध के बारे में समय पर नहीं बता सके।

कई बार बच्चे अपराधियों के डर से आत्महत्या तक कर लेते हैं और माता-पिता पछताते ही रह जाते हैं। माता-पिता के तनाव और झगड़ों का असर भी बच्चों पर बहुत बुरा पड़ता है और वे अपने बचपन की बुरी यादों से जीवन भर बाहर नहीं निकल पाते। विशेषज्ञ कहते हैं कि माता-पिता को अपने बच्चों के सामने कभी नहीं लड़ना चाहिए, लेकिन जो माता-पिता अलग हो जाते हैं, तलाक हो जाता है, उन परिवारों में बच्चों की मुसीबतें और भी बढ़ जाती हैं। वे माता-पिता के झगड़ों के बीच में फंस जाते हैं, जबकि बच्चे के सही विकास के लिए माता-पिता दोनों चाहिए।

खतरनाक है बच्चों में जंक फूड का गहराता क्रेज

Pizza

अधिकतर बच्चों को बेहद पसंद आने वाला जंक फूड उनके शरीर को बेहद छोटी उम्र में बड़ा नुकसान कर रहा है। हैदराबाद में हाल में हुए एक नए अध्ययन में सामने आया है कि महंगे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में बढ़ता मोटापा और नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर रोग (एनएएफएलडी) सरकारी स्कूलों के बच्चों के मुकाबले कहीं ज्यादा देखने को मिल रहा है।

इस अध्ययन के अनुसार, निजी स्कूलों के 50 से 60 प्रतिशत बच्चों में यह रोग घर कर चुका है, इनमें से कुछ बच्चों की उम्र तो महज आठ साल है। इस रोग में लिवर में अत्याधिक वसा जमा होने लगती है, जो धीरे धीरे नॉन-एल्कोहॉलिक स्टीटोहेपेटाइटिस (एनएएसएच) बीमारी में बदल जाती है। इस अवस्था में लिवर में सूजन आ सकती है। अधिकतर पीड़ित बच्चों में इसके लक्षण नजर नहीं आता, उन्हें पीलिया तक नहीं होता।

केवल अचानक बढ़ते वजन से इसे पहचाना जा सकता है। इस रोग की पहचान के लिए अल्ट्रासाउंड करवाना होता है, तो कुछ मामलों में लिवर फंक्शन टेस्ट के लिए भी बच्चों को कहा जा रहा है। इस शोध के अनुसार सोडा, चॉकलेट, नूडल्स, बिस्कुट, जैसे प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ पीड़ित बच्चे सबसे ज्यादा ले रहे थे। पिज्जा, बर्गर, अत्यधिक नमक, चीनी व फैट्स से बने उत्पादों को भी इसी सूची में रखा जाता है।

चिकित्सकों के अनुसार, मोटापा सीधे तौर पर एनएएफएलडी से जुड़ा है। इसके शिकार बच्चों में सबसे पहले मोटापा आता है, खासतौर पर संभ्रांत घरों के बच्चों में यह मामले मिल रहे हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चों में यह मामले तुलनात्मक रूप से कहीं कम हैं। लिवर में सूजन से शारीरिक गतिविधियों में शामिल होने में बच्चों की रुचि घट जाती है और धीरे-धीरे उनका अकादमिक प्रदर्शन भी गिरने लगता है।

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उम्र बढ़ने के साथ इन बच्चों की पीढ़ी भविष्य में सिरोसिस या लिवर कैंसर जैसे रोगों की चपेट में भी आ सकती है। एनएएफएलडी आमतौर पर अमेरिका और यूरोप के स्कूली बच्चों में ज्यादा मिलता रहा है, लेकिन अब भारत में भी यह बच्चों को अपनी चपेट में ले रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह वह जंक फूड है, जिसे बच्चे खा रहे हैं। अधिकतर बच्चों को बेहद पसंद आने वाला जंक फूड उनके शरीर को बेहद छोटी उम्र में बड़ा नुकसान पहुंचा रहा है।

पुणे के सूर्या हॉस्पिटल और चाइल्ड सुपर स्पेशियलिटी क्लीनिकल की डाइटिशियन और कार्यात्मक पोषण विशेषज्ञ मिलोनी भंडारी का कहना है कि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के लगातार सेवन से मोटापा बढ़ता है और ब्लड शुगर का स्तर लगातार ऊंचा रहता है, जिससे टाइप 2 डायबिटीज होने का खतरा बढ़ जाता है। टाइप 2 डायबिटीज वाले बच्चों को जीवन भर इस बीमारी से निपटने का सामना करना पड़ सकता है।

जिससे हृदय संबंधी समस्याएं, किडनी रोग और दृष्टि संबंधित जैसी परेशानी हो सकती हैं इसलिए स्वास्थ्य विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि लोगों को स्वाद से अधिक पोषण को प्राथमिकता देनी चाहिए और बच्चों में खाने की अच्छी आदतें विकसित करनी चाहिए और उन्हें खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए या दिन में 30 मिनट के लिए केवल एक्टिविटी सुनिश्चित करनी चाहिए।

उन्होंने लोगों को सूचित विकल्प चुनने, पोषण के लिए संतुलित दृष्टिकोण अपनाने और स्वस्थ विकल्प अपनाने के लिए शिक्षित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया। प्रोसेस्ड फूड्स, सैचुरेटेड फैट्स, ट्रांस फैट्स और शुगर युक्त पेय पदार्थों के सेवन को सीमित करते हुए संतुलित आहार का पालन करना चाहिए, जिसमें फल, सब्जियां, साबुत अनाज, प्रोटीन और वसा शामिल हैं।

पूनम नेगी