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जनजाति समाज में ऐसे मनाई जाती है ‘होरी’, जानें अनूठे रीति-रिवाज

raipur-traditional-holi रायपुर: ऋतुराज बसंत के आते ही छत्तीसगढ़ की गली-गली में नगाड़े की थाप के साथ राधा -कृष्ण के प्रेम प्रसंग भरे गीत जन-जन के मुंह से बरबस फूटने लगते हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा में मथुरा की होली की छाप है और जनजाति समाज में होली मनाने की अनूठी परंपरा है। जनजाति समाज में होली में सेमर, चिरचिटा, चटकाही रेंड़ी वृक्ष, तेंदू वृक्ष की लकड़ियों का महत्व है और उनकी पूजा से ही पर्व की शुरुआत होती है। सरगुजा अंचल में इसे “होरी“ त्योहार के नाम से जाना जाता है।  कंवर जनजाति में होली- सरगुजा अंचल में कंवर जनजाति के लोग फाल्गुन महीना के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक पूरे एक माह तक गांव में घूम-घूम कर सरगुजिहा बोली में होली गीतों का गायन झांझ, मजीरा और मांदर वाद्य यंत्रों के साथ करते हैं। कंवर एवं चेरवा जनजाति में होली के एक दिन पूर्व गांव के बाहर एक स्थल का चयन किया जाता है। इस स्थल पर गाय के गोबर से पुताई कर सेमर वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इनकी मान्यता है कि इस डाली को एक बार में ही काटा जाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा अर्चना करता है। पूजा में चावल, अगरबत्ती, खर, जल रहता है। सेमर के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। अंत में होलिका (सभी लकड़ी) जल जाती है और प्रह्लाद (सेमर की लकड़ी) बच जाता है। सुबह होलिका दहन स्थल की राख को पांच लोग लेकर ग्राम देव स्थल पर जाते हैं और महादेव-पार्वती को लगाते हैं। इसके बाद सभी लोग एक-दूसरे को उसी राख का टीका और अबीर-गुलाल लगाकर होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। इसे ही धूर उड़ाना कहते हैं। गोंड जनजाति में होली- होली से एक दिन पूर्व शाम को सम्मत भरा जाता है। इसके लिए गांव के बाहर एक स्थल का चयन उसे गाय के गोबर से पुताई कर चटकाही रेंड़ी वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग मिलकर उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। गांव का बैगा सम्मत स्थल पर विधि विधान से पूजा-अर्चना कर अग्नि सुलगाता है। प्रतापपुर, ग्राम सौतार निवासी हेमंत कुमार के अनुसार एक मान्यता प्रचलित है कि किसी वृक्ष में फल नहीं लगता है, तो होलिका दहन स्थल की जलती हुई लूठी (जलती लकड़ी) से उस वृक्ष को दागने से उस में फल लगना प्रारंभ हो जाता है। गोंड जनजाति में भी भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण से संबंधित मनमोहक होली गीतों का गायन किया जाता है। पंडो जनजाति की होली- जिला सूरजपुर, ग्राम लांजीत निवासी अतवारी पंडो ने बताया कि पंडो जनजाति की होली में गांव के बाहर एक स्थल का चयन कर वहां चिरचिटा वृक्ष, तेंदू वृक्ष की डाली को काट कर गाड़ा जाता है। इसके बाद गांव के सभी लोग उसके चारों तरफ लकड़ियां इकट्ठा करते है। गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) की डाली को काट कर लाता है। गांव का बैगा (पुरोहित) सम्मत स्थल पर पूजा अर्चना कर अग्नि सुलगाता है। सुबह सभी लोग अबीर-गुलाल और रंग जलती हुई होलिका में डालने के बाद एक-दूसरे को लगाकर भाईचारे का परिचय देते हैं। चिरचिटा वृक्ष (तेंदू वृक्ष) के टुकड़े को प्रह्लाद और उसके चारों तरफ रखी हुई अन्य लकड़ियों को होलिका का प्रतीक मानते हैं। पंडो समाज में मान्यता प्रचलित है कि होलिका दहन की राख के उपयोग से जर-बुखार, खाज-खुजली और खसरा ठीक होता है। ये भी पढ़ें..होली के दिन दोपहर 2 बजे तक बंद रहेगी मेट्रो और DTS सेवा, इसी समय से शुरू होंगी बसें उरांव जनजाति में होली- फाग के पहले वाले दिन शाम को होलिका दहन के लिए सम्मत भरा जाता है। इसके बीच में सेमर की लकड़ी गाड़ी जाती है। चारों तरफ अन्य लकड़ियां रखी जाती हैं। सेमर की लकड़ी को गांव का बैगा (पुरोहित) जंगल से काट कर लाता है। और विधि विधान से होलिका दहन स्थल पर गाड़ता है। भोर में दारू, फूल, अच्छत, चावल, जल और अगरबत्ती से पूजा अर्चना कर होलिका दहन करता है। उरांव जनजाति के ग्राम बोड़ा झरिया निवासी सुंदर राम किंडो के अनुसार उनके समाज में इस स्थल की अग्नि को अपने घर ले जा कर उसी से घर का चूल्हा जलाकर पकवान पकाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि होली के दिन से घर में अच्छाई रूपी अग्नि प्रज्वलित होती है, इसलिए ऐसा किया जाता है। कोड़ाकू जनजाति की होली- कोड़ाकू जनजाति में होलिका दहन के दिन शाम से ही पारंपरिक वाद्य यंत्र से लैस होकर फाग गीत गाया जाता है। होली की पूर्व संध्या में सभी गांव वाले सम्मत भरते हैं। सम्मत के बीच में सेमर की लकड़ी को बैगा (पुरोहित) द्वारा पूजा अर्चना कर गाड़ा जाता है। भोर में होलिका दहन के पूर्व बैगा (पुरोहित) चावल, फूल अगरबत्ती और धूप से पूजा-अर्चना कर एक करिया चिंयां (काला चूंजा) चरा कर सम्मत में डालकर अग्नि सुलगाता है। जब पूरी लकड़ी जल जाती है, तो बची हुई सेमर की ठूंठ को ग्रामीण लोग 50 फीट की दूरी से पत्थर से निशाना लगाते हैं। जिसका निशाना लग जाता है। उसे ग्राम प्रमुख के द्वारा एक महुआ का पेड़ इनाम में दिया जाता है। इसके बाद सेमर की ठूंठ को जमीन के बराबर काटा जाता है। फिर खोदकर निकालते हैं और उसे 4 भाग में फाड़ कर वहीं छोड़ देते हैं। सभी लोग वहां की राख से ही होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं। (अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक और ट्विटर पर फॉलो करें व हमारे यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब करें)