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दुःख और गर्व का अनूठा पलः 15 अगस्त को हल्द्वानी पहुंचेगा 38 वर्ष पूर्व शहीद हुए जवान का पार्थिव शरीर

नैनीतालः आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर जब देश अमृत महोत्सव के साथ ‘हर घर तिरंगा’ महा उत्सव मना रहा है। तब 38 वर्ष पूर्व ‘ऑपरेशन मेघदूत’ में शहीद हुए जवान का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर उत्तराखंड के हल्द्वानी पहुंचने वाला है। यह शहीद के परिवार और राज्यवासियों के लिए दुःख के साथ गर्व का मौका है, जब सियाचिन ग्लेशियर में भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन मेघदूत’ के दौरान लापता हुए शहीद चंद्रशेखर हरबोला, बैच संख्या 5164584, का पार्थिव शरीर सियाचिन की बर्फ के नीचे पूरी तरह संरक्षित-सुरक्षित स्थिति में मिलने की सूचना उनकी पत्नी को भारतीय सेना से प्राप्त हुई है तो उनके परिवार में जहां दुख भी था वहीं देश के लिए शहीद होने का गर्व भी था। अब चंद्रशेखर हरबोला के पार्थिव शरीर कल यानी ठीक 15 अगस्त के दिन उनके घर हल्द्वानी पहुंचने की उम्मीद की जा रही है।

दिलचस्प बात यह है कि यदि शहीद चंद्रशेखर हरबोला आज जीवित होते तो 66 वर्ष के होते लेकिन उन्हें उनकी 64 वर्षीय पत्नी शांता देवी, दो बेटियां कविता, बबीता और उनके बच्चे यानी नाती-पोते 28 वर्षीय युवा के रूप में अंतिम दर्शन कर पाएंगे। पत्नी शांता देवी उनके शहीद होने से पहले से नौकरी में थी जबकि बेटियां छोटी थीं। कई वर्षों तक उनके पार्थिव शरीर की असफल तलाश के बाद आखिर उन्हें शहीद घोषित किया गया था। पत्नी को उनकी 18 हजार रुपये ग्रेज्युटी और 60 हजार रुपये बीमा के मिले थे। परिवार के सदस्य को नौकरी आदि सुविधाएं नहीं मिलीं। वर्ष 1984 की इस घटना के चश्मदीद रहे और उनके पार्थिव शरीर को घर वापस लाने की पूरी व्यवस्थाओं को देख रहे और इस लड़ाई में शामिल रहे सूबेदार मेजर ऑनरेरी कैप्टन बद्री दत्त उपाध्याय ने कहा कि 38 वर्ष बाद शहीद चंद्रशेखर हरबोला के पार्थिव शरीर का मिलना बहुत गर्व का मौका है। इस पर वह बड़ा संतोष और खुद को तृप्त सा महसूस कर रहे हैं। उनके परिवार का भी 38 वर्ष का इंतजार पूरा हो रहा है। अब कोशिश है कि यह इंतजार और लंबा न खिंचे। उन्हें उच्चाधिकारियों ने बताया है कि शहीद का शव आज लेह पहुंचेगा और कोशिश है कि 15 अगस्त की शाम तक शहीद का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटकर नई दिल्ली से होते हुए हल्द्वानी पहुंच जाए।

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ऐसे हुए थे शहीद
उन्होंने बताया कि सियाचिन ग्लेशियर पर अक्साई चिन की ओर चीन और पाकिस्तान के स्यालाबिल्ला पहाड़ी की ओर पुल बनाने की सूचना पर ऑपरेशन मेघदूत के तहत श्रीनगर से वह लोग पैदल सियाचिन गए थे। इस लड़ाई में प्रमुख भूमिका 19 कुमाऊं रेजीमेंट ने निभाई थी। चंद्रशेखर हरबोला 19 कुमाऊं रेजीमेंट ब्रावो कंपनी में थे और लेंफ्टिनेंट पीएस पुंडीर के साथ 16 जवान हल्द्वानी के ही नायब सूबेदार मोहन सिंह की आगे की पोस्ट पर कब्जा कर चुकी टीम को मजबूती प्रदान करने जा रहे थे। इसी दौरान 29 मई 1984 की सुबह 4 बजे आए एवलांच यानी हिमस्खलन में पूरी कंपनी बर्फ के नीचे दब गई थी। इस लड़ाई में भारतीय सेना ने सियाचिन के ग्योंगला ग्लेशियर पर कब्जा किया था। अब तक 14 शहीदों के पार्थिव शरीर ही मिल पाए है। जबकि कुछ शहीदों के पार्थिव शरीर अब भी नहीं मिल पाए हैं। मूल रूप से हाथीखाल द्वाराहाट जिला अल्मोड़ा निवासी शहीद का परिवार वर्तमान में सरस्वती विहार, नई आईटीआई रोड, डहरिया में रहता है।

ऑपरेशन मेघदूत में कितने लोग हुए थे शहीद
ऑपरेशन मेघदूत, भारत के जम्मू कश्मीर राज्य में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जे के लिए भारतीय सशस्त्र बलों के ऑपरेशन के लिए चौथी शताब्दी में महाकवि कालीदास की रचना मेघदूत के नाम पर आधारित कोड-नाम था। यह ऑपरेशन 13 अप्रैल 1984 को शुरू किया गया। यह सैन्य अभियान अनोखा था क्योंकि दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित युद्धक्षेत्र में पहली बार हमला शुरू किया गया था। सेना की कार्रवाई के परिणामस्वरूप भारतीय सेना ने पूरे सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण प्राप्त कर किया था। इस पूरे ऑपरेशन में 35 अधिकारी और 887 जेसीओ-ओआरएस ने अपनी जान गंवा दी थी।

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