नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें सभी राज्य सरकारों को कामकाजी महिलाओं और छात्राओं के लिए मासिक धर्म के समय छुट्टी के लिए नियम बनाने का निर्देश देने की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अगर नियोक्ताओं को मासिक धर्म की छुट्टी देने के लिए मजबूर किया जाता है तो यह महिला कर्मचारियों की भर्ती में बाधा बन सकता है।
चंद्रचूड़ की पीठ ने याचिकाकर्ता अधिवक्ता शैलेंद्र मणि त्रिपाठी को अपनी याचिका के साथ महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से संपर्क करने को कहा। पीठ ने कहा कि यह नीतिगत मामला है, इसलिए हम इससे नहीं निपट रहे हैं। अधिवक्ता शैलेंद्र मणि त्रिपाठी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि कुछ राज्यों ने मासिक धर्म सहायता लाभ प्रदान किए हैं, उनके समकक्ष राज्यों में महिलाएं अभी भी ऐसे किसी भी लाभ से वंचित हैं। तदनुसार, यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है क्योंकि मातृत्व लाभ अधिनियम संघवाद और राज्य की नीतियों के नाम पर महिलाओं के साथ भेदभाव करता है।
बिहार ने कि थी मासिक धर्म की छुट्टी की शुरूआत
याचिका में कहा गया है कि बिहार ने 1992 में महिला कर्मचारियों के लिए मासिक धर्म की छुट्टी की शुरुआत की थी, हालांकि मासिक धर्म को समाज, सरकार और अन्य हितधारकों द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज किया गया है, लेकिन कुछ संगठनों और राज्यों ने इस पर ध्यान दिया है। याचिका में कहा गया है कि देश में कई ऐसी कंपनियां हैं, खासकर स्टार्टअप्स, जो बिना किसी कानूनी बाध्यता के भी पीरियड लीव दे रही हैं।
इस याचिका में आगे कहा कि इस तथ्य के बावजूद कि महिलाएं अपने मासिक धर्म चक्र के दौरान समान शारीरिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित होती हैं, उनके साथ भारत के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग व्यवहार किया जाता है। दलील में कहा गया है कि यूके, वेल्स, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इंडोनेशिया, जापान, स्पेन और जाम्बिया पहले से ही मासिक धर्म के दर्द की छुट्टी प्रदान करते हैं।
इसने आगे कहा कि क्लिनिकल एविडेंस हैंडबुक ने बताया कि 20 प्रतिशत महिलाएं ऐंठन, मतली आदि जैसे लक्षणों से पीड़ित हैं। दलील में कहा गया है कि यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के शोध के अनुसार, मासिक धर्म के दौरान एक महिला को जो दर्द होता है, वह हार्ट अटैक के दौरान होने वाले दर्द के जैसा ही होता है।
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