लखनऊः कुछ कारणों से फव्वारा सिंचाई से किसान दूर भागते हैं। फव्वारा सिंचाई ऐसी पद्धति है, जिसके द्वारा पानी का हवा में छिड़काव किया जाता है। इसमें पानी कम बहता है और यह पानी भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता रहता है। हालांकि यह पद्धति काफी पुरानी है, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में यह अभी काफी पीछे है। यदि स्थायी व्यवस्था के तहत यह खेती की जाए तो निश्चित है कि किसानों को सिंचाई में ज्यादा पैसे खर्च नही करने पड़ेंगे। लखनऊ की कई नर्सरियों में फव्वारा सिंचाई अपनायी जा रही है।
किसानों को स्थायी समाधान निकालने के लिए खेत को लंबवत बनाना होता हैं। इसमें पानी का छिड़काव दबाव द्वारा छोटी नोजल या ओरीफिस में प्राप्त किया जाता है। लंबवत खेत होने से इसके सहारे पाइस स्थापित कर दिए जाते हैं। पानी का दबाव पम्प द्वारा होता रहता है और यह मेड़ के चारों ओर पानी फेंकता रहता है। इसे स्प्रिंकल या फिर कृत्रिम वर्षा भी कहते हैं। इसमें पानी का प्रेशर काफी होता है, लेकिन यह खेत में धीरे-धीरे गिरता है। इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इसका ज्यादा लाभ गर्मियों में सब्जी की फसल में मिलता है। मिट्टी का तापमान और हवा का अनुपात संतुलित रखने के लिए जरूरी होता है कि एक जगह पर औसत पानी ही पहुंचे। कई ऐसी फसलें होती हैं, जिनमें नमी बनी रहनी चाहिए। किसान हमेशा अगर खेत में नहीं रहता है और पानी चलाकर चला जाता है तो यह विधि खेत की सिंचाई करती रहती है। दिन में एक बार केवल पानी की पंक्ति बदलनी होती है। इससे पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। यह विधि बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है, वहां पर प्रयोग की जाती है।
यह भी पढ़ेंः-राम भरोसे चल रहा ऐशबाग सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, ताक पर नियम कानून
जमीन और पानी की होती है बचत
छिड़क विधि के द्वारा गेहूँ, कपास, मूंगफली, तम्बाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है। सिंचाई करने पर पौधों की देखरेख पर खर्च कम लगता है। छिड़काव सिंचाई पद्धति में फसल उत्पादन के लिए लगभग 10 प्रतिशत अधिक क्षेत्रफल उपलब्ध होता है, क्योंकि इसमें नालियां बनाने की आवश्यकता नहीं होती है। छिड़काव सिंचाई विधि में पानी का लगभग 80 प्रतिशत भाग पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है, जबकि पारम्परिक विधि में सिर्फ 30 प्रतिशत पानी का ही उपयोग हो पाता है। सबसे अधिक लाभकारी होता है कि यह पानी वाले इलाकों में ज्यादा इस्तेमाल किया जा सकता है।