Home अन्य संपादकीय सहज-सहज सब कोउ कहै, सहज न चीन्है कोई !

सहज-सहज सब कोउ कहै, सहज न चीन्है कोई !

कबीर के माध्यम से हम अपने समय को ठीक से पहचान सकते हैं। कबीर कभी बड़े आसान लगते हैं तो कभी बड़े मुश्किल । हिंदी के पंडितों ने उनकी कई तरह से व्याख्या की है। कबीर को तमाम तरह के खेमों में रखा गया है। वह बड़े पक्के भक्त हैं, शुद्ध वैष्णव हैं, सूफी हैं और प्रेम के कवि तो हैं ही। वे ब्रह्म और ईश्वर की पहचान कराने वाले कवि और भक्त हैं। ज्यादातर लोग उन्हें ‘संत’ कहकर समझाना चाहते हैं। उन्हें दलित चेतना का विचारक कह कर भी पेश किया गया है। इन सबके बीच असली कबीर कौन हैं यह पहचानना और भी कठिन हो गया है। वे वाचिक परम्परा के कवि और संत हैं। उन्होंने जो कुछ कहा उसका मौखिक आधार अधिक है। कई जगह से उनकी रचनाओं को विद्वानों और भक्तों ने एकत्र किया है। इसलिए उनके पाठ की प्रामाणिकता सिद्ध करना बेहद चुनौतीपूर्ण है।

कबीर बहुत जटिल हैं, जटिल इसलिए कि वह हम सब जैसे आदमी भी हैं और उससे ऊपर उठकर वह कवि भी हो जाते हैं और उससे उठकर वह सिद्ध भी हो जाते हैं। कबीर को पहचानना इसलिए भी मुश्किल हो जाता है कि कबीर को लेकर जो किवदंतियां हैं, कहानियां हैं, वे उनको अलग-अलग घरोंदों में रखती है। इस तरह किसी एक तरह के कबीर नहीं हैं। नाना प्रकार के कबीर जगह-जगह फैले हुए जो कबीर पंथी हैं और हम जिस कबीर को पढ़ते हैं, दोनों में बहुत दूरी है। कबीर को भगवान का रूप दे दिया गया। कबीरपंथी नाना प्रकार से उनकी पूजा करते हैं। यह सब जो दुनिया की खुदाई है, उसका अपना सब लफड़ा है, वह उनको बनाता रहेगा, बिगाड़ता रहेगा। यह पृष्ठभूमि है जो जटिल बनाती है, कबीर तक हमें पहुंचने में कठिनाई पैदा करती है कि कबीर को कहां से देखा जाए? और क्या देखा जाए?

कबीर हमारे लिए इसलिए भी प्रासंगिक हैं कि वो पूरे समग्र समाज को देखते हैं। कोई ऐसी जाति नहीं होगी जिसका उल्लेख उन्होंने न किया हो, कोई ऐसा धर्म नहीं होगा जिसका उल्लेख नहीं पाएंगे। जितनी भारत की विविधता है, वह सारी की सारी कबीर में दिखाई देती हैं। कबीर इस्लामी शासन था। बहुत सारे इस तरह के प्रमाण हैं जो यह बताते हैं कि उस समय धर्म परिवर्तन की भी बात होती थी। तमाम तरह के अत्याचारों की भी बात होती है। यह आत्मरक्षा का माध्यम था। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, यह गलत शब्द है। क्योंकि यह हिंदुत्व का दिया हुआ है ही नहीं। वह तो किसी और ने नाम दे दिया कि हिन्दू धर्म है। असली नाम तो शाश्वत धर्म हो सकता है क्योंकि उसकी बात हर जगह है। जिन लोगों ने इसका उपयोग किया और हम लोगों ने उसे स्वीकार कर लिया। यह गुलामी की मानसिकता की एक प्रवृत्ति है। अंग्रेजों ने जिन-जिन रूपों में भारत को पहचाना, उन उन रूपों को हमने स्वीकार कर लिया कि वही हम हैं, जैसा वे कह रहे थे ।

कबीर एक खास तरह के जीवन दृष्टि को प्रतिपादित करते हैं। बहुत तार्किक तरीका है उनका, विश्लेषण करते हैं, तथ्यों को बताते हैं। यह भी बताते हैं कि रास्ता क्या है? वह अपने समय में स्थित आंकड़ों का विश्लेषण करके निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं। यह भी दिखलाते हैं कि कहीं न कहीं तमाम बाह्याडम्बरों को हरा करके एक निखालिस मनुष्यता बचती है। यदि उस मनुष्यता को अपनाया जाए, उसके रास्ते पर चला जाए तो हम आत्मानुभूति कर सकते हैं। वह आत्मानुभूति ऐसी होगी जो भेद-भाव नहीं करेगी। वह सबके निकट होगी। सभी संत कवियों ने, लोक जीवन की भाषा को अपनाया है, यह बहुत बड़ी क्रांति थी। वह खेत में काम करने वाले गृहस्थ की भाषा है, वह पंडित की भाषा नहीं है। मगर पंडित की भाषा संस्कृत में जो कुछ हो रहा था वह सब वे जान रहे थे। उन्होंने सिद्ध किया कि लोक भाषा में भी गहन चिंतन किया जा सकता है। यह बड़ी मार्के की बात है। वे जन कवि हैं न कि आभिजात्य वाले । यह अपनी कविता के लिए कच्चा माल भी वहीं, आम जिंदगी से लेते हैं। चर्चा भी उन्हीं की करते हैं। यह एक ‘पैराडाइम शिफ्ट’ है, एक प्रारूप नये ढंग का है । इसमें ज्ञान के आभिजात्य और जनता का जो भेद है, इसे दूर किया गया । कबीर की बातें जीवन की बातें है। वह केवल आदर्श की बात नहीं है। कबीर यह भी कहते हैं कि जो विचार नहीं करता है, उसके लिए तो मस्ती ही मस्ती है-‘‘सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै, दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै।’ विचार करने की कुछ कीमत तो आप को अदा करनी पड़ेगी। आप पहचानिएगा तो आप को पहचाना जायेगा। आप को खेमों में रखा जाएगा। कबीर कई तरह से सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। भाषाओं में, विचार में, तर्क के ढंग में, कहने के ढंग में। उलटबांसियों का अर्थ लगाना आसान नहीं है। घर से बाहर निकल कर वह तमाम लोगों से बात करते थे। बताते थे देखो यह गलत है और फिर स्वयं अपनी साधना में डूबे रहते थे। अपने जीवन को, अपने अनुभवों को आत्म-मंथन करना, आत्म-विचार करना, आत्म-बोध की उनकी यात्रा निरंतर चलती रहती है। वह अकेली भी है और साथ-साथ भी है। वह समाज की ओर अभिमुख भी है और स्वयंचेता भी। उनके विचारों में वे बहुत सारी उक्तियां मिलती हैं जिनसे हम उनको समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए उनकी एक बहुत प्रसिद्ध उक्ति है-‘हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साधु। हद बेहद दोऊ चले, ताकर मता अगाथ’। इसे आप जिस रूप में भी लें, हद और बेहद स्थापित है, जो परम्परा है, जो परम्परा के परे है, जो सीमित है और जो व्यापक है। दोनों को समझना जरूरी है।

कबीर की कविता में निषेध बहुत प्रखर रूप से प्रकट होता है। शायद उनके सामने जिस तरह की समस्यायें थी उन्हें देखते हुए, उनका खंडन करना, उन पर चोट करना ज़रूरी था। इस मामले में वह बहुत ही कट्टर हैं। कट्टर इस अर्थ में हैं कि वह किसी को छोड़ते नहीं हैं-‘कांकर पाथर जोड़ि कै, मस्जिद लेई बनाई। ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाई।’ यह कहने की हिम्मत है उनको। वह चाहे हिन्दू धर्म की जाति की परेशानियां हों या इस्लाम की परेशानियां हों, दोनों को कहीं न कहीं चोट पहुंचाते हैं। वह सहज मार्ग वाले हैं : सहज-सहज सब कोउ कहै, सहज न चीन्है कोई। जिन सहजै विषया तजि, सहज कही जे सोई । इस सहज शब्द को, समझना कठिन है। यह सहजता, यह स्वाभाविकता कैसे आई? सहजता को जीवन में कैसे लाया जाए। सहज को खोजना शायद यह उनके जीवन का केंद्रीय तत्व था। सहज को ढूंढना ही उनका एक मार्ग था, जिसको उन्होंने आविष्कार किया। सत्य का अन्वेषण और सहज का मार्ग, यह रास्ता चुना उन्होंने, जो किसी के लिए भी सुगम हो सकता है, सहज हो सकता है। आसानी से जिसका उपयोग किया जा सकता है।

कबीर ने कई तरह से चेतावनी दी है कि हम किस तरह से, उस सहज के मार्ग को पा सकते हैं । इस बात को खोजने की कोशिश उन्होंने की है। यह भी उन्होंने बार-बार दिखलाने की कोशिश की है कि भाई, सत्य कई नहीं है। नाम तरह-तरह के ले लो मगर सत्य है वही- ‘हमारे राम, रहीम, करीमा, केसो, अलह, राम, सति सोई। बिस्मिल मेरि विशम्भर एकै और न दूजा कोई।’ वह कहते हैं कि क्यों तुम झंझट में पड़े हो, यह सब तो एक ही तत्व को बता रहे हैं। वह हमेशा इस पर भी जोर देते हैं कि अपना परिष्कार करो, सुधरो। जो समय मिला है, जो जीवन मिला है, उसमें हम सुधारें। ‘मैं’ को हटाइये उसके बाद आप को नया जीवन मिलेगा। सहज का, जीवन में आत्म बोध का, कैसे विस्तार होगा, सत संगति भी चाहि, गुरु की कृपा भी चाहिए, लगन भी चाहिए और अपने आप को पहचानने की एक अदम्य जिज्ञासा भी चाहिए और इसके लिए आतुरता भी ।

गिरीश्वर मिश्र

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