Home अन्य संपादकीय छत्रपति शिवाजी महाराज पर बवाल, वीर सावरकर पर खामोशी

छत्रपति शिवाजी महाराज पर बवाल, वीर सावरकर पर खामोशी

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महाराष्ट्र की माटी के दो सपूतों छत्रपति शिवाजी महाराज तथा स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने हिंदवी प्रेम तथा स्वदेश, स्वराज्य के लिए बहुत बड़ा काम किया है। महाराष्ट्र की माटी के इन दोनों सपूतों में से एक छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा टूटने के बाद जिस तरह से विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने मान-सम्मान की राजनीति का जो भद्दा रूप दिखाया, वह ठीक नहीं है। दूसरी ओर देश के एक प्रमुख राजनीति दल की ओर से वीर सावरकार को लेकर जिस तरह की बयानबाजी की जा रही है, उसकी जितनी निंदा की जाए, वह कम ही होगी।

शिवाजी महाराज तथा वीर सावरकर दोनों ने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। अब उनके नाम को लेकर उग्रता तथा उदासीनता का प्रदर्शन करते हुए दोनों ही विभूतियों को राजनीतिक लाभ का जरिया नहीं बनाना चाहिए, यही उनके प्रति महाराष्ट्र के नेताओं तथा जनता की ओर से सबसे बड़े सम्मान का प्रमाण होगा।

देश को आजादी मिलने से पहले समूचे राष्ट्र में हिंदवीं राष्ट्र के निर्माण में योगदान देने वालों में अनेक नाम सामने आए, लेकिन इन नामो में से छत्रपति शिवाजी और वीर सावरकर दो नाम ऐसे हैं, जिनको लेते ही राष्ट्रवाद की एक बुलंद तस्वीर उभरकर सामने आती है। पिछले दिनों महाराष्ट्र में कोकण क्षेत्र के मालवण में छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा अचानक से टूटकर गिर गयी। इस घटना के बाद पूरे राज्य में कोहराम मच गया।

सत्ता पक्ष यह दलीलें देता रहा कि प्रतिमा के निर्माण में किसी भी तरह का भ्रष्टाचार नहीं किया गया है, जबकि विपक्ष का आरोप है कि सत्ता पक्ष ने महाराष्ट्र के आराध्य का अपमान किया है। महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे की नेतृत्व वाली सरकार को तुरंत सत्ता छोड़ देनी चाहिए। इस मामले में कांग्रेस जैसे विरोधी दल के नेताओं ने भी खूब हाथ आजमाया। मालवण में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा क्षतिग्रस्त होने की घटना के बाद सत्ता तथा विपक्ष के बीच जिस तरह से वार-प्रतिवार किया गया और इस मुद्दे को लेकर सत्ता पक्ष तथा विपक्ष के बीच जो तनातनी बढ़ी है, उसके पीछे का मूल कारण आगामी नवंबर माह में होने वाले महाराष्ट्र राज्य के विधानसभा चुनाव हैं।

लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही राज्य की सत्तारुढ़ महायुति की सरकार को सत्ता से उतारने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा का अनावरण आठ महीने पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों हुआ था, इसके बावजूद उसका अचनाक से टूट जाना बहुत बड़े सवाल खड़ा करता है। पिछले कुछ दिनों से इस बात की होड़ मची हुई है कि कौन सबसे ज्यादा बोलता है, कौन सबसे ज्यादा गाली देता है और यह सब कुछ बिना किसी फिल्टर के मीडिया-सोशल मीडिया के जरिए जनता तक रहा है।

अगर सभी पार्टियों के वरिष्ठों ने इस तरह की चीजों को रोकने के लिए पहल नहीं की तो चुनाव तक उन्हें और क्या-क्या सुनना-देखना पड़ेगा, इसकी लोग कल्पना भी नहीं कर सकते। गाधरान बंदरगाह के भूमिपूजन समारोह में शामिल होने के लिए महाराष्ट्र आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिवाजी महाराज की प्रतिमा टूटने पर भारी दुख व्यक्त करते हुए कहा कि शिवाजी महाराज हमारे देवता हैं, उनके प्रति मेरे मन में आपार आदर है। मैं इस घटना के लिए महाराष्ट्र के हर व्यक्ति से माफी मांगता हूं। मालवण में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा गिरने की घटना पर प्रधानमंत्री ने कहा कि मैं शिवाजी महाराज के चरणों पर सिर रखकर शिवाजी महाराज और उनकी पूजा करने वाले भक्तों से क्षमा मांगता हूं। प्रधानमंत्री ने कहा कि छत्रपति शिवाजी का पुतला गिरना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

चूंकि इस घटना के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार महाराष्ट्र आए थे, इसलिए सभी की निगाहें इस ओर टिकी हुई थी कि प्रधानमंत्री सभा में क्या बोलेंगे और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिमा टूटने पर माफी मांग ली तो लगा था कि यह मामला शांत हो जाएगा, लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि शिवाजी महाराज की प्रतिमा गिरने की घटना के लिए जिम्मेदार लोगों की सिर्फ माफी नहीं चलेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंबई दौरे के वक्त पालघर जिले का भी दौरा किया। प्रधानमंत्री ने सुबह ग्यारह बजे मुंबई के बीकेसी स्थित जीओ वर्ल्ड कन्वेंशन सेंटर में ‘ग्लोबल फिनटेक फेस्ट’ का दौरा किया।

फिर दोपहर में पालघर आकर सिडको ग्राउंड में प्रधान बंदरगाह के काम के लिए भूमि पूजन किया। करीब 76 हजार करोड़ रुपए की लागत से विस्तार बंदरगाह परियोजना स्थापित होने जा रही है। यह बंदरगाह भारत के सबसे बड़े गहरे पानी के बंदरगाहों में से एक होगा। इस बंदरगाह का भूमिपूजन प्रधानमंत्री ने किया था, इसके अलावा मछली पालन से जुड़ी 218 परियोजनाओं का भी मोदी ने शिलान्यास किया। यह प्रोजेक्ट करीब 1,560 करोड़ रुपए का है, इससे मछली पकड़ने के क्षेत्र में बुनियादी ढांचे और उत्पादकता में वृद्धि होगी, साथ ही पांच लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। विपक्ष दल इस मामले में यह सवाल उठा रहे हैं कि आखिर आठ महीने में ही पुतला कैसे गिरा।

विपक्षी दलों ने उठाए गंभीर सवाल

शिवसेना (उबाठा) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री की आलोचना करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री जहां हाथ लगाते हैं, वहां सत्यानाश होता है। ऐसे में मैं भगवान गणपति बप्पा से पिछले ढाई वर्ष में राज्य पर आए संकट को दूर करने का आशीर्वाद मांगता हूं। सिंधुदुर्ग जिले के राजकोट किले में छत्रपति शिवाजी महाराज का पुतला गिरने को लेकर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने राज्य सरकार पर जबर्दस्त हमला और कहा कि पुतला बनाने वाला मूर्तिकार आप्टे आरएसएस का कारीबी हैं। पटोले ने यह भी कहा कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने इस काम में जल्दबाजी की है, इसीलिए इसके लिए दोनों सरकारें ही दोषी हैं। कांग्रेस का यह भी कहना है कि अनुभवहीन मूर्तिकार को पुतला बनाने की जिम्मेदारी कैसे दी गई? कांग्रेस नेता ने इतिहास को याद करत हुए कहा है कि पेशवा काल में भी शिवाजी महाराज का अपमान किया गया था।

राज्य सरकार को इस घटना के लिए महाराष्ट्र से स्पष्ट शब्दों में माफ़ी मांगनी चाहिए। इस त्रासदी ने कई सवाल खड़े किए हैं और उनके जवाब गंभीरता से तलाशने होंगे। महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज की अनेकों प्रतिमाएं अलग- अलग शहरों में हैं, लेकिन अगर महाराष्ट्र के विभिन्न राजनीतिक दल शिवाजी महाराज की प्रतिमा गिरने से इसी तरह कोहराम मचाते रहेंगे, तो क्या इसे उचित माना जाएगा। कब तक हम शिवाजी महाराज को राजनीति के लिए इस्तेमाल करते रहेंगे, इस विषय पर अब गंभीरता से सोचा जाना जरूरी हो गया है।

दरअसल, आज महाराष्ट्र में किसी भी राजनीतिक दल या संगठन को छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम लेने का भी नैतिक अधिकार नहीं है। अरब सागर में शिवाजी महाराज के स्मारक और जल पूजन की घोषणा में जल्दबाजी क्यों की गई? आठ साल बाद आज इस स्मारक की क्या स्थिति है? कितना पैसा खर्च हुआ? यदि यह स्मारक नहीं बनता है, तो क्या वैकल्पिक योजनाएं मौजूद हैं? केवल महाराज के स्मारक ही क्यों बनाये जाएं, ऐसा इसलिए क्योंकि हर कोई महाराज के नाम को राजनीतिक लाभ के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है।

महाराज का गंगा जैसा निर्मल शासन, अलौकिक मूल्य और धर्म प्रेम, आध्यात्मिक ऊंचाई, नारी सम्मान, स्वशासन प्रेम जैसी एक भी बात आज के राजनेताओं में देखने को नहीं मिलेगा। छत्रपति शिवाजी महाराज का कोई भी व्यक्तित्व या प्रशासन कल या आज के प्रशासकों द्वारा प्रदर्शित नहीं किया गया है। छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा अनावरण के आठ महीने के भीतर ही ढह जाने से शिवाजी महाराज को चाहने वालों का दुःखी, नाराज और क्रोधित होना स्वाभाविक ही है।

शिवनेरी के वीर सपूत छत्रपति शिवाजी महाराज-19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी किले की पहाड़ी पर जन्मे शिवाजी महाराज एक प्रमुख मराठा योद्धा और पश्चिमी भारत में मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे, उनके जीवन और विरासत ने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी है, जिसमें मुगल साम्राज्य के खिलाफ प्रतिरोध की भावना और स्वशासन की खोज भी शामिल है। शिवाजी का जन्म मराठा सेनापति शाहजी भोंसले और जीजाबाई से हुआ था, जिनकी शिक्षाओं का उनके प्रारंभिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। जीजाबाई ने उनमें अपनी भूमि और लोगों के प्रति गर्व तथा जिम्मेदारी की भावना पैदा की। कम उम्र से ही शिवाजी में असाधारण नेतृत्व गुण और न्याय की प्रबल भावना प्रदर्शित हुई।

15 साल की उम्र में शिवाजी महाराज ने वफादार अनुयायियों का एक समूह इकट्ठा किया और मराठा साम्राज्य की स्थापना के लिए एक अभियान शुरू किया। उन्होंने 1645 में तोरणा के पहले किले पर कब्ज़ा कर लिया और एक नेता के रूप में अपनी यात्रा शुरू की। अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने गुरिल्ला युद्ध रणनीति का उपयोग करके रणनीतिक रूप से कई किलों और क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया, जो उनका ट्रेडमार्क बन गया। शिवाजी महाराज के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर 6 जून, 1674 को रायगढ़ किले में छत्रपति के रूप में उनका राज्याभिषेक था। यह घटना संप्रभुता की घोषणा और मराठा साम्राज्य की औपचारिक स्थापना थी।

बहुत धूमधाम से आयोजित राज्याभिषेक समारोह में धार्मिक अनुष्ठान और संस्कार शामिल थे, जो एक स्वतंत्र शासक के रूप में उनकी वैधता को साबित करते थे। यह मुगल शासन से स्वायत्तता के लिए मराठा आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला एक प्रतीकात्मक क्षण था। शिवाजी के शासनकाल में प्रगतिशील नीतियां और कुशल प्रशासन देखा गया। तटीय रक्षा के लिए नौसैनिक वर्चस्व के महत्व को पहचानते हुए, उन्होंने एक मजबूत नौसैनिक बल की स्थापना की। उनके प्रशासनिक सुधारों में एक अनुशासित सैन्य संरचना बनाना, राजस्व सुधार शुरू करना और व्यापार को बढ़ावा देना शामिल था।

उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता पर भी जोर दिया और विविध समुदायों का समर्थन किया, जिससे उनकी सभी प्रजा के लिए न्याय सुनिश्चित हुआ। शिवाजी का मुग़ल साम्राज्य और अन्य पड़ोसी राज्यों से लगातार संघर्ष चल रहा था। 1666 में औरंगजेब की ओर से कैद किए जाने के बाद आगरा से भागने में उनकी चतुराई और दृढ़ संकल्प दिखाया गया था। इस साहसी पलायन ने एक चालाक और लचीले नेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को मजबूत किया। शिवाजी महाराज की मृत्यु 3 अप्रैल, 1680 को रायगढ़ किले में हुई थी, उनकी मृत्यु ने एक खालीपन छोड़ दिया, लेकिन उनकी विरासत उनके उत्तराधिकारियों और मराठा साम्राज्य के माध्यम से जीवित रही, जिसने मुगल शक्ति को चुनौती दी और अपने क्षेत्रों का विस्तार किया।

इस संदर्भ में, छत्रपति शिवाजी महाराज हिंदू स्वराज्य की अदम्य भावना और एक बड़े आदर्श की खोज के प्रतीक के रूप में शिवाजी कॉलेज के प्रतीक के रूप में खड़े हैं, उनकी विरासत इतिहास के कैनवास पर एक अमिट छाप के रूप में गूंजती है, जो शासन में उत्कृष्टता की निरंतर खोज को प्रेरित करती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में काम करती है। शिवाजी कॉलेज अपने शैक्षिक दर्शन में दूरदर्शी नेतृत्व, लचीलापन और स्वशासन के प्रति प्रतिबद्धता के सिद्धांतों को शामिल करके गर्व से अपने मूल्यों को कायम रखता है, जो छत्रपति शिवाजी महाराज की भावना को मूर्त रूप देने वाले भविष्य के नेताओं को तैयार करने का प्रयास करता है।

प्रखर राष्ट्रवाद का एक बड़ा नाम वीर सावरकर-एक तरफ जहां शिवाजी महाराज की प्रतिमा ध्वस्त होने के बाद से महाराष्ट्र की राजनीति में कोहराम मच गया है। सत्ता पक्ष विपक्ष पर हमलावर है, दूसरी लंबे समय से हिंदुवी स्वराज्य के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले विनायक दामोदर सावरकर (28 मई 1883-26 फरवरी 1966) के बारे में एक विशिष्ट राजनीतिक दल की ओर से लागातार लांछन लगाए जा रहे हैं। स्वातंत्र्य वीर सावरकर भारतीय क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, विचारक, समाज सुधारक, इतिहासकार, कवि, ओजस्वी वक्ता और दूरदर्शी राजनेता थे, उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर कहते हैं।

हिंदू राष्ट्रवाद या राजनीतिक विचारधारा ‘हिंदुत्व’ को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय वीर सावरकर को जाता है, वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार भी थे। वीर सावरकर धर्मांतरित हिंदुओं को वापस हिंदू धर्म में लाने के लिए लगातार प्रयास किए और इसके लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने भारत की सामूहिक हिंदू पहचान बनाने के लिए हिंदुत्व शब्द गढ़ा। वीर सावरकर ने राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, प्रत्यक्षवाद, मानवतावाद, सार्वभौमिकतावाद, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के सिद्धांत थे, वे हिंदू महासभा में महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत थे। विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र के नासिक के निकट भागुर गांव में हुआ था।

वीर सावरकर की मां का नाम राधाबाई तथा पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर था, इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं, जब विनायक केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता का देहान्त हो गया, इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता भी स्वर्ग सिधार गए, इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। बचपन में विनायक ने कुछ कविताएं भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया।

इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। वर्ष 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ विनायक का विवाह हुआ, उनके ससुर ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके विनायक ने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया, इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलुणकर थी। 1904 में सावरकर ने अभिनव भारत नामक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की।

1905 में बंगाल के विभाजन के बाद सवारकर ने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में सावरकर को श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए, जो कालांतर में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी प्रकाशित किए गए। वीर सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। 10 मई, 1907 को सावरकर ने इंडिया हाउस, लंदन में पहली भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई।

इस मौके पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया। जून, 1908 में सावरकर की पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 में प्रकाशन के लिए तैयार हो गई थी, लेकिन उसके मुद्रण की समस्या सामने आई, इसके लिए लंदन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किए गए, किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे, इसके बाद यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंचाई गयीं। पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया था। मई, 1909 में सावरकर ने लंदन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन सावरकर को वहां वकालत करने की अनुमति नहीं मिली। पुस्तक को वीर सावरकार ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत तक पहुंचाया था।

इण्डिया हाउस की गतिविधियां-वीर सावरकर ने लंदन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इण्डिया हाउस में रहना शुरु कर दिया था। इण्डिया हाउस उस समय राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था, जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। वीर सावरकर ने ‘फ्री इण्डिया सोसायटी’ का निर्माण किया, जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतन्त्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। वीर सावरकर ने 1857 की क्रान्ति पर आधारित पुस्तकों का गहन अध्ययन किया और “द हिस्ट्री ऑफ़ द वॉर ऑफ़ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स” नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने इस बारे में भी गहन अध्ययन किया कि अंग्रेजों को किस तरह जड़ से उखाड़ा जा सकता है।

सुधीर जोशी

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