Friday, November 22, 2024
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Homeफीचर्डआजादी के बलिदान का नहीं हो रहा सम्मान

आजादी के बलिदान का नहीं हो रहा सम्मान

 

भारत की आजादी का 15 अगस्त 1947 से शुरु हुआ सफर अपना अमृत काल मना रहा है। देश की आजादी की जंग में कौन-कौन और कितनों ने अपने प्राण गंवाये है, इनमें से अधिकांश सहादत देने वाले महापुरुषों का लेख-जोखा आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। जब भी आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों का जिक्र किया जाता है, तो देश के हर कोने में यह सूची चंद नामधारी राष्ट्रीय व्यक्तित्व और कुछ क्षेत्रीय लोगों तक सिमट कर रह जाती है। यद्यपि जिन बलिदानियों का जिक्र लोग बार-बार करते हैं, उनमें से अधिकांश लोग आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति में थे और उनके त्याग और बलिदान को कहीं से भी कमतर नहीं माना जा सकता है, लेकिन इसी के साथ जुड़ा यह कटु सत्य है कि वे तमाम बलिदानी समय के साथ लोगों के जेहन से गायब हो रहे हैं, जिनका देश के लिये बलिदान किसी से कम नहीं आंका जा सकता है। इनमें तमाम लोगों को इतिहास में या तो स्थान नहीं मिला है या फिर स्थान मिला भी है तो उसका कोई महत्व नहीं है।

यह किसी एक स्थान विशेष, क्षेत्र विशेष या प्रदेश विशेष का मामला नहीं है अपितु अब यह सार्वभौमिक सत्य की तरह देश में स्थापित हो चुका है। आज लाखों परिवार ऐसे हैं, जिनके बारे में शासन प्रशासन तो दूर उनके कस्बे, मुहल्ले और यहां तक कि उनके पड़ोसी नहीं जानते है कि जिस आजाद भारत में वह जी रहे हैं, उसके लिए उनके आस-पास के किस परिवार के लोगों ने क्या बलिदान दिया है। आजादी के बाद देश में स्थापित हुई आजाद भारत की सरकार ने लम्बे समय तक एक अभियान की तरह आजादी आन्दोलन से जुड़े स्थलों और तमाम सेनानियों की स्मृति में उनकी प्रतिमाएंए स्मृति द्वार, पार्क, सड़क या सरकारी कार्यालयों के बाहर शिलालेख लगवाए गए, परंतु अमृत काल आते-आते उनमें से अधिकांश अब महत्वहीन हो गये हैं। तमाम स्थलों पर लगी सेनानियों की प्रतिमाओं व स्मृति स्थलों का समय-समय पर देखभाल और रंग रोगन तो दूर उनके बलिदान दिवस पर कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति श्रद्धासुमन अर्पित करने नहीं जाता है। तमाम ऐतिहासिक धरोहर को जमींदोज कर उनके स्थान पर बहुमंजिला सरकारी भवन तक बन गए हैं। ऐतिहासिक शहर प्रयागराज इससे अछूता नही है। आज आस-पास के सैंकड़ो परिवार अपने पूर्वज के बलिदान के प्रचार और पहचान की आस लगाए बैठे हैं।

शहीद ठाकुर रोशन सिंह

Martyr Thakur Roshan Singh

साऊथ मलाका जेल का आज नामोनिशान मिट चुका है, लेकिन जिस ठाकुर रोशन सिंह को यहां मिली फांसी के कारण यह जेल चर्चित हुई थी, वह शहीद रोशन सिंह भी इस शहर में गुमनाम की तरह हैं। शहीद ठाकुर रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी 1892 को शाहजहांपुर के नवादा दरोवस्त गांव में हुआ था। रोशन सिंह के दिल में भी देश को आजाद कराने की ज्वाला धधकती रहती थी। वह स्थानीय स्तर पर अन्य क्रान्तिकारी साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजी सरकार का विरोध करते रहते थे। महात्मा गांधी द्वारा जब असहयोग आन्दोलन चलाया गया, तो रोशन सिंह अपने साथियों के साथ शाहजहांपुर और बरेली जिले के गांवों में घूम-घूम कर लोगों को आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करने लगे। इसी बीच गोरखपुर में हुए चौरी चौरा कांड के बाद गांधी जी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आन्दोलन वापस लेने की घोषणा कर दी, जिससे युवा क्रान्तिकारियों को बड़ी निराशा हुई। इसी बीच एक घटना घटी जो रोशन सिंह के जीवन में बदलाव का कारण बनी। बरेली के टाउनहॉल में आन्दोलनकारियों का धरना चल रहा था। पुलिस वाले आन्दोलनकारियों को जबरन हटाने का प्रयास कर रहे थे। वहां खड़े रोशन सिंह से जब बर्दास्त नहीं हुआ तो उन्होनें एक पुलिसवाले की रायफल छीनने का प्रयास किया। इस आपाधापी में रायफल से भीड़ पर गोली चल गई, लेकिन संयोग से कोई घायल नहीं हुआ। रोशन सिंह को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गयाए जहां पहले ही तमाम सेनानी बंद थे। जेल में उनकी मुलाकात पंड़ित राम दुलार त्रिवेदी से हुई जो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक संगठन से जुड़े थे। जेल से बाहर आने के बाद रोशन सिंह भी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए। इस एसोसिएशन के अग्रिम पंक्ति में पंड़ित राम प्रसाद बिस्मिलए अशफाक उल्ला खां और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी जैसे युवा क्रान्तिकारी थे। आन्दोलन चलाने के लिए जब इन कांन्तिकारियों को पैसे की जरुरत पड़ी तो इन लोगों ने ‘एक्शन’ कोड नाम से एक प्लान तैयार किया, जिसमें समाज विरोधी लोगों के साथ-साथ सरकारी खजाने की लूट का कार्यक्रम तय किया गया। इसके अर्न्तगत 25 दिसम्बर, 1924 को पीलीभीत जिले के बमरौली गांव में खांडसारी व्यापारी और कुख्यात सूदखोर बलदेव प्रसाद के यहां डकैती डाली, जहां इन क्रान्तिकारियों के हाथ 4,000 रुपये और कुछ सोना-चांदी लगा, लेकिन जब क्रान्तिकारी निकलने लगे तो मोहल लाल पहलवान नाम के व्यक्ति ने विरोध किया, जिसको रोशन सिंह ने अपनी रायफल से ढ़ेर कर दिया। इस घटना के कुछ महीने बाद 09 अगस्त 1925 को क्रान्तिकारियों ने लखनऊ से पहले काकोरी स्टेशन के पास ट्रेन रोक कर सरकारी खजाना लूट लिया। इस घटना से अंग्रेज एकदम बौखला गए और इसमें शामिल क्रान्तिकारियों की गिरफ्तारी होने लगी। 26 सितम्बर को ठाकुर रोशन सिंह को भी गिरफ्तार कर लिया गया। यद्यपि ऐसे में यह कहा जाता है कि काकोरी लूटकांड में रोशन सिंह नहीं थे, बल्कि इनके चेहरे से मिलते-जुलते केशव चक्रवर्ती थे जो घटना के बाद बंगाल भाग गए और अंत तक अंग्रेजों के हाथ नही आए। काकोरी लूटकांड के मुख्य अभियुक्तों पंडित राम प्रसाद बिस्मिलए अशफाक उल्ला खां और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी के साथ ठाकुर रोशन सिंह को भी 06 अप्रैल 1927 को फांसी की सजा सुनाई गयी। ठाकुर रोशन सिंह लगभग आठ माह तक साउथ मलाका जेल इलाहाबाद में रहे। इसको लेकर बताया जाता है कि इस अवधि में उन्हें बहुत यातनाएं दी गईं। फांसी के विरुद्ध की गई अपील और तमाम जन आन्दोलनों के बाद भी अंग्रेज सरकार अपने फैसले पर अडिग रही और देश के इस सपूत को 19 दिसम्बर 1927 को साउथ मलाका जेल में ही फांसी पर लटका दिया गया। फांसी के समय बाहर हजारों की भीड़ रोशन सिंह जिन्दाबाद के नारे लगा रही थी। फांसी के बाद बाहर आए शहीद रोशन सिंह के शव का दाह संस्कार संगम के किनारे किया गया। आज इस शहर में उनका भी कोई नामलेवा नहीं है। यद्यपि स्वरुपरानी चिकित्सालय के आपातकालीन भवन के समीप एक छोटे से पार्क में उनकी संगमरमर की प्रतिमा स्थापित है। कहा जाता है कि जेल को तोड़कर अस्पताल बनवाने वाले ठेकेदार जगदेव दास यादव ने अपनी ओर से उस पार्क में शहीद ठाकुर रोशन सिंह की प्रतिमा स्थापित कराई थी। आज दिन भर मरीज के तीमारदारों से भरे रहने वाले अस्पताल परिसर में शायद ही कोई इस शहीद के बारे में जानने का प्रयास करता हो। हैरत की बात यह है कि चार प्रधानमंत्रियों की कर्मभूमि वाले वाले इस शहर में किसी ने भी शहीद रोशन सिंह से जुड़ी स्मृतियों को सहेजने का कार्य नहीं किया। यद्यपि मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने 2018 में शहीद रोशन सिंह के पैत्रिक घर पर जाकर परिवारजनों से मुलाकात कर उनका कुशल क्षेम जाना था।

दुर्गा भाभी

दुर्गा भाभी अन्य क्रान्तिकारी महिलाओं की तरह फांसी या पुलिस की गोली से शहीद तो नही हुई, लेकिन उग्र विचारधारा के सेनानियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में पूरा योगदान दिया। दुर्गा भाभी का पूरा नाम दुर्गावती देवी था। उनका जन्म 07 अक्टूबर 1907 को तत्कालीन इलाहाबाद, अब कौशाम्बी के शहजादपुर गांव में हुआ था। इनकी शादी लाहौर के भगवती चरण वोहरा से हुई थी जो क्रांतिकारियों के संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे। दुर्गावती अपने पति के साथ क्रांतिकारियों के सहयोग में लगी रहती थी और इसी कारण संगठन के लोग उन्हें दुर्गा भाभी कह कर बुलाने लगे। पुलिस लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए 10 दिसम्बर 1928 को लाहौर में क्रांतिकारियों की बैठक हुई, जिसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। उसी समय से दुर्गा भाभी का नाम क्रांतिकारियों के बीच चर्चा में आया। 17 दिसम्बर, 1928 को भगत सिंह और राजगुरु ने अंग्रेज अधिकारी जॉन पीण् सैंडर्स की हत्या कर लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। अंग्रेज अधिकारी की हत्या से बौखलाई पुलिस क्रान्तिकारियों की खोज में जुट गई। भगत सिंह और राजगुरु ने तत्काल लाहौर छोड़ने की योजना बनाई। 20 दिसम्बर को भगत सिंह किसी बड़े अधिकारी की तरह कपड़े पहनकर स्टेशन पहुंचे तो उनके साथ पत्नी और बच्चे की भूमिका में दुर्गा भाभी व उनका बेटा शची तथा अर्दली की भूमिका में राजगुरु थे। लाहौर स्टेशन पुलिस छावनी बना था, लेकिन किसी को भी भनक नही लगी और यह लोग लाहौर से चल कर अपने गंतव्य कलकत्ता पहुंच गए। इस दौरान छद्म वेशधारी भगत सिंह यदि पहचान लिए जाते, तो निश्चय ही उनके साथ-साथ दुर्गा भाभी व बेटे शची की जान जा सकती थी। दुर्गा भाभी क्रान्तिकारियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रहीं। 08 अप्रैल 1929 को दिल्ली के सेंट्रल असेम्बली पर बम फेंकने से पहले भगत सिंह ने दुर्गा भाभी को लाहौर से दिल्ली बुलाया था तथा उस दौरान एक पार्क में बैठकर सभी ने खाना खाया और फिर भगत सिंह अपने मिशन पर चले गए थे। जान जोखिम में डालकर क्रान्तिकारियों की मदद करने के कारण दुर्गा भाभी का नाम प्रथम पंक्ति के सेनानी भगत सिंहए चन्द्रशेखर आजादए सुखदेवए राजगुरु के साथ जुड़ गया। इसी बीच 28 मई 1930 को शक्तिशाली बम बनाकर परीक्षण करते समय दुर्गा भाभी के पति की मौत हो गई। कुछ दिन तक तो दुर्गा भाभी शांत रहींए लेकिन ऐसा बहुत दिन तक नही हुआ क्योंकि चन्द्रशेखर आजाद कुछ बड़ा धमाका करना चाह रहे थे। इसके लिए दुर्गा भाभीए सुखदेव सहित कुछ क्रान्तिकारियों को बम्बई भेजा गया। वहां तय हुआ कि पुलिस कमीशनर लॉर्ड हैली की हत्या कर दी जाए। गफलत व हड़बड़ी में दुर्गा भाभी और सुखदेव ने जिस अधिकारी पर गोली चला कर हत्या की वह हेली न होकर सार्जेंट टेलर और उनकी पत्नी निकले। दुर्गा भाभी को रिवॉल्वर व पिस्टल चलाने में महारत हासिल थी और उनका निशाना अचूक हुआ करता थाए जबकि उनके पति बम बनाने के विशेषज्ञ थे। दुर्गा भाभी जयपुर से पिस्टल और रिवॉल्वर लाकर क्रान्तिकारियों को देती थीं। ऐसे में कहा जाता है कि शहादत के समय आजाद के पास जो पिस्टल थी उसे दुर्गा भाभी ने दिया था। लाहौर हत्याकांड में भगत सिंहए सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। चन्द्रशेखर आजाद ने फांसी की सजा बदलवाने के लिए दुर्गा भाभी को गांधी जी से मिलने भेजा गया। 26 फरवरीए 1931 को दुर्गा भाभी दिल्ली में गांधी जी से मिली और फांसी की सजा बदलवाने के लिए कहा तथा उन्होनें आजाद का संदेश भी बताया कि अगर यह सजा बदलवा दी जाती है तो क्रान्तिकारी लोग उनके सामने आत्मसमपर्ण कर देगेंए लेकिन गांधी जी ने इस प्रस्ताव को नहीं माना और दुर्गा भाभी दुखी मन से वापस आ गई। 27 फरवरीए 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद शहीद हो गए। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया। साथी क्रान्तिकारियों की शहादत से हताश और निराश दुर्गा भाभी को कुछ माह बाद लाहौर पुलिस ने गिरफ्तार किया, लेकिन किसी आरोप का सबूत न मिलने के चलते उन्हें छोड़ दिया गया। 1936 में उन्होंने गाजियाबाद आकर स्कूल में अध्यापन कार्य किया और फिर 1940 में लखनऊ आकर लखनऊ मांटेसरी स्कूल की स्थापना की। 1983 में उन्होंने स्कूल से अवकाश लिया और 15 अक्टूबर, 1999 को दुर्गा भाभी ने इस दुनिया से विदा ले ली। दुर्गा भाभी उन चंद महिलाओं में थीए जिन्होने अंगेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्तिमें हिस्सा लिया, लेकिन आज इस क्रान्तिकारी महिला के बारे में जानने वाले चंद लोग ही हैं, क्योंकि उन्होनें कभी राजनीति में रुचि नही दिखाई। कौशाम्बी में उनके नाम पर पिछले वर्ष बना पुल चंद महीनों में ही अपने भ्रष्टाचार की कहानी सुनाने लगा है। दुर्गा भाभी की जन्मभूमि या कर्मभूमि में ऐसा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया गया, जिससे आज की पीढ़ी उनके बारे में जान सके।

लाल पदमधर

Lal Padmadhar

लाल पदमधर मूल रुप से मध्य प्रदेश के सतना जनपद के कृपालपुर के निवासी थे। रीवा से इन्टर की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। लाल पदमधर का परिवार स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए विख्यात परिवारों में से एक था। इसी क्रम में लाल पदमधर इलाहाबाद में आजादी आन्दोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। महात्मा गांधी के अंग्रेजो भारत छोड़ो के आवाहन पर पूरे देश में आन्दोलन तेज हो गए। सभी बड़े क्रान्तिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। इलाहाबाद इससे अछूता नही रहा। यहां की कमान अब युवाओं पर आ पड़ी थी। विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने 11 अगस्त, 1942 को बैठक करके अगले दिन जुलूस निकालने और कलेक्ट्रेट परिसर में तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया। तय कार्यक्रम के अनुसार विश्व विद्यालय से जुलूस प्रारम्भ हुआ। विजयलक्ष्मी पंड़ित की बेटी नयनतारा सबसे आगे तिरंगा लेकर चल रहीं थीए जिनके साथ थे लाल पदमधर। पुलिस ने कई स्थानों पर जुलूस को रोकने का प्रयास कियाए लेकिन करो या मरो की नीति पर चल रहे छात्र-छा़त्राओं ने अपने कदम पीछे नहीं हटाए। तत्कालीन कलेक्टर डिक्सन ने जुलूस को रोकने की जिम्मेदारी एसपी एसएन आगा को दे रखी थी। एसपी के आदेश पर पुलिस ने पहले लाठी चार्ज किया और फिर गोली चलाने लगी। गोलियों से बचने के लिए लोग जमीन पर लेटने लगे। नयनतारा जब लेटने लगी तो तिरंगा जमीन पर गिरने लगा। यह देख कर लाला पदमधर उनके हाथ से तिरंगा लेकर खुद जुलूस का नेतृत्व करने लगे। मनमोहन पार्क के पास पुलिस ने जुलूस को फिर वापस करने का प्रयास कियाए लेकिन जुलूस में शामिल कुछ अराजक तत्वों ने पुलिस पर पथराव कर दिया। अब पुलिस और उग्र हो गई तथा गोली चलाने की धमकी देने लगी। लाल पदमधर ने सीना सामने करते हुए कहा कि चलाओ गोली और तभी एक गोली लाल पदमधर के सीने को चीरती हुई निकल गई। जुलूस में भगदड़ मच गईए लेकिन जुलूस कचहरी तक गया और तिरंगा फहराया। शहीद पदमधर के पार्थिव शरीर को छात्रसंघ भवन पर रखा गयाए जहां से पुलिस उसको ले जाना चाह रही थी लेकिन विश्वविद्यालय के कुलपति ने इसकी अनुमति नहीं दी। शहीद पदमधर की प्रतिमा पूर्व में विश्वविद्यालय छात्रसंघ भवन के सामने स्थापित थी। 12 अगस्त 1986 को उनकी प्रतिमा कलेक्ट्रेट परिसर में स्थापित की गई। प्रतिमा स्थल पर हमेशा ताला लगा रहता है, लेकिन पूरे परिसर में सदैव गंदगी का अम्बार लगा रहता है। जिलाधिकारी कार्यालय और जनपद न्यायालय होने के कारण प्रतिदिन यहां हजारों लोगों का आना-जाना है। शहीद पदमधर के बलिदान से अंजान लोग पानी की बोतलए फल के छिलकेए रद्दी कपड़े और कागज फेंकते हैं, तो सामने सड़क पर सब्जी का ठेला लगाने वाले सड़ी हुई सब्जी फेंक देते है। रात में सुनसान स्थल होने के कारण शराबियों का सबसे मनपसंद स्थल बन जाता है। ऐसे में सुखद बात यह है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय अपने इस इतिहास पुरुष के बलिदान को आज भी किसी न किसी रुप में याद करता है। यहां के छात्र नेता अपनी दलगत राजनीति से परे जाकर अपने भाषण की शुरुआत और अंत शहीद लाल पदमधर जिन्दाबाद के नारे से करते हैं। यहां हर छात्र नेता शहीद लाल पदमधर के नाम की शपथ लेता है।

ठाकुर जोधा सिंह अटैया

Thakur Jodha Singh Ataiya

ठाकुर जोधा सिंह अटैया 1857 के उन क्रान्तिकारी नायकों में से एक हैं, जिन्होंने थोड़े समय में अंग्रेजी हुकुमत को नाकों चने चबवा दिए। उनका जन्म फतेहपुर जिले के अटैया रसूलपुर गांव में हुआ था। कहा जाता है कि झांसी की रानी लक्ष्मी बाई से प्रभावित जोधा सिंह ने तात्या टोपे से गुरिल्ला वार की कला सीखी और ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1857 की क्रांति में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जोधा सिंह अटैया क्रांतिकारियों का एक बड़ा दल बनाकर गुरिल्ला युद्ध के सहारे अंग्रेजो को मात देने लगे। सबसे पहले 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपूर गांव में रुके अंग्रेज दरोगा और सिपाही को जलाकर मार दिया। इस घटना के बाद उनकी सेना ने अंग्रेज अधिकारी कर्नल पावेल की हत्या कर दीए 07 दिसंबर 1857 को रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला करके एक मुखबिर को मार दियाए इसके दो दिन बाद नौ दिसंबरए 1857 को जहानाबाद ;तत्कालीन तहसीलद्ध के तहसीलदार को बंदी बनाकर सरकारी खजाना लूट लिया और सारे किसानों की मालगुजारी माफ करवा दी। इन घटनाओं के बाद भी वह लगातार अंग्रेजों से लड़ कर उन्हें मात देते रहे। ताबड़तोड़ घटनाओं से परेशान अंग्रेजों ने जोधा सिंह अटैया को डाकू घोषित कर दिया। जोधा सिंह के आतंक से परेशान अंग्रेजी शासन उनकी गिरफ्तारी की कोशिश कर रहा था, लेकिन वह हर बार चकमा देने में सफल हो जा रहे थे। 28 अप्रैल 1958 को वह अपने 51 साथियों के साथ खजुहा गांव लौट रहे थे और इसकी मुखबिरी किसी ने अंग्रेज अधिकारी कर्नल क्रिस्टाइल से कर दी। उसने जोधा सिंह और उनके 51 साथियों को गिरफ्तार कर उसी दिन खजुहा में स्थित इमली के एक पेड़ पर सभी 52 लोगों को एक साथ फांसी पर लटका दिया। इतना ही नहीं, उसने ऐलान कर दिया कि जो भी यह लाश उतारेगा उसे भी फांसी पर लटका दिया जाएगा। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार 35 दिन बाद ठाकुर जोधा सिंह के मित्र ठाकुर महराज सिंह ने 3-4 जून की रात्रि में लगभग 900 क्रान्तिकारियों के साथ इमली के पेड़ से कंकाल बन चुकी लाशों को उतार कर समीप के शिवराजपुर में गंगा घाट पर अंतिम संस्कार किया था। जोधा सिंह को एक पुत्री थीए जिसके सहारे उनका वंश आगे बढा लेकिन आजादी के अमृतकाल में जोधा सिंह के गांव रसूलपुर में उनकी जन्मस्थली तलाशना मुश्किल काम है, क्योंकि उनके पैत्रिक घर की पहचान के लिए कोई स्मारकए प्रतिमा या कोई संकेतक नही बनाया गया है। यहां तक कि गांव को जाने वाली सड़क भी उनके नाम पर नहीं है। जोधा सिंह के वंशज होने का दावा करने वाले रसूलपुर गांव के राकेश सिंह ने कुछ समय पूर्व पत्रकारों से कहा था कि पुश्तैनी मकान न जाने कब का गिर गया है, अब वहां खाली पड़े मैदान पर लोग कब्जा करके पुआल और गोबर रख रहें हैं। राकेश सिह स्वयं छोटा-मोटा काम करके अपना जीवन-यापन कर रहें है। यद्यपि स्वतंत्रता संग्राम के नायक जोधा सिंह का खजुहा में स्मारक बना है। जहां उनकी प्रतिमा के साथ शहीद स्तंभ भी है। इमली के पेड़ के नीचे 52 छोटे स्तंभ बने हैं, जो बताते हैं कि यहीं जोधा सिंह और उनके साथियों ने भारत मां की आजादी के लिए कुर्बानी दी थी। देश में एक साथ 52 सेनानियों को फांसी दिए जाने से बड़ा नरसंहार तो जालियांवाला बाग ;1919द्ध में ही हुआ थाए लेकिन देश की अधिकांश आबादी इस घटना से अभी भी अंजान है। ठाकुर जोधा सिंह अटैया को आजाद भारत में अभी भी व्यापक स्तर पर पहचान मिलना बाकी है।

मौलवी लियाकत अली

मौलवी लियाकत अली का जन्म आज के कौशाम्बी जनपद के चायल तहसील के महगांव कस्बे में हुआ था। उनका स्वाभाव बचपन से ही उग्र था। किशोरावस्था में ही अंग्रेजों का जुल्म देखकर मौलवी लियाकत अली खान ने बागी तेवर अपना लिया था। वह अपने साथियों की टोली के साथ आए दिन आजादी के लिए रणनीति बनाते थे। कम समय में वह क्रान्तिकारियों के अगुवा बन गए। वर्ष 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश में बगावत की लहर चली तो मौलवी लियाकत अली खान खुलकर सामने आ गए। 06 जून, 1857 को भारतीय सैनिकों ने शहर में विद्रोह कर दियाए जिसमें बड़ी संख्या में अंग्रेज सैनिक मारे गए या फिर भाग निकले। छठीं रेजीमेंट के रामचंद्र अपने साथियों के साथ बगावत कर मौलवी के साथ हो लिए। 07 जून, 1857 को मौलवी लियाकत अली ने इलाहाबाद को स्वतंत्र घोषित कर खुसरोबाग को अपना मुख्यालय बनाया। शहर पर कब्जा करने के बाद मौलवी ने अपनी सरकार चलाई। शहर प्रबंधन और कानून व्यवस्था के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की गई। मौलवी लियाकत अली के तेवर को देखकर अंग्रेजों को पीछे लौटना पड़ा। 10 जून को मौलवी और उनके साथियो ने इलाहाबाद के किले पर कब्जा करने का प्रयास किया। 11 जून को कर्नल नील एक बड़ी सेना लेकर गंगा नदी के दूसरे तट से पहुंच गए। किले के अदंर तैनात सिक्ख रेजीमेंट से मौलवी को सहयोग की उम्मीद थीए लेकिन वह अंत तक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। अकबर द्वारा निर्मित जामा मस्जिद के सहारे किले में प्रवेश का प्रयास किया गयाए लेकिन असफल रहे। किले की चाबी शहर के एक खत्री परिवार के पास रहती थी और उसने चाबी देने का आश्वासन दिया थाए लेकिन उसने धोखा दे दिया। 15 जून को मौलवी की सेना और अंग्रेजों की सेना के बीच किले के बाहर युद्ध हुआए लेकिन हथियार से कमजोर मौलवी की सेना पराजित हो गई। बहुत सारे सैनिक मारे गये या फिर घायल हो गए। 16 जून को कर्नल नील ने खुसरो बाग पर आक्रमण कर दिया। ऐसे में मौलवी को चेतावनी दी गई कि अगर उसके लोगों ने हथियार नही डाले तो पूरे शहर में आग लगा दी जाएगी। 17 जून को मौलवी अपने हजारों समर्थकों के साथ कर्नल नील की सेना को चकमा देकर कानपुर की ओर चले गए। 18 जून को कर्नल नील ने शमसाबाद और आस-पास के मेवाती मुसलमानों के गावों को जला दियाए जिसने भी भागने की कोशिश की उसे गोली मार दी गयी। कहा जाता है कि इस नरसंहार में 6,000 लोग मार दिए गए थे। इस प्रकार लियाकत अली का 07 जून से 17 जून 1857 तक इलाहाबाद में कब्जे का अंत हुआ। कानपुर में भी मौलवी चुप नही बैठे। वह अंग्रेजों से लड़ते रहे और गंगा के उस पार अपना कब्जा बनाए रखा। 1858 में मौलवी ने आखिरी लड़ाई मेजर वर्कले के विरुद्ध लड़ीए लेकिन यहां भी मौलवी अंग्रेजों के हाथ नही आए। विद्रोह की विफलता के बाद मौलवी पहले गुजरात और फिर वहां से बम्बई चले गएए जहां एक दिन मस्जिद में उपदेश देते समय लोगों ने उन्हें पहचान लिया और पुलिस को सूचना दे दी। 07 जुलाई, 1871 को उन्हें गिरफ्तार कर इलाहाबाद लाया गयाए जहां उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गई। सजा के बीच 01 मार्च, 1881 को उनकी मृत्यु हो गई। देश के लिए शहीद इस सपूत को उनके अपने ही भूल गए हैं। गांव में न तो उनकी कोई निशानी बची है और न उन्हें कोई याद करने वाला। उनका पुश्तैनी मकान खंडहर में बदल चुका है। मौलवी लियाकत अली खान की याद में स्मृति स्थलए सड़क और जिले का प्रवेश द्वार बनाने के लिए स्थानीय लोगों द्वारा प्रयास किए गएए लेकिन किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। ऐसे में आज देश के अधिकांश शहरए कस्बे और गावों में ठाकुर रोशन सिंहए दुर्गा भाभी या मौलवी लियाकत अली जैसे लोगों के परिवार मिल जाएंगेए जिनके पूर्वजो ने देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दियाए लेकिन युवा पीढ़ी उनके नाम और कारनामों से अंजान है। आजाद भारत में बनी कांग्रेस सरकार ने उन तमाम लोगों को महिमा मंड़ित कियाए जो उसकी विचारधारा से मेल खाते रहे और सदैव की तरह सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक उपेक्षित ही रह गए। अगर सब कुछ ऐसे ही रहा तो आने वाले कुछ दशकों के बाद देश को आजाद कराने वाले सेनानियों की सूची चंद पन्नों में सिमट कर रह जाएगी।

साउथ मलाका जेल

UP jails will now be known as 'Correction Homes'

1857 में आजादी आन्दोलन का बिगुल बजते ही प्रयागराज में आन्दोलन प्रारम्भ हो गया था। महत्वपूर्ण स्थान होने के कारण शुरु से ही तत्कालीन इलाहाबाद अब प्रयागराज में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अंग्रेज हुकुमत ने पूरी व्यवस्था कर रखी थी। प्रयागराज की साउथ मलाका जेल उस समय कुख्यात जेल हुआ करती थी, यद्यपि आज इस जेल का नामोनिशान तक मिट गया है। आजादी आन्दोलन के सेनानियों को इस जेल में बंद करके बड़ी कठोर यातनायें दी जाती थी। इस जेल का निर्माण 1819 के आस-पास हुआ था। कहा जाता है कि इसमें अलग-अलग साइज की दो दर्जन से अधिक बैरकें थी और कैदियों को उनके गुनाह के अनुरुप कोठरियों में रखा जाता था। आजादी आन्दोलन प्रारम्भ हो जाने के बाद यहां आने वाले अधिकांश कैदी आन्दोलनकारी ही रहते थे। स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार जिन कैदियों को फांसी की सजा सुनाई जाती थी, उन्हें छोटी-छोटी तनहाई वाली बैरकों में रखा जाता था। यहां कैदियों को दी जाने वाली यातनायें चर्चा का विषय हुआ करती थी। कैदियों को बांधकर पिटाई के बाद उनके शरीर में पिसा हुआ नमक लपेट दिया जाता था। यह जेल काकोरी कांड में अभियुक्त बनाए गए ठाकुर रोशन सिंह को फांसी दिये जाने के बाद पूरे देश में चर्चित हो गई थी।

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आजादी के आन्दोलनकारियों को दी गई तमाम अमानवीय यातनाओं की मौन साक्षी इस जेल के स्वरुप में आजादी के बाद से ही लगातार बदलाव किए गए। कुछ समय तक यह सुधारगृह के रुप में जानी जाती रही। शासन द्वारा 1950 में जेल को नैनी प्रयागराज में स्थानान्तरित कर दिया गया और यहां बांग्लादेशी शरणार्थियों को आश्रय दिया गया। कहा जाता है कि कुछ समय तक यहां राजकीय मुद्रणालय का कार्य होता रहा और फिर रानी बेतिया को बेच दिया गया। 1961-62 तक इस ऐतिहासिक धरोहर का अस्तित्व किसी न किसी रुप में बना रहाए लेकिन 1961 में मेडिकल कॉलेज खुलने के बाद जब अस्पताल की जरुरत पडी तो जेल ही अस्पताल में बदल दी गई। लोक निर्माण विभाग को जेल के स्थान पर अस्पताल बनाने का दायित्व मिला। जेल के कुछ भाग में लोक निर्माण विभाग ने अपना कब्जा जमा रखा थाए जिसे अस्पताल प्रशासन ने जुलाई 2016 में खाली करा लिया और इमारत को जमींदोज कराकर अस्पताल का भवन बनवा दिया। इस प्रकार आजादी के इतिहास से जुड़ी एक ऐतिहासिक विरासत स्वतंत्र भारत में मात्र 69 वर्ष में ही इतिहास के पन्ने पर सिमट गई। इसको ऐतिहासिक धरोहर बनाने का प्रयास किसी ने भी नहीं किया।

हरि मंगल

 

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