लखनऊः देश में आजकल आंदोलनों और हड़तालों का दौर चल रहा है। एक ओर किसान पिछले 100 से ज्यादा दिनों से आंदोलन कर रहे हैं, वहीं अब बैंक कर्मी भी सरकार को किसानों के जैसे बड़े आंदोलन की चुनौती दे रहे हैं। फिलहाल अभी बैंक कर्मियों ने सिर्फ दो दिनों की हड़ताल की थी। बैंकिंग सेक्टर में ये हो हल्ला इसलिए मचा है, क्योंकि देश की मोदी सरकार ने बजट में आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों के निजीकरण का ऐलान किया है। देश में पहले ही सरकारी बैंकों की संख्या 28 से घटकर 12 पर आ चुकी है। सरकार के इस फैसले के विरोध में ही अब देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने हड़ताल का आह्वान किया था, जो 15 और 16 मार्च को हुई। हड़ताल तो खत्म हो गई, लेकिन बैंककर्मियों ने सरकार को किसान आंदोलन जैसे बड़े आंदोलन की धमकी दी है। बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं। उनका कहना है कि जब सरकारी बैंकों को मज़बूत करके अर्थव्यवस्था में तेजी लाने की ज़िम्मेदारी सौंपने की ज़रूरत है, उस वक़्त सरकार एकदम उल्टे रास्ते पर चल रही है। वहीं सरकार का कहना है कि उसके इस फैसले से देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।
निजीकरण पर सरकार का तर्क
बैंकों के निजीकरण पर सरकार का तर्क है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी। दरअसल, सरकार इसलिए भी ऐसा कर रही है क्योंकि सरकार के पास संसाधनों का अभाव हैं, ऐसे में राजस्व जुटाने के लिए सरकार निजीकरण का रास्ता अपना रही है। बैंककर्मियों को भरोसा दिलाते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सभी बैंकों का निजीकरण नहीं होगा और यह जब भी होगा तो कर्मचारियों के हितों की रक्षा की जाएगी। उन्होंने कहा कि निजीकरण का फैसला काफी सोच-समझकर लिया गया गया है और हम चाहते हैं कि बैंकों में और अधिक इक्विटी आए। वित्तमंत्री ने कहा कि जिन भी बैंकों का निजीकरण होगा, उनके हर स्टाफ सदस्यों के हितों को सुरक्षित रखा जाएगा। मौजूदा कर्मचारियों के हितों की हर कीमत पर रक्षा होगी। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की नीति बिल्कुल साफ कहती है कि हम सरकारी बैंकों के साथ रहेंगे। कर्मचारियों के हितों को बिल्कुल सुरक्षित रखेंगे। उन्होंने आगे कहा कि हमने सार्वजनिक उद्यम नीति की घोषणा की थी, जिसमें हमने उन चार क्षेत्रों को चिह्नित किया है जहाँ पर सरकार की मौजूदगी रहेगी। कुछ जगहों पर सरकार की मौजूदगी कम रहेगी, लेकिन वहां भी वित्तीय संस्थान रहेंगे। निर्मला कहती हैं कि इसका मतलब है कि वित्तीय क्षेत्र में भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम रहेंगे। सभी का निजीकरण नहीं होने जा रहा है।
क्यों हो रहा निजीकरण का विरोध
सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे बैंककर्मियों का मानना है कि बैंक राष्ट्रीयकरण के समय ही साफ था कि प्राइवेट बैंक देश हित की नहीं अपने मालिक के हित की ही परवाह करते हैं। इसीलिए यह फैसला न सिर्फ कर्मचारियों के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए ख़तरनाक है। पिछले कुछ सालों में जिस तरह आईसीआईसीआई बैंक, यस बैंक, एक्सिस बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक की गड़बड़ियां सामने आईं, उससे यह तर्क भी कमज़ोर पड़ता है कि निजी बैंकों में बेहतर काम होता है। निजीकरण के विरोध को देश के हित से जोड़कर समझें तो हमें जानना होगा कि भारत सरकार कई उपक्रम संचालित करती है, जिनमें महारत्न, नवरत्न, मिनी रत्न आदि कम्पनियां आती है। इसके अलावा सरकार दूरसंचार, बीमा, बैंक इत्यादि उपक्रम भी संचालित करती है। जिनका मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना न होकर सामाजिक लाभ पहुंचाना होता है। इन्हें संक्षेप में पीएसयू यानि कि ‘पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग’ कहा जाता है।
अब सरकार ने फरवरी में पेश किए 2021-22 के आम बजट में घोषणा की है कि सरकार इन पीसीयू को चलाने में सक्षम नही है, अतः इनको निजी हाथों में बेच दिया जाएगा। इसका सबसे बड़ा नुकसान ये होगा कि उधोगपति सिर्फ लाभ कमाना चाहेंगे इसलिए गरीबों के उत्थान के लिए चल रहे सारे प्रयास बंद कर देंगे, क्योंकि इनसे कम्पनियों को कोई लाभ नहीं मिलता। व्यापार में एकाधिकार होने पर उद्योगपति कीमतों को अपने नियंत्रण में ले लेंगे और मनमाने ढंग से बढ़ाएंगे, जिससे आम आदमी का जीवन दूभर होता जाएगा। ये पीसीयू आज के समय सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करते हैं, बेरोजगारों और विद्यार्थियों के लिए रोजगार के अवसर पूर्ण रूप से खत्म हो जाएंगे।यहां पर ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ भी एक बड़ा मसला है। ये एक ऐसी अनधिकृत व्यवस्था है, जिसमें उद्योगपतियों के हित में सरकारी प्रशासन काम करता है। इसी कारण यहां बैंकों में राजनीतिक दखल ज्यादा है, जिसके चलते वो उद्योगपतियों के लिए काम करते दिखते हैं। सरकारी बैंकों के एनपीए बढ़ने का एक बड़ा कारण ये भी है। इससे उनका लाभ कम हो जाता है। ऐसे में सरकार अपने करीबी क्रोनी को इन बैंकों को सस्ते दामों पर दे सकती है। देखा जाए तो अभी किसी भी तरह से निजीकरण का फैसला सही नहीं है, क्योंकि महामारी के कारण हमारी अर्थव्यवस्था पहले ही बीमार हुई पड़ी है। ऐसे में बैंकों का सही मूल्य नहीं मिल सकेगा और इसका नुकसान भी सरकारी खजाने को ही उठाना पड़ेगा।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण
देश में सबसे पहला भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण 1949 में हुआ था। इसके बाद 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का राष्ट्रीयकरण हुआ। जिसके बाद इंदिरा गांधी की सरकार में साल 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। इसके पीछे वजह बताई गई कि यह बैंक देश के सभी हिस्सों को आगे बढ़ाने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और सिर्फ अपने मालिक-सेठों के हाथ की कठपुतलियां बने हुए हैं। इस फैसले को ही बैंक राष्ट्रीयकरण की शुरुआत माना जाता है। इसके बाद 1980 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, लेकिन इसके बाद साल 1990 के दशक में ‘वाशिंगटन कान्सेस’ के तहत केंद्र सरकार ने निजीकरण की ओर रुख करना शुरू किया। इसका मुख्य कारण ये बताया गया कि बाज़ार को आगे बढ़ाया जाए और देश की अर्थव्यवस्था में सरकार का दखल कम से कम हो। इससे सरकारी क्षेत्र पिछड़ता गया और निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिलने लगा। इसका नतीजा ये निकला कि संसार भर में असमानताएं बढ़ने लगीं।
निजी बनाम सरकारी बैंक
निजीकण के पीछे सरकार का उद्देश्य राजस्व जुटाना है, लेकिन उसका ये फैसला सरकार के लिए कहीं ज्यादा भयावह हो सकता है। अब अगर निजी और सरकारी बैंको की तुलना की जाए तो तरक्की के मामले में निजी बैंक सरकारी बैंकों से बेहतर नज़र आते हैं, लेकिन कई और ऐसे मुद्दे हैं जिनमें सरकारी बैंक ही जनता के काम आ सकते हैं। भारत की लगभग 90 फीसदी आबादी गरीब है, जिनकी सुधि ये सरकारी बैंक ही लेते हैं। इसीलिए आपको छोटे से छोटे गांव और कस्बों में भी सरकारी बैंकों की शाखाएं मिल जाएंगी। वहीं निजी बैंक सिर्फ वहीं अपनी शाखाएं खोलते हैं, जहां उनको अपना फायदा नज़र आता है। कोरोना काल में भी सरकारी बैंक ही आम आदमी के काम आए न कि निजी बैंक। लॉकडाउन में भी निजी बैंकों के मुकाबले सरकारी बैंक लोगों की सेवा के लिए आगे आए। इसके अलावा सरकारी योजनाओं का लाभ भी सरकारी बैंक ही ज्यादा देते हैं न कि निजी बैंक। फिर वो चाहें जन-धन खाते खोलने की बात हो या नकदी के लेन-देन। ये इसलिए संभव हो सका क्योंकि सरकारी बैंकों का मकसद निजी बैंकों की भांति अपना लाभ कमाना नहीं है, बल्कि उनकी स्थापना ही लोगों के विकास के लिए हुई। इसके अलावा बैंकों को निजी हाथों में सौंपने पर बड़े संस्थानों के लेन-देन में तो वो आगे होंगे, लेकिन गरीब और छोटे लोगों के खातों की तरफ उनकी नज़र नहीं जाएगी। इससे फिर से वो समस्या सामने आएगी, जो 1969 से पहले थी जब निजी बैंक अपनी ही कंपनियों को ज्यादा कर्ज बांटते थे।फिलहाल सरकार अगर निजीकरण करने की बजाय सरकारी बैंकों को कुछ सब्सिडी तो संभव है कि उनके एनपीए में कमी आ जाए।
सरकार के लिए बोझ सरकारी बैंक
पिछले तीन सालों में ही सरकार बैंकों में डेढ़ लाख करोड़ रुपए की पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़ से ज़्यादा की रकम रीकैपिटलाइजेशन बॉन्ड के ज़रिए भी दी गई है। अब सरकार की मंशा साफ है। वो एक लंबी योजना पर काम कर रही है, जिसके तहत पिछले कुछ सालों में सरकारी बैंकों की गिनती 28 से कम करके 12 तक पहुंचा दी गई है। सरकार अभी इस संख्या को और कम करना चाह रही है। कुछ कमजोर बैंकों को दूसरे बड़े बैंकों के साथ मिला दिया जाए और बाकी को बेच दिया जाए, यही फॉर्मूला है। इससे सरकार को बार-बार बैंकों में पूंजी डालकर उनकी सेहत सुधारने की चिंता से मुक्ति मिल जाएगी। पिछले 20 साल में कई बार इस पर चर्चा हुई है, लेकिन पक्ष-विपक्ष के तर्कों में मामला अटका रहा। मोदी सरकार इससे पहले भी कुछ बैंको का विलय और निजीकरण कर चुकी है।
बैंककर्मियों की सुनिए
एक बैंक की शाखा में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर काम करने वाले अर्पण पांडेय ने कहा कि निजीकरण होने से ग्रामीणांचल के लोगों को लोन मिलने, केसीसी आदि में काफी समस्याएं आएंगी। इसके अलावा सरकारी बैंकों में न्यूनतम राशि काफी कम होती है, जबकि प्राइवेटाइजेशन होने पर कम से कम 5 या 10 हजार की राशि मेंटेन करनी पड़ेगी। सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं को जिस तरह से सरकारी बैंक संचालित करते हैं, उस तरह से निजी बैंक कभी नही करेंगे। वर्तमान में भी सरकार की अधिकतर योजनाओं को सरकारी बैंक ही चला रहे हैं, निजी नही। इसके अलावा निजीकरण होने से बैंक कर्मचारियों के हित काफी ज्यादा प्रभावित होंगे। वर्क लोड बढ़ेगा, कंपटीशन बढ़ेगा और सैलरी पर भी काफी फर्क आएगा।
यह भी पढ़ेंः-अपराधी का धर्म नहीं होता, वह केवल अपराधी होता है: कानून मंत्री
वहीं एक अन्य बैंक में ऑफिसर के पद पर कार्यरत रचना पांडेय का कहना है कि निजीकरण का फैसला न तो बैंक कर्मचारियों के लिए सही है और न ही उपभोक्ताओं के लिए। हमारी नौकरी भी खतरे में पड़ जाएगी, वर्क लोड भी बढ़ जाएगा और जो सरकारी योजनाएं इस समय सही तरीके से चल रही हैं उन्हें चलाना भी मुश्किल हो जाएगा। रही बात एनपीए की तो, सरकारी बैंकों में एनपीए इसलिए ज्यादा होता है क्योंकि सरकार द्वारा चालयी जा रही मुद्रा योजना, कल्याणी आदि के तहत जो लोन दिए जाते हैं वह बिना किसी गांरटी के दिए जाते हैं। इसको लेकर सरकार का भी बैंकों पर दबाव रहता है। इस वजह से एनपीए बढ़ता है।