Thursday, January 9, 2025
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Homeटॉप न्यूज़Prayagraj Maha Kumbh 2025: सांस्कृतिक विरासत के कुंभ में अखाड़ों का वैभव

Prayagraj Maha Kumbh 2025: सांस्कृतिक विरासत के कुंभ में अखाड़ों का वैभव

Prayagraj Maha Kumbh 2025: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 13 दिसम्बर को विश्व के सबसे बड़े हिन्दू समागम ’प्रयागराज महाकुंभ 2025’ की कुशलता के लिए मां गंगा की पूजा अर्चना के साथ महाकुंभ पर्व का औपचारिक उद्घाटन किया गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने नगर कोतवाल कहे जाने वाले बड़े हनुमान जी, समुद्र कूप और अक्षयवट के दर्शन और पूजन करके संगम तट पर आने वाले 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं, तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों के लिए आर्शीवाद मांगा। प्रधानमंत्री द्वारा 5,500 करोड़ की लागत से बन रही 167 परियोजनाओं का लोकार्पण भी किया गया। प्रयागराज महाकुंभ 2025 का शास्त्र सम्मत शुभारम्भ 13 जनवरी से प्रारम्भ होकर 26 फरवरी तक चलेगा। इस अवधि में भारत के सभी राज्यों, शहरों कस्बों और गावों से संगम पर स्नान, ध्यान, पूजा अर्चना के लिए लोग प्रयाग आएंगे। अनुमान किया जा रहा है कि देश का प्रत्येक तीसरा देशवासी इस धार्मिक आयोजन में भागीदारी करेगा। देश के साथ ही विदेशों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक संगम तट पर आयेंगें।

प्रयागराज महाकुंभ 2025 के आयोजन की व्यवस्था को लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित प्रधानमंत्री समर्पित दिखायी पड़ते हैं। महाकुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं की सुख सुविधा और सुरक्षा के लिए 7,000 करोड़ से अधिक की लागत से तमाम परियोजनाएं और विकास कार्य कराये जा रहे हैं। यहां आने वाले करोड़ों लोगों को कोई आमंत्रण या निमत्रंण नहीं दिया जाता है। यहां सभी लोग अनादि काल से चली आ रही धर्म, अध्यात्म और सांस्कृतिक परम्परा के वाहक के रुप में स्वप्रेरणा से आते हैं। प्रयागराज कुंभ के महत्व से पहले इसके इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि प्रयागराज में कुंभ पर्व का आयोजन कब से शुरु हुआ इसका कोई सटीक प्रमाण नहीं है, लेकिन इसका जिक्र प्राचीन ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में अवश्य मिलता है। पौराणिक कथायें इसे देवासुर संग्राम में समुद्र मंथन से जोड़ती हैं। अमृत कलश को छिपाने निकले गरुण जी जब मृत्यु लोक में आये तो उन्होंने जहां-जहां अमृत कलश रखा अथवा उसमें से अमृत छलका वहां-वहां कुंभ पर्व की परम्परा शुरू हुई। यह स्थान प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन है।

मान्यता है कि देवासुर संग्राम 12 दिव्य दिवस तक चला जो कलयुग में 12 वर्ष के बराबर होता है, इसलिए उन चार स्थानों पर 12 साल के अंतराल पर कुंभ का आयोजन होता है। आधुनिक प्रमाणों में प्रयाग कुंभ के आयोजन का उल्लेख 3,464 ईसा पूर्व से मिलना बताया जाता है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता से पूर्व साधु संतों के माघ मास की अमावस्या को कुंभ योग में स्नान के लिए संगम तट पर आने का उल्लेख मिलता है। वैदिक काल और महाभारत काल के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी कुंभ के बारे में कोई अलग से विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। मत्स्य पुराण, स्कंध पुराण, भागवत पुराण में तमाम घटनाओं को गंगा, यमुना,संगम या स्नान दान से अवश्य जोड़ा गया है। कुंभ के साथ आदि शंकराचार्य का नाम जोड़ा जाता है।

माना जाता है कि 8वीं शताब्दी के महान संत आदि शंकराचार्य ने कुंभ को एक संगठित स्वरुप प्रदान किया। उन्होंने इस धार्मिक आयोजन को सांस्कृतिक उत्सव का स्वरुप देकर सनातन समाज के संतों और गृहस्थों को जोड़ा। विभिन्न मतों, पंथों, सम्प्रदायों में बिखरे साधु संतों, धर्म गुरुओं, धर्माचार्यों को संगम तट पर एक मंच पर ले आये, जिसके कारण यह आयोजन हिन्दू समाज का महासम्मेलन बन गया। राजा हर्षवर्धन के कार्य काल से कुंभ मेले के बारे में तो नहीं, लेकिन संगम तट पर धार्मिक समारोह के आयोजन का विस्तृत वर्णन मिलता है। हर्षवर्धन के कार्यकाल में आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण ग्रंथ सि-यू-की में लिखा कि सम्राट हर्षवर्धन के समय में प्रयाग के संगम तट पर प्रत्येक पांच वर्ष में ’महामोक्षपरिषद’ नाम का एक बड़ा धार्मिक आयोजन किया जाता था।

ह्वेनसांग छठें महामोक्षपरिषद में शामिल हुआ था, जिसमें सम्राट हर्ष के अधीन 18 राज्यों के राजा भी सम्मिलित हुए थे। महामोक्ष परिषद समारोह में हिन्दू समाज के साधु संतों, ब्राम्हणों, अनाथों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु भी शामिल हुए थे। उल्लेखनीय है कि सम्राट हर्ष बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। यह समारोह साढ़े चार माह तक चला था। हर्षवर्धन ने बीते पांच साल में जो भी धन दौलत संग्रह किया था, उसे सबको दान कर दिया जिसमें तमाम बहुमुल्य रत्न और उनके व्यक्तिगत आभूषण भी थे। तमाम इतिहासकार महामोक्षपरिषद को ही कुंभ की मान्यता देते आ रहे हैं। इसके बाद से कुंभ का विवरण किसी न किसी रुप में सामने आने लगा है, लेकिन पहले के कुंभ आयोजन में हाल के वर्षो जैसी भव्यता और दिव्यता नहीं रहती थी।

प्रयाग कुंभ के महात्म्य का बहुत विस्तृत वर्णन तो नहीं मिलता है, लेकिन ऋग्वेद, मत्स्य पुराण, महाभारत, प्रयाग महात्म जैसे प्रमुख ग्रंथों में प्रयाग ,गंगा, त्रिवेणी, संगम, माघ मास आदि का महत्व वर्णित है। मत्सय पुराण में गंगा ,यमुना और त्रिवेणी की पवित्रता का वर्णन है। तुलसीदास जी ने अपने रामचरितमानस में भी इस पावन तीर्थ का वर्णन किया हैं। कहा जाता है कि भगवान राम वनवास को जाते समय मां सीता और भाई लक्षमण के साथ भारद्वाज मुनि के आश्रम में पधारे थे और लंका पर विजय के बाद गंगा स्नान के लिए प्रयाग आये थे। प्रयागराज के एक पुरोहित परिवार के पास प्रभु श्री राम की वंशावली सुरक्षित बताई जाती है।

त्रिवेणीं माधवं सोमं, भरद्वाजं च वासुकिम।
वन्दे अक्षय वटं शेषं प्रयागं तीर्थ नायकम्।।

इस स्लोक के माध्यम से प्रयाग के जिन आठ पावन तीर्थो को श्रेष्ठ बताया गया है उनमें त्रिवेणी, द्वादश माधव, सोमेश्वर महादेव, महर्षि भारद्वाज, नागवासुकी, अक्षयवट, शेष भगवान और तीर्थराज प्रयाग शामिल है। महाभारत काल में प्रयागराज को एक पवित्र तीर्थ स्थल कहा जाता था। महाभारत में भी कई स्थानों पर प्रयाग का वर्णन आता है। भीष्म पर्व में भीष्म पितामह का अंतिम संस्कार प्रयाग में गंगा तट पर किये जाने का वर्णन है। कुछ ग्रंथों में संगम में स्नान ,दान तथा अनुष्ठान को विशेष महत्व देते हुए प्रयाग को मोक्षस्थली और मानव के 84 लाख योनियों से मुक्ति का स्थल बताया गया है। कहा जाता है कि धरती पर प्रयाग ही वह स्थल है, जहां श्रद्धालुओं, संतों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थ की सिद्धि प्राप्त होती है। महंत अवधेष दास जी कहते है कि धर्म शास्त्रों के अनुसार प्रयाग कुंभ एक प्रमुख तीर्थ और धार्मिक आयोजन है।

यह धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। कुंभ में स्नान और धार्मिक अनुष्ठान करने से मानव मन में पवित्रता आती है, उसके कष्टों का नाश और मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य जितेन्द्रानंद सरस्वती जी बताते हैं कि प्रयाग एक ऐसा पवित्र तीर्थ स्थल है, जहां न केवल गंगा यमुना और सरस्वती का मिलन होता है, अपितु कुछ धर्म शास्त्र तो इन नदियों को देवी देवताओं का प्रतीक बताते हुए कहते हैं कि यहां मानव ही नहीं देव दनुज मानव और किन्नर भी गंगा स्नान और पुण्य लाभ के लिए आते हैं। प्रयाग के महत्व को लेकर प्रचलित एक कथा में कहा गया है कि मानव जब अपने जीवन में पाप करता है तो पुण्य क्षेत्र में दर्शन करने से उसे मुक्ति मिल जाती है, लेकिन जब पाप पुण्य क्षेत्र में होता है तो उसका निवारण कुंभकोण तीर्थ जाने पर होता है।

कुंभकोण तीर्थ का पाप शिव नगरी काशी में जाकर क्षम्य होता है। काशी का पाप प्रयाग में, प्रयाग का पाप यमुना में, यमुना का पाप सरस्वती में और सरस्वती में हुआ पाप गंगा में और गंगा में हुए पापों का नाश त्रिवेणी स्नान से होता है। त्रिवेणी में हुए पाप का नाश प्रयाग में देह त्यागने से होता है। ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में भी लिखा है कि कुछ ऐसे लोग भी थे जो सप्ताह भर व्रत रखते थे और सातवें दिन शरीर त्यागने के लिए संगम की बीच धारा में कुद कर जल समाधि ले लेते थे। आज लोग जल समाधि तो नहीं लेकिन देश-विदेश के करोड़ों लोग माघ मास में प्रयाग आकर संगम, त्रिवेणी में स्नान, दान और अनुष्ठान को लालायित रहते हैं।

Prayagraj Maha Kumbh 2025: सबसे बड़े आध्यात्मिक जागरण का केंद्र है कुंभ मेला

प्रयाग का यह धार्मिक समागम कुंभ मेला हिन्दू समाज के सबसे बड़े आध्यात्मिक जागरण का एक केन्द्र भी माना जाता है। देश-विदेश के मठ, मन्दिरों, गुफाओं और कंदराओं में तपस्यालीन साधु संत कुंभ के अवसर पर यहां आकर समाज में क्षीण हो रही धार्मिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना का जागरण करते हैं। एक माह से अधिक अवधि तक चलने वाले इस आयोजन में धर्माचार्यों के शिविर में बने आकर्षक मंचों से वैदिक ऋचाओं का उच्चारण, भजन, कीर्तन, प्रवचन, राम लीला, रासलीला तथा नाट्य प्रस्तुतियों के माध्यम से लोगों को धर्म और आध्यात्म के बारे में ज्ञान देने का प्रयास किया जाता है। प्रयाग में इस अवसर पर विभिन्न मतों, पंथों ,सम्प्रदाओं से जुड़े साधु संन्यासी के साथ ही बड़ी संख्या में नागा संन्यासी या अखाड़ों का दल उपस्थित रहता है, जो कुंभ पर्व के महत्वपूर्ण अंग है। कहा जाता है कि आदि काल से ही भारत में स्थापित संत समाज विभिन्न मत, पंथ और संम्प्रदायों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण एक-दूसरे से अलग थलग रहते थे, जिसके कारण सनातन धर्म का वैभव क्षीण होता रहा।

समाज में अलग-अलग रह रहे संत समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ने का श्रेय जगतगुरु आदि शंकराचार्य को दिया जाता है। उनके प्रयास और प्रेरणा से दशनामी संगठन बना जिसने साधु समाज को एक ध्वज के नीचे संगठित किया। इन्होंने ही सनातन धर्म के वैभव के संरक्षण के लिए भारत वर्ष के चार कोने में चार पीठ, ज्योतिषपीठ बद्रीकाश्रम, श्रृगेंरी पीठ, द्वारिका पीठ और गोवर्धन पीठ की स्थापना की जो अभी तक उसी रुप में विद्यमान है। इन पीठों पर आसीन होने वाले सन्यासी ’शंकराचार्य’ की पदवी धारण करते है। समाज में इन पीठों और उस पर आसीन पूज्य शंकराचार्यो का पद आज भी बहुत ही मान और पूज्यनीय पद माना जाता है। कुंभ में भी प्रशासन की ओर से इन पीठों पर आसीन पूज्य शंकराचार्यो को सर्वोच्च सम्मान और सुविधाये प्रदान की जाती है।

Prayagraj Maha Kumbh 2025: अखाड़ों का उदय

आदि शंकराचार्य ने विधर्मियों से धर्म की रक्षा के लिये दशनामी परम्परा के साधु संतों में से कुछ लोगों का एक अलग दल बनाया और इनको शस्त्र विद्या में निपुण होने का प्रशिक्षण दिया गया। शस्त्र विद्या में निपुण साधुओं का संगठन अखाड़ा के नाम से विख्यात हुआ जिनका एक मात्र उद्देश्य सनातन धर्म संस्कृति की रक्षा करना था। यही दशनामी अखाड़े आज महाकुंभ और कुंभ की शोभा माने जाते है। इन अखाड़ों की कमान आज भी शंकराचार्य के पास है। सभी अखाड़ों के आचार्य महामंड़लेश्वर, महामंड़लेश्वर इन चारों पीठों के शंकराचार्यो को अपना पूज्य मानते हैं। देश में कुल 13 आखड़ों को अखाड़ों को मान्यता दी गई है। यह अखाड़े तीन अलग अलग मत और पंथ के है।

1-शैव सन्यासी सम्प्रदाय: इस सम्प्रदाय के कुल 7 अखाड़ों को मान्यता दी गई है जिसमें 10 लाख से अधिक साधु सन्यासियों के होने का अनुमान है। यह सभी दशनामी परम्परा या सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते है। इन अखाड़ों का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। प्रचलित मान्यताओं में सदाशिव शंकर के भक्तों को शैव श्रेणी में रखा जाता है। इस मत के मानने वालों में श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी, श्री पंच अटल अखाड़ा, श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी, श्री तपोनिधि आनंद अखाड़ा , श्री पंच दसनाम जूना अखाड़ा, श्री पंच दसनाम आ्वाह्न अखाड़ा और श्री पंच दसनाम पंच अग्नि अखाड़ा शामिल है। कुछ वर्षो पूर्व से अस्तित्व में आया किन्नर अखाड़ा इसी सम्प्रदाय में शामिल है लेकिन उसको अलग से मान्यता नहीं दी गई है। फिलहाल वह जूना अखाड़े के साथ है। इन सभी अखाड़ों के अपने अलग अलग आराध्य है जैसे अटल अखाड़ा के भगवान श्री गणेश, जूना अखाड़ा के भगवान दत्तात्रेय हैं।

2- वैरागी वैष्णव सम्प्रदाय: वैरागी वैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत कुल तीन अखाड़ों को मान्यता है जिसमें अधिकांश राम और कृष्ण के भक्त तथा रामानुज और वल्लभ सम्प्रदाय को महत्व देने वाले साधु संत है। इन अखाड़ों का विधिवत गठन 1729 में माना जाता है। इनमें श्री दिगम्बर अनी अखाड़ा, श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा और श्री पंच निर्मोही अनी अखाड़ा शामिल है।
3- उदासीन सम्प्रदाय: उदासीन सम्प्रदाय के अन्तर्गत भी तीन अखाड़ों को अखाड़ा परिषद से मान्यता दी गई है। मान्यता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से ऊंचा उठा व्यक्ति उदासीन संतों की परम्परा में आता है। इस अखाड़े की स्थापना प्रयागराज में 1842 में हुयी।

कालांतर में उदासीन महंतों में मतभेद के कारण 1942 में इसका विभाजन भी हुआ। इनमें श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा, श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा और श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा शामिल है। निर्मल पंचायती अखाड़े की स्थापना गुरु गोविंद सिंह के सहयोगी वीर सिंह ने की थी। इस अखाड़े में किसी भी प्रकार के धूम्रपान और नशे पर पूर्ण प्रतिबंध है। प्रयाग के कुभ और महाकुंभ में सभी अखाड़ों को संगम तट के समीप भूमि का आवंटन किया जाता है,क्योंकि कुंभ और महाकुंभ के अवसर पर तीन प्रमुख स्नान पर्वो मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और बसंत पंचमी को इन अखाड़ों का सबसे पहले स्नान होता है। इन अखाड़ों के स्नान का क्रम श्रेष्ठता के आधार पर अखाड़ा परिषद द्वारा निर्धारित किया जाता है। सबसे अंतिम स्नान क्रम में निर्मल अखाड़े को स्थान दिया गया है।

Prayagraj Maha Kumbh 2025: अखाड़ों का राजसी स्नान

प्रमुख स्नान पर्वो पर अखाड़ों से जुड़े आचार्य महामंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, श्रीमहंत आदि सोनेचांदी के सिंहासनों से सुसज्जित रथों पर सवार होकर अपने संतों और नागा सन्यासियों के साथ संगम स्नान को जाते हैं। इस शाही स्नान यात्रा को इस वर्ष से “राजसी स्नान’’ का नाम दिया गया है, जिसमें शस्त्र और शास्त्र का अतिमोहक दृश्य होता है। नागा सन्यासी अपने परम्परागत अस्त्र शस्त्र के साथ हैरत अंगेज कारनामें दिखाते हुए श्रद्धालुओं को खूब आकर्षित करते हैं जो यह प्रदर्शित करता हैं कि नागा संत आज भी युद्ध कौशल की विद्या में निपुण है। यही कारण है कि अखाड़ों से जुड़े नागा सन्यासी और धर्माचार्यो के दर्शन और चरण रज पाने की लालसा में देश विदेश से लाखों लोग कुंभ और महाकुंभ में संगम तट पर आते हैं। प्रयाग के त्रिवेणी महात्म पर जूना अखाड़े के आचार्य महामंड़लेश्वर स्वामी अवधेषानंद गिरि कहते हैं कि यह सामाजिक समरस्ता का पर्व है।

यहां तीन नदियां मिल रही हैं तो यह तीन धाराओं के मिलने का पर्व है। यहां विमर्श और मंथन के लिए स्थान है। यहां पूर्वकाल में शास्त्रार्थ होता रहता था कि लोक कल्याणकारी योजनाओं को कैसे जाग्रत रखा जाय। प्रयाग की धरती पर सदैव से सभी जातियों का सम्मान होता रहा है कभी कोई भेदभाव नहीं था। एकता समरस्ता का संदेश यहीं से निकलता है। सच्चे अर्थो में प्रयाग का कुभ आध्यात्मिक चेतना और सामाजिक समरसता का कुंभ है। प्रयाग और महाकुंभ को मिले महत्व का परिणाम है कि आज सारे भेदभाव भुलाकर संगम तट पर शैव, वैष्णव, नाथ, आर्यसमाज, कबीर पंथी,जैन, बौद्ध आदि सम्प्रदायों के लोग एक साथ एक मंच पर बैठकर धर्म, अध्यात्म और हिन्दू धर्म से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार विमर्श करके कोई एक मत स्थिर करते हैं। यहां हुए निर्णय या संदेश को लेकर यह धर्माचार्य अपने अपने मठ मन्दिरों और स्थानों पर जाकर समाज को अपने संदेश, प्रवचन आदि के माध्यम से जागृत करते हैं।

सामाजिक मान्यताओं में समय-समय पर हो रहे बदलावों से आज देश की दशा और दिशा राजनीतिक दलों के माध्यम से तय हो रही है, लेकिन उन सबसे इतर हमारे धर्माचार्य संगम तट पर आने वाले लाखों करोड़ों श्रद्धालुओं को धर्म, अध्यात्म, नैतिकता और प्राचीन रीति-रिवाजों और परम्पराओं पर चलकर क्षेत्र विशेष, धर्म विशेष, जाति विशेष के घेरे से निकल कर सकल विश्व के कल्याण के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आज यह पावन स्थली सच्चे अर्थों में धर्म,अध्यात्म और नैतिकता की सच्ची पाठशाला है, जहां सामाजिक जीवन को जीने की कला सीखी जा रही है। किन्नर अखाड़ें से जुड़ी कौशल्यानंद गिरि कहती है कि कुंभ पर्व सनातन धर्म का सबसे बड़ा त्योहार है। विश्व पटल पर हमारे राष्ट्र की पहचान है। इस बार लोग आकर भव्य दिव्य और स्वच्छ कुंभ देखेंगे। विदेशियों ने पहले भी कुंभ को देखा है, इस बार भी लोग आये और सांस्कृतिक जनजागरण का संदेश अपने साथ लेकर जायें। गंगा मइया तो समानता की बात करती हैं। तुलसीदास जी ने सदियों पहले लिखा कि देव दनुज किन्नर नर श्रेणी, सादर मज्जहि सकल त्रिवेणी अर्थात सब आदर पूर्वक त्रिवेणी मे सनान करते है।

Prayagraj Maha Kumbh 2025: सामाजिक समरसता

संगम तट पर आने वाले श्रद्धालुओं के बारे में आम धारणा है कि वह स्नान,ध्यान, जप तप, दान,पुण्य और अनुष्ठान के सहारे अपने कष्ट मुक्ति, मोक्ष अथवा मनोरथ पूर्ण होने की कामना करते हैं, परन्तु ऐसा नहीं है। इस आयोजन का हमारे लोक जीवन पर भी व्यापक प्रभाव है। हजारों परिवार के मुंड़न संस्कार, कर्ण छेदन, शादी ब्याह की प्राथमिक औपचारिकतायें, गुरु मंत्र, दीक्षा संस्कार इसी पावन भूमि पर किये जा रहे हैं। तमाम परिवारों के लोग अपने पूर्वजों के पद चिन्हों पर चलते हुये स्वप्रेरणा से कल्पवास जैसे कठिन व्रत की परम्परा का निर्वहन कर रहे है। महाकुंभ जैसे आयोजन में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों से आये श्रद्धालुओं में जाति पांति, ऊंच नीच, मत, पंथ, भाषा, क्षेत्र, प्रांत और सम्प्रदाय का बंधन नहीं दिखायी पड़ता है। कश्मीर से कन्याकुमारी और अरुणाचल से कच्छ तक की दूरी सिमट जाती है।

यह भी पढ़ेंः-Maha Kumbh पर्व में महिला साध्वियों की गूंज

लोग बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के साथ अपने रीति रिवाज, संस्कार, परम्पराओं को साझा करते और सुख दुख में एक दूसरे की मदद करते दिखायी पड़ेंगे। यूनेस्को द्वारा कुंभ को “मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’’ की सूची में शामिल किया जाना यह साबित करता है कि हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ है। संगम तट पर कुंभ,महाकुंभ के साथ ही हर वर्ष आयोजित होने वाले माघ मेले में विदेशियों की बढ]ती संख्या यह साबित कर रही है कि हमारी सनातन संस्कृति सकल विश्व में श्रेष्ठ और अनुकरणीय है। आगामी 13 जनवरी से 26 फरवरी तक देश विदेश के 40 करोड़ों श्रद्धालु अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों की पूर्ति की आस लिए प्रयाग तीर्थ में पधारेंगे, जिसके लिए देश और प्रदेश की सनातनधर्मी सरकार ने चाक चौबंद व्यवस्था की है ताकि “भव्य, दिव्य ,स्वच्छ और डिजिटल कुंभ’’ की परिकल्पना साकार रूप ले सके।

हरि मंगल

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