हवा में घुलता जहर, सांसों पर मंडराता संकट

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ठंड का मौसम शुरू होते या धान की कटाई के बाद देश और प्रदेश की राजधानियों, महानगरों और शहरों को जिस विकट समस्या से जूझना पड़ता है, वह है वायु प्रदूषण (Air pollution)। इसकी वजह से ऐसा जहरीला और दमघोंटू वातावरण बन जाता है, जिसमें सांस लेना मुश्किल और जीना मुहाल। हवा में जानलेवा गैसों की अधिकता बढ़ जाती है। आमतौर पर इसके लिए कई कारकों को चिन्हित किया गया है, जैसे- पराली को जलाना, कल-कारखानों और उद्योग धंधों से निकलने वाले तथा वाहनों से उत्सर्जित धुएं आदि। इसी मौसम में दीपावली भी होती है। सुप्रीम कोर्ट चाहे जितने भी आदेश पारित करे, उसका कोई खास असर नहीं दिखता है। उसकी अवहेलना करते हुए पटाखे छोड़े जाते हैं। पराली जलाई जाती है।

वातावरण धुंध व धुएं से आच्छादित हो जाता है। इससे प्रदूषण में गुणात्मक रूप से बढ़ोत्तरी होती है। वायु प्रदूषण के मानक निर्धारित हैं। सरकार की ओर से भी वायु प्रदूषण के नियंत्रण के लिए अनेक उपाय किए जाते हैं लेकिन देखा गया है कि वह कारगर नहीं हुए। ऐसे में क्या इसमें मात्र सरकार तथा इसके नियंत्रण के लिए गठित संस्थाओं की भूमिका है या आम नागरिकों की भी है ? सच्चाई तो यह है कि यह आम मुद्दा नहीं बन पाया है। वायु प्रदूषण से लेकर दमघोंटू वातावरण की चर्चा मीडिया से लेकर आम जन तक होती रहती है। इस पर चिंता भी व्यक्त की जाती है लेकिन व्यवहारिक स्तर पर बात उससे आगे नहीं बढ़ पाती है। प्रश्न है कि इस पर नियंत्रण क्यों नहीं हो पा रहा है ? आज यह ऐसा विषय है, जो सबके लिए विचारणीय है।

वायु प्रदूषण को मापने के लिए अनेक मानक तैयार किए गए हैं, जैसे- एक्यूआई और पीएम। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े के अनुसार, इस साल नवंबर महीने में देश की राजधानी दिल्ली में एक्यूआई (वायु गुणवत्ता सूचकांक) 800-900 के बीच दर्ज किया गया। नोएडा और गाजियाबाद के आंकड़े भी इसके आस-पास ही हैं। यह खतरनाक स्टेज है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक्यूआई 200 के आस-पास है, जो खराब के स्टेज में है। हम यहां इसी समस्या पर चर्चा करेगे। वायु प्रदूषण के एक नहीं, बल्कि अनेक कारक हैं। कार्बन मोनो ऑक्साइड, कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर नाइट्रेट एवं नाइट्रोजन ऑक्साइड इत्यादि गैसों को सबसे घातक माना जाता हैं। अगर यह गैस श्वास रोग से पीड़ित व्यक्ति की श्वास नली में प्रवेश कर जाए, तो उसकी मौत भी हो सकती है। इसमें कार्बन मोनो ऑक्साइड सर्वाधिक खतरनाक है और इसका उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है।

अंगीठी के जलने पर भी यही गैस निकलती है। धुआं, धूल व विषैली गैसें वातावरण में मिलकर लगातार हवा को प्रदूषित कर रही हैं। इसमें पेट्रोल, डीजल व मिट्टी तेल दहन का योगदान सबसे ज्यादा है। इसके साथ ही सीवर से निकलने वाली गैस, खुले में किया गया मल त्याग, खुले पड़े नाले, मृत जानवरों के शरीर आदि भी हवा को दूषित करते हैं। इसी प्रकार दीपावली के दिनों में पटाखों से यही गैस निकलती है, जो वातावरण में घुलकर उसे प्रदूषित करती है। यह गैस यदि किसी हृदय रोग से पीड़ित व्यक्ति के हृदय में प्रवेश कर जाए, तो वह ब्लड में घुल जाती है। इससे जब हृदय से पंप होकर ब्लड शरीर के दूसरे हिस्सों में जाता है तो यह गैस उसके साथ पूरे शरीर में फैल जाती है और शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में हृदयाघात से मौत भी हो सकती है।

खेतों में पराली जलाने से बढ़ा संकट

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धान की फसल के काटने के बाद जो उसका हिस्सा बच जाता है और जिसकी जड़ धरती में होती है, उसे पराली कहते हैं। पंजाब और हरियाणा में फसल पकने के बाद किसान फसल के ऊपरी हिस्से को तो काट लेते हैं क्योंकि वही उनके काम का होता है। बाकी अवशेष किसान के लिए बेकार की चीज है। पुराने समय में धान की फसल के तैयार होने के बाद हाथ से कटाई की जाती थी। इसके लिए श्रमिकों की जरूरत होती थी। इसमें समय भी लगता था। किसानों को अगली फसल के लिए खेत को तैयार करना होता था। इस प्रक्रिया का आधुनिकीकरण हुआ है। अब इस कार्य को मशीनों से किया जााता है। आजकल देश में धान की फसल की कटाई जल्दी और आसान करने के लिए हार्वेस्टर मशीन का प्रयोग किया जाता है। पंजाब और हरियाणा ही नहीं, अब उत्तर प्रदेश में भी यही प्रक्रिया अपनाई जा रही है। मशीन धान का ऊपरी हिस्सा तो काट लेती है और नीचे का हिस्सा पहले से ज्यादा बचता है। वह खेत में ही रह जाता है।

अक्टूबर और नवंबर महीने में किसानों को अगली रबी की फसल के लिए खेत खाली करना होता है। पराली को जमीन से काटने के बजाय किसान अपना समय बचाने के लिए उसमें आग लगा देते है। इसने पर्यावरण के लिए गंभीर समस्या पैदा कर दी है। इस पराली की जलने से वायु प्रदूषण बढ़ता है। इससे कार्बन मोनो ऑक्साइड (सीओ), मीथेन (सीएच4), पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (पीएएच) आदि जैसी जहरीली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनके आस-पास के क्षेत्र में फैलने से धुंध की एक मोटी चादर बन जाती है, जो अंततः वायु की गुणवत्ता और स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। यह दिल्ली के वायु प्रदूषण के प्राथमिक कारणों में से एक है। इसका मिट्टी के गुणों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अवशेषों को जलाने से निकलने वाली गर्मी से मिट्टी का तापमान बढ़ जाता है, जिससे मिट्टी के लाभकारी जीव मर जाते हैं। बार-बार अवशेष जलाने से सूक्ष्म जीवों की आबादी पूरी तरह नष्ट हो जाती है और मिट्टी में नाइट्रोजन और कार्बन का स्तर कम हो जाता है, जो फसल की जड़ के विकास के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।

वायु में उपस्थित धुएं से आंखों में जलन और सांस लेने में परेशानी होती है। यह दिल्ली, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर), पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश आदि राज्यों के आसमान पर छाने वाले धुएं और धुंध का बड़ा कारण है। इससे न सिर्फ गांव, बल्कि शहरी इलाके भी बुरी तरह प्रभावित हैं। पराली जलाने से रोकथाम के लिए सरकार की ओर दो स्तर पर काम किए गए हैं। एक तो इसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 के तहत गैर-कानूनी कृत्य माना गया है तथा ऐसा करने को अपराध घोषित किया गया है। इसके तहत छ माह के कारावास तथा 15 हजार रुपए जुर्माना का प्रावधान है। यह दंड खेत के रकबे के आधार पर है। सरकार की ओर से पराली प्रबंधन के कई नए उपाय सुझाए गए हैं, लेकिन उन पर किसान अमल करने से अपने कदम पीछे खींच रहे हैं।

जानिए क्या है एक्यूआई

एयर क्वॉलिटी इंडेक्स (वायु गुणवत्ता सूचकांक) अर्थात एक्यूआई हवा की गुणवत्ता जानकारी देता है। इससे पता चलता है कि हवा में किन गैसों की कितनी मात्रा घुली है। इस इंडेक्स की भी 6 कैटेगरी हैं। गुणवत्ता सूचकांक शून्य और 50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51 और 100 के बीच को ‘संतोषजनक’, 101 और 200 के बीच ‘मध्यम’, 201 और 300 के बीच ‘खराब’, 301 और 400 के बीच ‘बहुत खराब’ और 401 और 500 के बीच ‘गंभीर’ या खतरनाक माना जाता है। इसी सूचकांक के आधार पर केन्द्रीय/राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हवा में प्रदूषण के स्तर को निर्धारित करता है। इसके साथ ही वायु गुणवत्ता मापने के लिए पीएम2.5 और पीएम10 टर्म का उपयोग किया जाता है। पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर हवा में मौजूद कणों के साइज व सांद्रता को बताता है। जैसे पीएम 2.5 का तात्पर्य 2.5 माइक्रॉन से कम व्यास वाले सूक्ष्म कणों की प्रति घन मीटर में सांद्रता से है और पीएम10 का तात्पर्य 10 माइक्रॉन से कम व्यास वाले कणों की सांद्रता से है। हवा में पीएम2.5 की मात्रा 60 और पीएम10 की मात्रा 100 होने पर ही हवा को सांस लेने के लिए सुरक्षित माना जाता है।

गैसोलीन, तेल, डीजल ईंधन या लकड़ी के दहन से पीएम2.5 का अधिक उत्पादन होता है। अपने छोटे आकार के कारण यह फेफड़ों में गहराई से खींचा जा सकता है और पीएम10 की तुलना में अधिक हानिकारक होता है। इस तरह उपर्युक्त मानकों के आधार पर ही किसी देश, शहर तथा क्षेत्र के अंदर वायु प्रदूषण के स्तर को मापा जाता है तथा उसका निर्धारण किया जाता है। वर्तमान में सबसे स्वच्छा पर्यावरण और हवा वाले देशों में पहला नाम ऑस्ट्रेलिया का है। दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों की लिस्ट की बात करें तो भारत 8वें नंबर पर है।

सबसे ज्यादा प्रदूषित 05 देशों में पहले स्थान पर चाड, दूसरे पर इराक, तीसरे पर पाकिस्तान है, चैथे नंबर पर बहरीन और 5वें पर भारत का ही पड़ोसी देश बांग्लादेश है। प्रदूषण का भी हमेशा एक ही स्तर नहीं रहता है। यह मौसम और परिस्थितियों के अनुसार घटता-बढ़ता है। जैसे भिवाड़ी देश का सबसे प्रदूषित शहर है, जहां के पीएम2.5 की हवा में मात्रा 92.7 है। दूसरे नम्बर पर दिल्ली है, जहां यह मात्रा 92.6 है। दीपावली के बाद इसमें उछाल आ जाती है। वातावरण जानलेवा हालत में पहुंच जाता है। मौजूदा समय में भारत में औसतन पीएम2.5 कण 106 हैं, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानक से कई गुना ज्यादा हैं। दूसरी तरफ देश में वातावरण में पीएम-10 के औसतन 151 पार्टिकल मौजूद हैं, जो कि सामान्य से काफी ज्यादा हैं।

यूपी की हवा में प्रदूषण का स्तर

प्रदूषण से हवा में घुलता जहर, सांसों पर मंडराता संकट

यूपी के कई शहरों में प्रदूषण जानलेवा है। दिल्ली के आस-पास की हालत तो बद से बदतर है। दिल्ली का मौसम व आबो-हवा का वहां असर रहता है। यूपी का नोएडा 6वें स्थान पर है। यहां का एक्यूआई 499 है। गाजियाबाद, हापुड़, मेरठ, सहारनपुर, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर, कैराना फिरोजाबाद आदि जगहों पर वायु गुणवता सूचकांक 300 से ऊपर है, जो ‘बहुत खराब’ की श्रेणी में आता है। यहां पीएम2.5 की मात्रा भी हवा में 80 से अधिक है। जहां तक प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बात है, यहां की हालत भी चिंताजनक है। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय अर्थात 21 नवम्बर का जो आंकड़ा है, वह इस प्रकार है।

एक्यूआई का स्तर 160 से 200 के बीच है, वहीं पीएम2.5 की मात्रा 80 से 90 के बीच है तथा पीएम 10 की मात्रा 150 से अधिक है। आमतौर हवा में प्रदूषण पर जब चर्चा की जाती है, तो वह महानगरों और बड़े शहरों पर केन्द्रित रहती है। छोटे शहर इससे बाहर रह जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि उनकी हालत भी काफी खराब है। राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी (एनएएक्यूएम) नेटवर्क उत्तर प्रदेश के केवल सात शहरों में है, जबकि राज्य की 90 प्रतिशत आबादी पर निगरानी नहीं रखी जा रही है। एक पर्यावरण रिपोर्ट के अनुसार, गोरखपुर और मऊ में वायु प्रदूषण का स्तर उच्च है, लेकिन प्रदूषकों की निगरानी नहीं की जाती है।

रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था क्लाइमेट एजेंडा के अनुसार मऊ में पीएम2.5 का स्तर 342 था जबकि गोरखपुर में यह 225 पाया गया। हालांकि, इनका स्तर ऊंचा है, लेकिन ये शहर लखनऊ और नोएडा की तरह निरंतर निगरानी में नहीं हैं। संस्था की रिपोर्ट 15 जिलों की है, जो बलिया, मऊ, गाजियाबाद, आज़मगढ़, कानपुर, वाराणसी, गोरखपुर, सोनभद्र, इलाहाबाद, मीरजापुर, आगरा, लखनऊ, नोएडा, मुरादाबाद और शामली के वायु गुणवत्ता डेटा पर आधारित है। इसमें उन जिलों को शामिल किया है, जहां निगरानी की जाती है और जहां कोई निगरानी नहीं है। दोनों श्रेणियों के जिलों में वायु प्रदूषण की स्थिति मध्यम से लेकर बहुत खराब तक है।

प्रदूषण के विरुद्ध यूपी सरकार की पहल

प्रदूषण से हवा में घुलता जहर, सांसों पर मंडराता संकट

यूपी में बढ़ते प्रदूषण को लेकर सरकार चिंतित है। इसका स्थायी समाधान निकालने के लिए पहली बार प्रदूषण के खात्मे की दीर्घकालीन योजना बनाई गई है। इसमें विश्वविद्यालयों को शामिल किया गया है। प्रत्येक इलाके में प्रदूषण के मुख्य कारणों की खोज के लिए शोध किया जाएगा। प्रत्येक क्षेत्र की रिपोर्ट तैयार होगी। राज्य के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग गांव से लेकर शहरों तक के प्रदूषण को विभिन्न श्रेणी में बांटेगा। प्रदूषण में किस कारक का कितना योगदान है और किस शहर में किस तरह का प्रदूषण है, इस पर विश्वविद्यालयों के पर्यावरण विभाग प्रोजेक्ट तैयार करेंगे। इसके बाद डाटा को मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी से तैयार कर जिलेवार प्रदूषण की रिपोर्ट तैयार होगी, ताकि उसका खात्मा जड़ से किया जा सके।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के मुताबिक प्रत्येक क्षेत्र में वायु प्रदूषण की वजह अलग-अलग है। इसमें मुख्यतः पराली जलाना, इंडस्ट्री द्वारा उत्सर्जन, वाहनों का धुआं, राजमार्ग से सटे इलाकों का प्रदूषण आदि प्रमुख है। शोध में प्रत्येक इलाके में प्रदूषण में हिस्सेदार कारणों का ग्राफ बनेगा यानी प्रदूषण में किस कारक का कितना योगदान है, इसका डाटा तैयार किया जाएगा। पहले चरण में यूपी और इससे सटे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तराखण्ड को शोध में शामिल किया जाएगा। कार्यक्रम के पहले चरण में लखनऊ विश्वविद्यालय, शारदा यूनिवर्सिटी, गौतमबुद्ध नगर विवि और सीएसजेएमयू विवि को प्रोजेक्ट दिया गया है। खास बात यह है कि विभाग ने वर्ष 23-24 के लिए 109 प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है।

इसमें ए श्रेणी के प्रोजेक्ट को करीब 8.5 करोड़, इंजीनियरिंग को 82 लाख और साइंस टेक्नोलॉजी से जुड़े प्रोजेक्ट को 86 लाख रुपए दिए हैं। यूपी सरकार की यह पहल स्वागतयोग्य है। प्रदूषण प्रकृति, पर्यावरण और मानव जीवन के लिए घातक है। यह साइलेंट किलर है। इसका सबसे ज्यादा असर हमारे फेफड़ों पर पड़ता है लेकिन लगातार प्रदूषण के संपर्क मे रहने से शरीर के दूसरे अंग भी प्रभावित होते हैं। वायु प्रदूषण से कई बार शरीर में चकत्ते, स्किन में झुर्रियां, एलर्जी जैसी दिक्कतें भी होने लगती हैं।

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वायु प्रदूषण की वजह से समय से पहले बुढ़ापा महसूस होने लगता है। प्रदूषित हवा से आंखों में जलन, खुजली, पानी आने जैसी समस्याएं भी बढ़ जाती हैं। इससे बचने के लिए जागरूकता बहुत जरूरी है। प्रत्येक नागरिक की भूमिका है कि वह उन कारकों के विरुद्ध संघर्ष करे, जिससे हमारा वातावरण दूषित होता है। यह सरकार की जिम्मेदारी है तो आम नागरिक की भी है। सभी को स्वच्छ हवा और पानी मिले, यह सभी का अधिकार है तो वहीं पर्यावरण को संरिक्षत व सुरक्षित करना सबका कर्तव्य है। इसका कड़ाई से पालन हो।

कौशल किशोर