बंगाल में दोल के रूप में मनाई जाती है होली, दिखता है प्रकृति, आध्यात्म और कला का अनोखा संगम

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holi

कोलकाता: उमंग और उल्लास का त्योहार होली बंगाल में कुछ अलग तरीके से मनाया जाता है। यहां होली के मौके पर वसंत उत्सव अथवा दोल उत्सव मनाने की परंपरा है। होलिका दहन के दिन मनाया जाने वाला यह त्योहार बंगाल की उज्जवल सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है जिसमें उमंग और उल्लास के साथ भव्यता और शालीनता भी होती है।

इस परंपरा की शुरुआत बांग्ला साहित्य के पुरोधा गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी। टैगोर द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन के विश्वभारती विश्वविद्यालय में सबसे पहले वसंत उत्सव मनाया गया था, जो धीरे-धीरे लोकप्रिय होता गया और लगभग पूरे राज्य में मनाया जाने लगा। वसंत का मौसम और होली के रंगों से प्रेरित इस त्योहार की अपनी अलग विशेषता है। इसमें रंगों के साथ सौंदर्य है, कविता का रस है, संगीत की स्वर लहरियां हैं और इन सबके साथ है अनुशासित और शालीन नृत्य।

वसंत उत्सव के दिन पीली साड़ियों में सजी युवतियां माथे पर पलाश के फूलों का गजरा लगाये, चेहरे पर मंद मुस्कान और गालों पर गुलाल की छाप लिए ताल से ताल मिला कर जब नृत्य करती हैं तो संपूर्ण वातावरण आनंदमय हो उठता है। इस अवसर के लिए रवींद्रनाथ टैगोर ने विशेष तौर पर रचनाएं की थीं। इन रचनाओं में आनंद-उल्लास और मस्ती के साथ मिलन की खुशी और जुदाई का दर्द भी बयां होता है। उदाहरण के लिए दोल के दिन अनिवार्य रूप से गाये जाने वाले एक गीत का मुखड़ा देखिये- “ओ रे गृहोवासी, खोल द्वार खोल, लागलो जे दोल।” इस गीत में मस्ती और अल्हड़पन है। कवि होली की मस्ती में सबको सराबोर करना चाहता है, इसलिए दोल के दिन दिल के दरवाजे खुले रखने की बात करता है।

टैगोर की एक और रचना जो खास तौर पर दोल उत्सव के लिए ही लिखी गई है- “रांगिये दिये जाओ, जाओ गो, एबार जाबार आगे।” कविगुरु की इस रचना में मन के आंतरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति मस्ती भरे अंदाज में की गई है जिसमें बिछड़न की टीस भी है। कवि अपनी प्रेयसी से निवेदन करता है कि इस बार जाने से पहले अपने रंग में रंग के जाना। कुछ गीतों में प्रकृति का चित्रण भी किया गया है। “नील दिगंते ओइ फूलेर आगुन लागलो,” या फिर “ओ रे भाई फागुन लेगेछे बोने-बोने” जैसे गीतों में उत्सव की खुशी में प्रकृति को शामिल करने की चेष्टा नजर आती है। पारंपरिक धुनों पर गाये जाने वाले इन गीतों से एक अलग ही समा बंध जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि होली की मस्ती के बावजूद यहां सब कुछ बेहद शालीन और अनुशासित तरीके से होता है। इसमें मस्ती और अल्हड़पन तो है, लेकिन हुड़दंग या उदंडता का आभास नहीं होता।

दरअसल, बंगाल में होली का मतलब ही वसंत उत्सव अथवा दोल है, जो होलिका दहन के दिन मनाया जाता है। वसंत उत्सव को दोल जात्रा या दोल पूर्णिमा भी कहते हैं। यह बंगाल के साथ-साथ ओडिशा में भी मनाया जाता है। इस त्योहार का एक आध्यात्मिक पहलू भी है। बंगाल में वसंत उत्सव कृष्ण भक्ति से जुड़ा पर्व माना जाता है। इस दिन को महान कृष्ण भक्त चैतन्य महाप्रभु की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। इस मौके पर दोल जात्रा के आयोजन का मुख्य उद्देश्य भगवान कृष्ण को प्रसन्न करना है। सामान्यतया इस दिन लोग राधा-कृष्ण की आराधना करने के बाद रंगों से खेलते हैं। इस त्योहार में सूखे रंगों के इस्तेमाल की परंपरा रही है। बांग्ला कैलेंडर के अनुसार दोल उत्सव साल का आखिरी त्योहार होता है जिसमें प्राकृतिक सौंदर्य, नृत्य और संगीत के साथ ईश्वर की भक्ति का भाव भी परिलक्षित होता है।

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