Glory of Maha Kumbh: कुम्भ पर्व के संबंध में वेदों में अनेक महत्वपूर्ण मंत्र मिलते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि कुम्भ-पर्व अत्यंत प्राचीन और वैदिक धर्म से ओतप्रोत पर्व है। ऋग्वेद के अनुसार कुम्भ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होम आदि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है, जैसे कुठार बन को काट देता है। जिस प्रकार गंगा नदी अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त हुए शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नवीन कच्चे घड़े की तरह बादल को नष्ट भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।
कुम्भ पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इहलोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है। पूर्ण कुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक में अनेक बार देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं, जो महान आकाश में ग्रह राशि आदि के योग से होता है। पुराणों में कुम्भ पर्व की स्थापना बारह की संख्या में की गयी है, जिनमें से चार मृत्युलोक के लिए और आठ देवलोक के लिए हैं। भूमण्डल के मनुष्य मात्र के पाप को दूर करना ही कुम्भ की उत्पत्ति का हेतु है।
यह पर्व प्रत्येक बारह वर्ष हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार स्थानों में होता रहता है। इन पर्वों में भारत के सभी प्रान्तों से समस्त सम्प्रदायवादी स्नान, ध्यान, पूजा-पाठादि करने के लिए आते हैं। भारतभूमि स्वभावतः पुण्य प्रक्षालित भूमि है। भौगोलिक दृष्टि से इसके चार पवित्र स्थानों में उस अमृत कुम्भ की प्रतिष्ठा हुई थी, जो उस समुद्र मंथन से उद्भूत हुआ था। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन पर्यन्त निरन्तर युद्ध हुआ था। परस्पर इस युद्ध के समय में पृथ्वी के चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक पर कलश से अमृत की बूंद गिरी थी। उस समय चन्द्रमा ने घट से अमृत को बहने से रोकने के लिए, सूर्य ने घट को फूटने से बचाने के लिए, बृहस्पति ने दैत्यों के अपहरण से रोकने के लिए एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की थी। अमृत के लिए मची कलह को शांत करने के लिए भगवान श्री हरि ने मोहिनी अवतार धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया।
देवताओं के बाहर दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं। जिस समय चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति, शनि आदि ने कलश की रक्षा की थी, उस समय वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि योग में जहां-जहां अमृत कुम्भ से अमृत की बूंद गिरी थी, वहां-वहां कुम्भ पर्व होता है। कुम्भ का पर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार तीर्थ स्थानों में मनाया जाता है। ये चारों ही एक से बढ़कर एक परम पवित्र तीर्थ हैं। इन चारों तीर्थों में प्रत्येक बारह वर्ष के बाद कुम्भ पर्व होता है।
जिस समय बृहस्पति कुम्भ राशि पर स्थित हो औऱ सूर्य मेष राशि पर रहे, उस समय हरिद्वार में कुम्भ योग होता है। स्कंदपुराण के अनुसार कार्तिक महीने में एक हजार बार गंगा में स्नान करने से, माघ मास में सौ बार गंगा स्नान करने से और वैशाख में करोड़ बार नर्मदा में स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है, वह प्रयाग में कुम्भ-पर्व पर केवल एक ही बार स्नान करने से प्राप्त हो जाता है। हजार अश्वमेध यज्ञ करने से, 100 बाजपेय यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल प्रयाग के कुम्भ के स्नान से प्राप्त होता है। जिस समय बृहस्पति मेष अथवा वृष राशि पर स्थित हो तथा चन्द्रमा और सूर्य मकर राशि पर स्थित हो, तो उस समय तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ योग होता है।
प्रयाग में कुम्भ के तीन स्नान होते हैं। यहां कुम्भ का प्रथम स्नान मकर संक्रान्ति से प्रारम्भ होता है। द्वितीय स्नान माघ कृष्ण मौनी अमावस्या को होता है, जो कुम्भ पर्व का प्रमुख स्नान होता है तथा तृतीय स्नान माघ शुक्ल वसन्त पंचमी को होता है। जिस समय सूर्य मेष राशि पर हो और बृहस्पति सिंह राशि पर हो तो उस समय उज्जैन में कुम्भ योग होता है। जहां भगवान महाकाल हैं, शिप्रा नदी है और सुनिर्मल गति मिलती है, उस उज्जयिनी में महानदी शिप्रा में स्नान करता है, वह भगवान शिव का अनुचर होता है। जिस समय सूर्य तथा बृहस्पति दोनों सिंह राशि पर हों तो उस समय नासिक में मुक्तप्रद कुम्भ होता है। गोदावरी के तट पर स्थित नासिक में कुम्भ पर्व होता है।
इस सिंहस्थ काल में श्री नासिक तीर्थ की यात्रा पवित्र गोदावरी नदी में स्नान एवं त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन लाभ की बड़ी महिमा है। सिंहस्थ गुरु के समय गोदावरी में विधिपूर्वक श्रद्धा से स्नान, पूजा-पाठ तथा दान करने से मोक्षपद की प्राप्ति होती है। जो कोई भी स्नान कर भगवान त्रयम्बकेश्वर के दर्शन करता है, उसे समस्त तीर्थों के नाम का तथा समस्त देवताओं को आराधना एवं दर्शन का पुण्यफल प्राप्त होता है। साथ ही उस मनुष्य के समस्त पापों से निवृत्ति भी हो जाती है।
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भगवान आदि गुरु शंकराचार्य जी के कुम्भ पर्व प्रवर्तक होने के कारण ही आज भी कुम्भ पर्व का मेला मुख्यतः साधुओं का ही माना जाता है। शंकराचार्य जी कुम्भ मेले को प्रवर्तित करने वाले हैं। उन्होंने कुम्भ पर्व के प्रचार की व्यवस्था धार्मिक संस्कृति को सुदृढ़ करने के लिए किया था। आज भी कुम्भ पर्व के चारों सुप्रसिद्ध तीर्थों में सभी सम्प्रदायों के साधु-महात्मागण देश-काल परिस्थिति के अनुरूप लोक कल्याण की दृष्टि से सनातन धर्म का प्रचार करते हैं, जिससे समस्त मानव समाज का कल्याण होता है।
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