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खतरे की घंटी बनते राज्यों के सीमा विवाद

Police deployed at Lalilapur police patrol post in Cachar district bordering Mizoram following the interstate border clash,

भारत का सीमा विवाद पड़ोसी देशों से ही नहीं है। देश के भीतर भी एक राज्य का दूसरे राज्य से सीमा विवाद है। ये विवाद देश के लिए, उसकी आंतरिक शांति के लिए खतरा बन रहे हैं। इसलिए इसे तत्काल प्रभाव दूर किए जाने और इसे लेकर दूरगामी रणनीति बनाए जाने की जरूरत है। असम और मिजोरम के बीच हुए हालिया सीमा विवाद का यही संदेश है। असम-मिजोरम की विवादित सीमा पर हुई हिंसा ने असम पुलिस के 5 जवानों समेत 6 लोगों की जान ले ली है जबकि 50 से अधिक लोग घायल हुए।

पूर्वोत्तर के राज्यों पर वैसे भी चीन जैसे शातिर देशों की नजर हैं। वे कभी नहीं चाहेंगे कि पूर्वोत्तर के राज्य कभी एकजुट हों। गृहमंत्री अमित शाह ने पूर्वोत्तर के राज्यों से मुलाकात भी की थी और सीमा विवाद को निपटाने पर जोर भी दिया था लेकिन उनकी पूर्वोत्तर यात्रा के एक दिन बाद भी असम और मिजोरम एक दूसरे से इस तरह भिड़ जाएंगे, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। यह सच है कि असम और मिजोरम में भाजपा की सरकारें हैं। इसलिए भी केंद्र सरकार का दायित्व बनता है कि वह सौ साल पुराने इस सीमा विवाद का कोई मुकम्मल हल निकाले अन्यथा दोनों राज्यों के बीच इसी तरह हिंसक मारकाट होती रहेगी।

बीमारी छोटी हो या बड़ी, उसका इलाज जरूरी है। फुंसी फोड़ा या नासूर बने, इससे पहले ही उसकी शल्य क्रिया हो जानी चाहिए। वहां के मुख्यमंत्रियों ने जिस तरह गर्मागर्म बहस की। इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर जिस तरह के उत्तेजक बयान दिए, वह भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं हैं। वैसे भी असम का विवाद सिर्फ मिजोरम से हो, ऐसा भी नहीं है। जिन 6 राज्यों नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा और मणिपुर से उसकी सीमा सटती है, उन सबसे विवाद है। मिजोरम से उसका विवाद अंग्रेजों के दौर का है। मिजोरम के तीन जिलों आइजोल, कोलासिब और ममित की सीमा असम के कछार, करीमगंज और हैलाकांडी जिलों से जुड़ती है। विस्तार के लिहाज से 164.6 किलोमीटर का क्षेत्र इस सीमा से जुड़ा है। एक दौर था जब मिजोरम को असम का लुशाई हिल्स कहा जाता था। इस विवाद के निपटारे के लिए 1995 के बाद कई दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात वाला रहा।

गौरतलब है कि 1950 में असम भारत का राज्य बना था। उस समय असम में नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और मिजोरम आते थे। बाद में ये राज्य असम से अलग हो गए। इसके बाद असम से तीन नए राज्य मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा और बने। जबकि मिजोरम अलग राज्य 1987 में बना। 30 जून 1986 को मिजोरम के नेताओं ने मिजो पीस एकॉर्ड पर हस्ताक्षर भी किए थे जिसमें असम और मिजोरम की सीमा तय की गई थी पर नियम 1875 को मानें या 1933 को, इसपर दोनों ही राज्यों के बीच सहमति नहीं बन पाई। मिजोरम कहता है कि 1875 के नियमों का पालन किया जाए।

रही बात कब्जे की तो दोनों ही एक-दूसरे पर अतिक्रमण के आरोप लगाते रहते हैं। असम सरकार ने विधानसभा में जानकारी दे रखी है कि मिजोरम ने बराक घाटी क्षेत्र में असम के तीन जिलों हैलाकांदी, कछार और करीमनगर में 1,777.58 हेक्टेयर जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया है जबकि मिजोरम का आरोप है कि असम उसकी जमीन पर दावा कर रहा है। इन सीमावर्ती गांवों में 100 साल से मिजो आदिवासी रह रहे हैं। अक्टूबर, 2020 में विवादित सीमा से मिजोरम द्वारा सुरक्षा बलों को वापस न बुलाने पर असम में नागरिकों ने नेशनल हाईवे 306 को ब्लॉक कर दिया था। इससे मिजोरम पूरे देश से अलग-थलग पड़ गया था।

मिजोरम और असम जैसी समस्या से ही अन्य राज्य भी जूझ रहे हैं। नदियों की कटान और रुख बदलने से कई राज्यों की सीमाओं में काफी परिवर्तन आ गया है। एक राज्य की भूमि दूसरे राज्य में चली गई हैं। मालिकाना हक को लेकर राज्यों के नागरिकों के बीच अक्सर टकराव होते रहते हैं। बिहार में गंगा नदी की कटान से उत्पन्न 4200 एकड़ में फैले हांसनगर दियारा के विवाद की वजह से विगत सात दशकों में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के बीच हर साल गोलियां चलती रही हैं। फसल की बुआई और कटाई के वक्त अक्सर यहां लाशें गिरती रही हैं। सिताबदियारा से हांसनगर जवहीं तक के लगभग 40 किमी के दायरे में हर साल फसल काटने और गिरने को लेकर खूनी संघर्ष होते रहे हैं। फसल बोए कोई, काटता वही है, जो शक्तिशाली होता है। इस मामले में अबतक दोनों प्रांतों के हजारों किसानों पर मुकदमे यूपी और बिहार के न्यायालयों में विचाराधीन हैं।

हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बीच भी 50 साल से सीमा विवाद चला आ रहा है। सर्वे ऑफ इंडिया के अधिकारियों को उत्तर प्रदेश एवं दिल्ली के साथ लगती हरियाणा की सीमा क्षेत्र का स्ट्रिप मैप तैयार करने के निर्देश दिए गए हैं, ताकि जल्द विवादों को निपटाया जा सके। इस तरह के निर्देश अन्य राज्यों में भी केंद्र सरकार के स्तर पर दिए जाने चाहिए। पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री उमाशंकर दीक्षित ने 1974 में यमुना नदी की धारा को हरियाणा और उत्तर प्रदेश की स्थायी सीमा स्वीकार की थी। तब दोनों राज्यों की सीमा पर पिलर लगाए गए थे, लेकिन नदी के तेज बहाव और बाढ़ के कारण पिलर गायब हो गए। यमुना की धारा का रुख बदलने से यूपी की कुछ जमीन हरियाणा में और हरियाणा की कुछ जमीन यूपी में आ गई। इसलिए दोनों प्रदेशों के किसानों में हर साल फसल काटने को लेकर संघर्ष होता रहता है।

यही नहीं, हर साल वैद्यनाथपुर दियारा में बिहार-झारखंड सीमा का विवाद उठता रहा है। झारखंड और ओडिशा के बीच सीमा विवाद भी किसी से छिपा नहीं है। झारखंड सरकार का आरोप है कि ओडिशा वर्ष 1964 में ही झारखंड में लगभग डेढ़ किलोमीटर अंदर तक घुस आया था और उसने पूर्वी सिंहभूम के गांवों गुड़ाबांदा अंचल के सोना पेटपाल, छेरघाटी, काशीपाल, कुड़िया, मोहन पाल, भुरसन व कोइमा पर कब्जा कर लिया था जबकि वर्ष 2018 में उसने बहरागोड़ा अंचल के महुलडंगरी पर कब्जा किया था। ओडिशा के कब्जे में झारखंड के आठ गांव की लगभग ढाई हजार एकड़ जमीन बताई जाती है।

पंजाब एवं हरियाणा के बीच सीमा को लेकर विवाद इन राज्यों के स्थापना काल से ही चला आ रहा है। सेक्टर-19 पंचकूला एवं जीरकपुर की सीमा का विवाद तो थमने का नाम नहीं ले रहा है। एसवाईएल विवाद ऐसी दुखती रग है जिस पर हाथ रखने में भी डर लगता है। सीमा विवाद की आग में यूपी व हरियाणा के किसान 52 साल से झुलस रहे हैं। यूपी और हरियाणा के किसानों की करीब 4500 हेक्टेयर जमीन यमुना खादर में सीमा विवाद में फंसी हैं और यह विवाद 1968 से चल रहा है। दोनों तरफ के करीब 47 गांव के किसानों के बीच यह सीमा विवाद चल रहा है और अभी तक 27 बार खूनी संघर्ष हो चुका है।

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सीमा विवाद का तत्काल निस्तारण होना चाहिए। इसमें जरा भी ढिलाई देश की मुश्किलें बढ़ा सकती है। विदेशी ताकतें राज्यों के सीमा विवाद का बेजा फायदा उठाएं, उससे पहले केंद्र सरकार को पूर्वोत्तर के मुख्यमंत्रियों के साथ मिल-बैठकर पहले सौहार्द का वातावरण बनाना चाहिए और फिर उनके बीच कूटनीतिक पहल कर इस समस्या के स्थायी समाधान का ईमानदार प्रयास करना चाहिए। किसी भी राज्य में सीमा संबंधी विवाद न रहे, इस दिशा में गहन चिंतन-मनन करना चाहिए और सभी राज्यों को विश्वास में लेकर एक सकारात्मक पहल की जानी चाहिए जिसमें सीमा विवाद लोगों के जान-माल पर भारी न पड़े।

                                                                                                               सियाराम पांडेय