16 कलाओं के पूर्णावतार योगेश्वर श्रीकृष्ण युगों-युगों से न केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों के दिलों में ही नहीं, बल्कि भारतीय धर्मग्रंथों, तीर्थस्थलों, परंपराओं और पुरातात्विक साक्ष्यों में रचे-बसे हुए हैं। वे सहस्त्राब्दियों से भारत की 80 फीसदी सनातनधर्मी जनता की आस्था के सर्वोच्च प्रतिमान बने हुए हैं। भारत के पुरा इतिहास के अनेकानेक साक्ष्य उनको द्वापर युग का अद्वितीय राष्ट्र नायक साबित करते हैं। श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता पर रोशनी डालते हुए शोधकर्ता अग्राह पंडित लिखते हैं कि श्रीकृष्ण उतने ही ऐतिहासिक हैं, जितने कि ईसा मसीह और पैगम्बर मूसा या इब्राहीम। वैदिक व पौराणिक ही नहीं जैन व बौद्ध धर्म ग्रंथों में भी उनकी वंशावली का विस्तार से उल्लेख मिलता है। 18 प्रमुख पुराणों में से 12 में कृष्ण के वंशावली वृक्ष का वर्णन मिलता है। खास बात यह है कि इन पुराणों की अलग अलग ऋषियों द्वारा अलग अलग समय पर रचना किए जाने के बावजूद श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े घटनाक्रमों के विवरणों में एक अद्भुत साम्य परिलक्षित होता है। तमिल भाषा में रचित संगम साहित्य भी कृष्ण की वंशावली का दस्तावेजीकरण करता है।
इसी तरह भारत के प्राचीन इतिहास के जाने-माने लेखक डीके हरि के अनुसार कालक्रम, तथ्यों और पूर्वाग्रहों को दर्ज करने वाले आधुनिक इतिहास के विपरीत, हमारा भारतीय इतिहास पात्रो, उपाख्यानों और घटनाओं को दर्ज करता है। भारत की पुरा ऐतिहासिक विरासत के इतिहास को दर्ज करने में पुराण ग्रंथों के साथ ही वाल्मीकि रामायण और महाभारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें श्रीकृष्ण से जुड़े सर्वाधिक शास्त्रीय साक्ष्य श्रीमद्भागवद महापुराण, हरिवंश पुराण और महाभारत में मिलते हैं। महाभारत में न केवल प्राचीन भारत के भौगोलिक विस्तार बल्कि उस समय की राजनीतिक शासन प्रणाली, कर व्यवथा, युद्ध नीति, सामाजिक व्यवस्थाओं, रीति रिवाजों, परंपराओं व मूल्य मान्यताओं का सटीक चित्रण मिलता है अपितु इस ग्रन्थ में वर्णित अनेक आज भी उपलब्ध हैं, जो उनकी ऐतिहासिकता को एक प्रबल विश्वास देते हैं। जैसे मथुरा- जहां कृष्ण का जन्म हुआ, गोकुल- जहां शिशु कृष्ण को उनके असुरक्षित पिता ले गए थे, वृन्दावन- जहाँ कृष्ण ने अपना बचपन बिताया, गोवर्धन पर्वत- जिसे कृष्ण ने अपनी प्रजा को आश्रय देने के लिए उठाया था, उज्जैन- जहाँ उनकी शिक्षा सांदीपिनी ऋषि के आश्रम में हुई, इंद्रप्रस्थ- जहां कृष्ण ने अपने राजनीतिक कौशल का प्रदर्शन किया, कुरुक्षेत्र- जहां महाभारत का युद्ध हुआ और जिस युद्धभूमि से श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवद गीता के माध्यम से आत्मा की अनश्वरता का अप्रतिम तत्वदर्शन दुनिया को दिया, द्वारका शहर- जिसे कृष्ण ने कंस को मारने के बाद अपने लोगों के लिए बनाया था तथा सोमनाथ- जहाँ कृष्ण की मृत्यु हुई थी। वास्तव में, विश्व इतिहास में किसी भी अन्य धार्मिक व्यक्ति की तुलना में कृष्ण के जीवन में विशिष्ट घटनाओं, साथ ही लिखित शब्दों को याद करने वाले कहीं अधिक भौतिक स्थान हैं। हर्ष का विषय है कि महाभारत में वर्णित सितारों की गणना तथा ग्रहण व नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर बीते दिनों इस दिशा में शोधरत वैज्ञानिक महाभारत की घटनाओं जैसे कि कुरुक्षेत्र के युद्ध की तारीखों का अनुमान लगाने में सक्षम हुए हैं।
अपने युग के सफल शासक ‘श्रीकृष्ण’
हरिवंश पुराण में वर्णन किया गया है कि श्रीकृष्ण अपने युग के सर्वाधिक सफल प्रशासक थे। द्वारका से लेकर मणिपुर तक भारत को एकसूत्र में आबद्ध कर उन्होंने राष्ट्र को इतना बलवान बना दिया था कि सैकड़ों वर्ष तक विदेशी शक्तिओं द्वारा कई प्रयत्न किये जाने के बावजूद देश खंडित नहीं हुआ। लीलाधर श्रीकृष्ण के जीवन की बहुआयामी गतिविधियों पर विहंगम दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि अपने युग की आसुरी शक्तियों व अवांछनीय परम्पराओं के निराकरण के विरुद्ध उनका संघर्ष जन्म के साथ ही शुरू हो गया था। चाहे दुधमुंही आयु में पूतना, वक्कासुर और शटकासुर जैसी शक्तिशाली आसुरी शक्तियों का अंत करना हो, आततायी मामा कंस के अंत करने के उपरांत नाना उग्रसेन को पुनः मथुरा का राजा बनाना हो या फिर अपने समय के अत्यंत शक्तिशाली राजा मगध सम्राट जरासंध के अत्याचारों से मथुरावासियों को मुक्ति दिलाने के लिए सुदूर पश्चिम में गुजरात प्रांत में समुद्र के मध्य द्वारिका नाम की एक भव्य नगरी बसाकर पिता वासुदेव को राजा बनाना हो, सब कुछ अपने आप में अद्भुत है। गौरतलब हो कि, श्रीकृष्ण जिस युग में अवतरित हुए थे, उस समय सत्ता के दो प्रमुख केन्द्र थे- हस्तिनापुर और मथुरा। दोनों की ही सत्ता उनके पास नहीं थी फिर भी वे उनकी सत्ता के केंद्रबिंदु थे। विश्वभर के सभी सत्ताधारी उनके इर्दगिर्द मंडराते रहते थे। श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण तथा महाभारत में वर्णित उल्लेखों के मुताबिक विष्णु के 8वें अवतार के रूप में श्रीकृष्ण का जन्म 8वें मनु वैवस्वत मन्वंतर के 28वें द्वापर युग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्द्ध रात के समय रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। भारत के महान गणितज्ञ आर्यभट्ट की गणना के मुताबिक यह समय 3112 ईसा पूर्व अर्थात लगभग 5128 साल पहले का निकलता है। आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ था।
गौरतलब हो कि, कुछ वर्ष पूर्व तक देश दुनिया के तमाम आधुनिक इतिहासकार भारतीय पुरा इतिहास में वर्णित श्रीकृष्ण जन्म के उपरोक्त साक्ष्यों को इन कपोल कल्पना और आधारहीन बताकर इन पर सवालिया निशान लगाते थे तथा हाल में हुई ऐतिहासिक शोधों ने उन्हें आईना दिखा दिया है। ब्रिटेन में न्यूक्लियर मेडिसिन के क्षेत्र में कार्यरत प्रवासी भारतीय डॉ. मनीष पंडित ने महाभारत में वर्णित विभिन्न खगोलीय घटनाओं व पुरातात्विक तथ्यों के आधार पर कृष्ण जन्म और महाभारत युद्ध के समय 3067 ईसा पूर्व का प्रमाणित किया है, जो कृष्ण जन्म के पौराणिक विवरण की सत्यता काफी निकट है। उनके इस शोध के अनुसार कृष्ण का जन्म र्इसा पूर्व 3112 में हुआ था तथा महाभारत युद्ध के समय कृष्ण की उम्र 54 से 55 साल की थी। इस खोज के लिए उन्होंने मेम्फिन यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर डॉ. नरहरि अचर द्वारा 2004-05 में की गयी शोध के साथ जलमग्न द्वारिका के पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त कृष्ण व बलराम की छवियों के सिक्के तथा मोहरें और यूनानी राजा हेलिदोरस के द्वारा श्रीकृष्ण को सम्मान देने के पुरातात्विक तथ्यों को भी शामिल किया है। डॉ. मनीष पंडित के मुताबिक पहले भारतीय पंचांग सातवर्षीय था, जिसमें 2700 वर्षों का एक चक्र होता था। 27 नक्षत्रों में विभाजित इस पंचांग की गणना आकाश में सप्तर्षि तारामंडल की गति के संक्रमण द्वारा की जाती थी। इस आधार पर धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण जन्म के संदर्भ में जो संकेत मिलते हैं, सही साबित होते हैं।
स्वर्ण निर्मित अद्भुत द्वारका
हर्ष का विषय है कि पुरातात्विक अन्वेषणों के द्वारा श्रीकृष्ण की सागर के मध्य बसी द्वारका नगरी की ऐतिहासिकता अब सामने आ चुकी है। गुजरात के पास समुद्र में मिले एक उन्नत नगरीय सभ्यता के भग्नावशेष न सिर्फ ‘महाभारत’ ग्रंथ की ऐतिहासिकता को पुष्टि करते हैं बल्कि प्राचीन युग और आधुनिक भारत के बीच एक सीधा संबंध स्थापित करते हैं। ज्ञात हो कि द्वारका नगरी के अवशेषों की सबसे पहले खुदाई 1963 में डेक्कन कॉलेज पुणे, डिपार्टमेंट ऑफ़ आर्कियोलॉजी और गुजरात सरकार ने मिलकर शुरू की थी। एचडी संकलिया की अगुवाई में हुई इस खुदाई में शुरुआत में तीन हजार साल पुराने कुछ बर्तन मिले थो। इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ष्मरीन आर्कियोलॉजिकल यूनिट ने देश के ख्यात प्राप्त पुरात्तवविद् डॉ. एसआर राव के नेतृत्व में 1979 में यहां दोबारा उत्खनन शुरू हुआ, जिसमें कुछ प्राचीन बर्तन मिलने के बाद समुद्र की गहराई में एक बेहद उन्नत सभ्यता के चिन्ह मिले। इसके बाद 2001 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशिनोग्राफी के छात्रों को खम्भात की खाड़ी में बढ़ते प्रदूषण की जांच करने के दौरान मिट्टी और बालू से सने पत्थरों से बनी इमारतों के दीदार हुए तथा पांच मील में फैले इन भग्नावशेष कलाकृतियां, इमारतों के तराशे स्तंभ और तांबे व कांसे के सिक्के मिले। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कार्बन डेटिंग तकनीक से पता चला कि इनमें से कुछ नमूने नौ हजार साल पुराने थे, जबकि खम्भात में मिले कुछ भग्नावशेष 7500 ईसा पूर्व के कालखंड के यानी अब तक घोषित किसी भी प्राचीन सभ्यता से कहीं पुरानी सभ्यता के।
हरिवंश पुराण के विवरण के अनुसार श्रीकृष्ण ने जब मथुरा त्यागकर यदुवंशी बंधु-बांधवों को अन्यत्र बसाने का विचार किया तो उनके वाहन पक्षिराज गरुड़ उनको उत्तर-पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र के तट पर ले आये। वहां, समुद्रदेव ने सागर के मध्य नगर निर्माण के लिए उन्हें 12 योजन भूमि प्रदान की थी और देवशिल्पी विश्वकर्मा ने वहां उनके लिए स्वर्णमंडित भव्य द्वारिका नगरी का निर्माण किया था। ज्ञात हो कि द्वारिका के उत्खनन से मिले पुरातात्विक भी साक्ष्य बताते हैं कि द्वारका शहर 773 वर्ग किमी 298×5 वर्ग मील रहा होगा, जो 12 योजन के बराबर है। ज्ञात हो कि द्वारका भारत के सात प्राचीन शहरों में से एक है। अन्य छह शहरों में मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांचीपुरम और अयोध्या हैं। द्वारका को ओखा मंडल, गोमतीद्वार, आनर्तक, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, वारीदुर्ग आदि नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक साक्ष्यों की बात करें तो महाभारत, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण में द्वारका के अद्वितीय वैभव का स्पष्ट विवरण दर्ज है। 11वीं सदी की द्वारका सोने से बनी थी। श्रीमद् भागवत में वर्णन है। यहां के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान तथा मेरू के समान उच्च थे।
नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाईयां थीं, जो गंगा और सिंधु के समान जान पड़ती थीं और जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था, जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत, वर्तमान गिरनारद्ध उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित था। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे तथा इन पर्वतों के चतुर्दिक अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के 50 प्रवेश द्वार थे। 50 द्वारों के कारण ही शायद इसका नाम द्वारका या द्वारवती पड़ा। महाभारत का सभा पर्व कहता है कि द्वारकापुरी चारों ओर गहरे सागर से घिरी हुई थी। सुंदर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यंत्र, शतघ्नियां, अनेक यंत्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे। द्वारका की लंबाई बारह योजन तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश उपनगरद्ध परिमाण में इसका द्विगुण था। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे, जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था। द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे।
4000 साल पहले समुद्र में समा गई ‘द्वारका’
पहले माना जा रहा था कि ईसा पूर्व भारत में उच्च कोटि की कोई सभ्यता नहीं रही होगी, लेकिन कार्बन डेटिंग से अब यह स्पष्ट हो गया कि द्वारका 9000 साल पुरानी नगरी है। हिमयुग के बाद जलस्तर 400 फीट बढ़ जाने से इस पौराणिक नगरी के समुद्र में डूबने की भी बात कही जाती है। पौराणिक विवरणों के आधार पर कहा जाता है कि महाभारत के 36 साल बाद द्वारका नगरी समुद्र में विलीन हो गयी थी, कार्बन डेटिंग व रडार स्कैनिंग के वैज्ञानिक अन्वेषण से इस नगरी की प्राचीनता की पुष्टि हो चुकी है। माना जा रहा है कि 9000 साल पुराना यह उत्कृष्ट नगर 4000 साल पहले समुद्र में समा गया था। द्वारका के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए अभियान 2005 में शुरू किया गया था, जिसमें भारतीय नौसेना ने भी मदद की। समुद्र के गर्भ में समाए पुरावशेष एक-एक कर सामने आए तो हजारों वर्ष पुराने पौराणिक विवरण जीवंत हो उठे। विशालकाय भवनों और लंबी दीवारों के ढांचे व तराशे गए पत्थरों के टुकड़े इस पुरातन अद्वितीय सभ्यता के अद्वितीय वैभव को उजागर करने लगे। यहां से एकत्र किए गए 200 अन्य नमूनों के आधार पर भारतीय इतिहासकारों ने महाभारत काल को कम से कम 9000 वर्ष पूर्व का बताया है। पुरावशेषों की कार्बन डेटिंग भी इसकी पुष्टि कर रही है। पौराणिक कथाओं को सच करने वाले अनेक सबूत गत कुछ दशकों में मिले हैं। 560 मीटर लंबी दीवार और 30 बुर्ज के अवशेष अरब सागर में मिले हैं। अन्वेषण करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि यहां समुद्र के भीतर जो दीवारें, नालियां व मूर्तियां मिलीं हैं, वे प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव निर्मित हैं।
पुरातत्ववेत्ता एसआर राव का कहना है कि 19वीं सदी में अरब सागर में बर्तन, गहने, इमारतों के अवशेष और कुछ लकड़ी की कलाकृतियों जैसे टुकड़े मिले थे। ये हड़प्पा और मेसोपोटामिया से भी प्राचीन सभ्यता के अवशेष हैं। शोधकर्ता मितुल चतुर्वेदी बताते हैं कि द्वापर युग में समुद्र की अनंत गहराई में डूबी द्वारका गोमती नदी, गुजरात व अरब सागर के संगम पर बसी समृद्ध नगरी थी। वर्तमान की बेट द्वारका जहां स्थित है, उसी समुद्र के भाग में प्राचीन नगर बसा था। इसकी दीवार 700 किलोमीटर दूर भरूच व सूरत तक मिलती है। इसी तरह पुरातत्व अन्वेषक आलोक त्रिपाठी ने खोदाई में मिली 560 मीटर की दीवार में से 50 मीटर को अध्ययन के लिए चुना। वह बताते हैं कि गहराई में मिले स्तंभ, गोल आकृतियां, प्राचीन दीवार, पत्थर और नगर रचना के बेजोड़ नमूने एक अदभुत देवलोक का आभास कराते हैं। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान ने तट से 20 किमी अंदर सोनार तकनीक से 4000 वर्ग मीटर क्षेत्र में शोध शुरू किया तो उन्हें यहां लकड़ी, पत्थर, हड्डियों के हजारों साल पुराने अवशेष मिले हैं। मानव सभ्यता की इस विकसित स्वर्ण नगरी के समुद्र में समा जाने को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें एक कथा कल्कि का अवतार होने से पहले एक सभ्यता का खुद को समाप्त कर लेने का भी है। कई द्वारों से मिलकर बनी द्वारका के तीन भाग समुद्र में समा गए हैं। एक भाग आज की बेट द्वारका- समुद्र में बने टापू पर स्थित उसके गवाह के रूप में खड़ी है। ऐसी मान्यता है कि मेवाड़ से निकलकर मीरा बाई जब यहां पहुंचीं तो श्रीकृष्ण के ध्यान में रहते हुए ही वह यहां उनकी मूर्ति में समा गईं। गोमती- गुजरात, कोशावती व चंद्रभागा नदी का संगम यहीं पर है और आसपास समुद्र होने से सब जगह का पानी खारा है, लेकिन यहां बने पांडवों के पांच कुओं का पानी मीठा है।
स्कूबा डाइविंग तकनीक से किए जा सकते हैं दिव्य द्वारका के प्राचीन पुरावशेषों के दर्शन
जानना दिलचस्प हो कि समुद्र में समाई प्राचीन द्वारका नगरी को अब समुद्र तल तक जाकर अपनी आंखों से भी देखा जा सकता है। इसके लिए स्कूबा डाइविंग का प्रशिक्षण लेकर समुद्र की गहराइयों में छिपे रहस्य को देखा व समझा जा सकता है। इस बारे में स्कूबा डाइविंग ट्रेनर शांतिभाई बंबानिया बताते हैं कि लोगों में समुद्र तल खासकर प्राचीन द्वारका के खंडहरनुमा अवशेषों को देखने का खासा उत्साह और जिज्ञासा होती है। वे पहले स्कूबा डाइविंग का कुछ घंटे प्रशिक्षण देते हैं, जब व्यक्ति पानी के अंदर रहने की हिम्मत और अनुभव जुटा लेता है तो फिर अंडर वाटर यात्रा शुरू होती है। बताते चलें कि स्कूबा (सेल्फ कंटेंड अंडरवाटर ब्रीथिंग एपरेटस) पानी के नीचे डाइविंग का एक ऐसा तरीका है, जिसमें गोताखोर एक ऐसे उपकरण का इस्तेमाल करता है जिसकी वजह से पानी के अंदर आसानी से सांस लेता रहता है। इसमें एक या एक से अधिक डाइविंग सिलेंडर होते हैं, जिसमें उच्च दबाव पर सांस लेने वाली गैस होती है। इस तकनीक के द्वारा जिज्ञासुओं को 60 से 80 फीट नीचे जाने के बाद दिव्य द्वारका नगरी के अवशेषों के दर्शन होते हैं। समुद्री शैल के आवरण में लिपटे, लाखों मछलियों की अठखेलियों व क्रीड़ा का स्थल बने ये अवशेष खुद अपनी कहानी बयां करते हैं। यहां विशालकाल प्रतिमाओं के अवशेष, जंगली जानवरों की आकृतियांए कई तरह की कलाकृतियां व विशालकाय द्वार और स्तंभ भी नजर आते हैं।
पूनम नेगी
यह भी पढ़ेंः-भगवान श्रीकृष्ण एवं मथुरा धाम की महिमा