Tuesday, October 29, 2024
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Homeअन्यज्ञान अमृतकुआं, तालाब, देव मन्दिर निर्माण और वृक्षारोपण महिमा

कुआं, तालाब, देव मन्दिर निर्माण और वृक्षारोपण महिमा

भविष्य पुराण के अनुसार युगान्तर में ब्रह्मा ने जिस अन्तर्वेदि (आध्यात्मिक) और बहिर्वेदि (परमार्थिक) की बात बतलायी है, वह द्वापर और कलियुग के लिये अत्यन्त उत्तम मानी गयी है। जो कर्म ज्ञानसाध्य है, उसे अन्तर्वेदिकर्म कहते हैं। देवता की स्थापना और पूजा बहिर्वेदि कर्म है। वह बहिर्वेदि कर्म दो प्रकार का है। कुआं, पोखरा, तालाब आदि खुदवाना और ब्राह्मणों को संतुष्ट करना तथा गुरूजनों की सेवा। निष्कामभावपूर्वक किये गये कर्म तथा व्यसनपूर्वक किया गया हरिस्मरणादि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदि- कर्मों के अन्तर्गत आते हैं, इनके अतिरिक्त अन्य कर्म बहिर्वेदि कर्म कहलाते हैं। धर्म का कारण राजा होता है, इसलिये राजा को धर्म का पालन करना चाहिये और राजा का आश्रय लेकर प्रजा को भी बहिर्वेदि (पूर्त) कर्मों का पालन करना चाहिए। यों तो बहिर्वेदि (पूर्त) कर्म सतासी प्रकार के कहे गये हैं, फिर भी इनमें तीन प्रधान है- देवता का स्थापन, मंदिर और तालाब आदि का निर्माण। इसके अतिरिक्त गुरूजनों की पूजापूर्वक पितृपूजा देवताओंकी प्रतिष्ठा, देवता-प्रतिमा-निर्माण तथा वृक्षारोपण आदि भी पूर्त-कर्म हैं।

नवीन तालाब, बावली, कुण्ड और जल-पौंसरा आदि का निर्माण कर संस्कार-कार्य के लिये गणेशादि-देवपूजन तथा हवनादि कार्य करने चाहिए। तदन्तर उनमें वापी, पुष्करिणी (नदी) आदि का पवित्र जल तथा गंगाजल डालना चाहिए। नूतन तालाब का निर्माण करने वाला अथवा जीर्ण तालाब का नवीन रूप में निर्माण करने वाला व्यक्ति अपने संपूर्ण कुल का उद्धार कर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। वापी, कुआं या हैंडपम्प, तालाब, बगीचा तथा जल के निर्गम-स्थान को जो व्यक्ति बार-बार स्वच्छ या संस्कृत करता है, वह मुक्तिरूप उत्तम फल प्राप्त करता है। जहां विप्रो एवं देवताओं का निवास हो, उनके मध्यवर्ती स्थान में वापी, तालाब आदि का निर्माण मानवों को करना चाहिए। नदी के तट पर और श्मशान के समीप उनका निर्माण न करें। जो मनुष्य परोपकार हेतु कुआं या हैंडपम्प, वृक्षारोपण, मन्दिर आदि की प्रतिष्ठा नही करता, उसे अनिष्ट का भय होता है तथा वह पाप का भागी भी होता है। अतः नगर, गांवों के समीप बड़े तालाब, मन्दिर, कुंआ आदि का निर्माण कर उनकी प्रतिष्ठा शास्त्रविधि से करनी चाहिए। उनके शास्त्रीय विधि से प्रतिष्ठित होने पर उत्तम फल प्राप्त होते हैं।

अतएव प्रयत्नपूर्वक मनुष्य न्यायोपार्जित धन से शुभ मुहूर्त में शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक प्रतिष्ठा करें। भगवान के कनिष्ठ, मध्यम या श्रेष्ठ मन्दिर को बनाने वाला व्यक्ति विष्णुलोक को प्राप्त होता है और क्रमिक मुक्ति को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति गिरे हुए या गिर रहे अर्थात् जीर्ण मन्दिर का जीर्णोद्धार या रक्षण करता है, वह समस्त पुण्यों का फल प्राप्त करता है। जो व्यक्ति विष्णु, शिव, सूर्य, ब्रह्मा, दुर्गा तथा लक्ष्मीनारायण आदि के मन्दिरों का निर्माण कराता है, वह अपने कुल का उद्धार कर कोटि कल्प तक स्वर्गलोक में निवास करता है। उसके बाद वहां से मृत्युलोक में आकर राजा या पूज्यतम धनी होता है। जो भगवती त्रिपुर सुन्दरी के मन्दिर में अनेक देवताओं की स्थापना करता है, वह सम्पूर्ण विश्व में स्मरणीय हो जाता है और स्वर्गलोक में सदा पूजित होता है। जल की महिमा अपरंपार है। परोपकार या देव-कार्य में एक दिन भी किया गया जल का उपयोग मातृकुल, पितृकुल, भार्याकुल तथा आचार्यकुल की अनके पीढ़ियों को तार देता है। उसका स्वयं भी उद्धार हो जाता है।

जल के ऊपर तथा प्रसाद (देवालय) के ऊपर रहने के लिये घर नही बनवाना चाहिए। प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित शिवलिंग को कभी उखाड़ना नही चाहिए। इसी प्रकार अन्य देव-प्रतिमाओं और पूजित देववृक्षों को चालित नही करना चाहिए। उसे चालित करने वाले व्यक्ति को रौरव नरक की प्राप्ति होती है, परन्तु यदि नगर या ग्राम उजड़ गये हैं अपना स्थान किसी कारण छोड़ना पड़े या विप्लव मचा हो उसकी पुनः प्रतिष्ठा बिना विचार के करनी चाहिये। शुभ मुहूर्त के अभाव में देवमन्दिर तथा देववृक्ष आदि स्थापित नही करने चाहिए। बाद में उन्हें हटाने पर ब्रह्महत्या का दोष लगता है। देवताओं के मन्दिर के सामने तालाब आदि बनाने चाहिए। तालाब बनाने वाला अनन्त फल पाकर ब्रह्मलोक से पुनः नीचे नही आता। जो वास्तुदेवता का बिना पूजन किये प्रासाद, तालाब आदि का निर्माण करता है, यमराज उसका आधा पुण्य नष्ट कर देते हैं। अतः देव मन्दिर, उद्यान, महाकूप, गृहनिर्माण से पहले वास्तुदेवता का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। जहां स्तम्भ की आवश्यकता हो वहां साल, खैर, पलास, केसर, बेल तथा बकुल-इन वृक्षों से निर्मित स्तम्भ कलियुग में प्रशस्त माने गये हैं। नदी के किनारे, श्मशान तथा अपने घर से दक्षिण की ओर तुलसीवृक्ष का रोपण न करें, अन्यथायम-यातना भोगनी पड़ती है। विधि-पूर्वक वृक्षों का रोपण करने से उसके पत्र, पुष्प तथा फल के रज-रेणुओं आदि का समागम उसके पितरों को प्रतिदिन तृप्त करता है।

जो व्यक्ति छाया, फूल और फल देने वाले वृक्षों का रोपण करता है या मार्ग में तथा देवालय में वृक्षों को लगाता है, वह अपने पितरों को बड़े-बड़े पापों से तारता है और रोपणकर्ता इस मनुष्य-लोक में महती कीर्ति तथा शुभ परिणाम को प्राप्त करता है तथा अतीत और अनागत पितरों को स्वर्ग में जाकर भी तारता ही रहता है। अतः वृक्ष लगाना अत्यन्त शुभ-दायक है। जिसको पुत्र नही है, उसके लिये वृक्ष ही करते रहते हैं तथा स्वर्ग प्रदान करते हैं। यदि कोई पीपल वृक्ष का आरोपण करता है तो वही उसके लिये एक लाख पुत्रों से भी बढ़कर है। अतएव अपनी सम्रद्धि के लिये कम से कम एक, दो या तीन पीपल वृक्ष लगाना ही चाहिये। हजार, लाख, करोड़ जो भी मुक्ति के साधन है, उनमें एक पीपल वृक्ष लगाने की बराबरी नही कर सकते। अशोक वृक्ष लगाने से कभी शोक नही होता, पाकड़ वृक्ष उत्तम स्त्री प्रदान करवाता है, ज्ञानरूपी फल भी देता है। बिल्ववृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है। जामुन का वृक्ष धन देता है, तेंदू का वृक्ष कुलवृ) कराता है। दाडिम (अनार) का वृक्ष सुख प्राप्त कराता है। वटवृक्ष मोक्षप्रद, आम्रवृक्ष अभीष्ट कामनाप्रद और गुवाक (सुपारी) का वृक्ष सिद्धप्रित है। मधूक (महुआ) तथा अर्जुन-वृक्ष सब प्रकार का अन्न प्रदान करता है। कदम्ब-वृक्ष से विपुल लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। (इमली) का वृक्ष धर्मदूषक माना गया है। शमी-वृक्ष रोग नाशक है। केशर से शत्रुओं का विनाश हेाता है। श्वेत वटु, धनप्रदाता (कटहल) वृक्ष मन्द बुद्धिकारक है। कर्मटी (केवाच) एवं कदम-वृक्ष के लगाने से सतांति का क्षय होता है। व्यापार की दृष्टि से इन पेड़ों के रोपण से कोई हानि नही होती है। शीशम, अर्जुन, जयन्ती, करवीर, बेल तथा पलाश-वृक्षों के आरोपण से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

विधिपूर्वक वृक्ष का रोपण करने से स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है। सौ वृक्षों का रोपण करने वाला ब्रह्मा-स्वरूप और हजार वृक्षों का रोपण करने वाला विष्णुरूप बन जाता है। वृक्ष के आरोपण में वैशाख मास श्रेष्ठ एवं ज्येष्ठ अशुभ है। आषाढ़, श्रावण तथा भाद्रपद ये भी श्रेष्ठ है। आश्विन, कार्तिक में वृक्ष लगाने से विनाश या क्षय होता है। (रामा) श्वेत तुलसी प्रशस्त मानी गयी है। पीपल वटवृक्ष और बिल्व (श्रीवृक्ष) का छेदन करने वाला व्यक्ति ब्रह्मघाती कहलाता है। वृक्षच्छेद व्यक्ति मुख में रोग वाला और सैकड़ों व्याधियों से युक्त होता है। इमली के बीजों को गन्ने से पीसकर उसे जल में मिलाकर सींचने से अशोक की तथा नारियल के जल एवं शहद-जल से सींचने से आम्रवृक्ष की वृद्धि होती है तथा अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। पीपल वृक्ष के मूल से दस हाथ चारों ओर का क्षेत्र पवित्र पुरूषोत्तम क्षेत्र माना गया है और उसकी छाया जहां तक पहुंचती है तथा पीपल वृक्ष के संसर्ग से बहने

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वाला जल जहां तक पहुंचता है, वह क्षेत्र गंगा के समान पवित्र माना गया है। तान्त्रिक पद्धति के अनुसार सभी प्रतिष्ठादि कार्यों में शुद्ध दिन ही लेना चाहिये। वृक्षों के उद्यान में कुंआ अवश्य बनवाना चाहिये। तुलसी-वन में कोई यज्ञ नही करना चाहिये क्योंकि हवन की गर्मी से तुलसी की हानि होती है। तालाब, बड़े बाग तथा देवस्थान के मध्य सेतु नही बनवाना चाहिये परन्तु देवस्थान में तालाब बनवाना चाहिए। तालाब, पुष्करिणी तथा उद्यान आदि को जो परिमाण बताया गया हो, यदि इससे कम पैमाने पर ये बनाये जायें तो दोष है, किन्तु दस हाथ के परिमाण में हों तो कोई दोष नही है। यदि वे दो हजार हाथों से अधिक प्रमाण में बनाये गये हों तो उनकी प्रतिष्ठा विधिपूर्वक अवश्य करनी चाहिये।

लोकेंद्र चतुर्वेदी ज्योतिर्विद

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