भारतीय फिल्म निर्माण क्षेत्र ने कई वर्षों तक बिना आवाज की फिल्में बनायी। लेकिन जब फिल्मी पर्दे पर आवाज वाली फिल्मों का दौर शुरु हुआ को उसे भारतीय फिल्म का स्वर्ण का कहा गया। भारतीय फिल्म के स्वर्ण काल में दर्ज समय की बात करें तो यह काल 14 मार्च, 1931 से शुरु हुआ और उसके बाद इस क्षेत्र में निरंतर प्रगति होती चली गई और आज फिल्म निरंतर नई तकनीकी के साथ पर्दे पर आ रही हैं।
पहली सवाक फिल्म संगीत प्रधान फिल्म थी। सवाक फिल्म देखने के लिए सिनेमाघरों में के बाहर इतनी भीड़ उमड़ती थी कि उसे काबु कर पाना मुश्किल हो जाता था। कई बार तो भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस का सहारा भी लेना पडता था। आलम आरा फिल्म ने इसी माह 90 वर्ष पूरे किए। मुंबई के मैजेस्टिक थियेटर में जब 14 मार्च, 1931 में आलम आरा फिल्म प्रदर्शित हुई तो भीड़ को काबू करना मुश्किल हो गया।
इस फिल्म ने उस काल में वैसी ही लोकप्रियता प्राप्त की, जो कालांतर में आई कई फिल्मों जैसी ही लोकप्रियता प्राप्त की। यह फिल्म लगातार एक माह तक हाऊसफुल रही। इस फिल्म की टिकट दर वैसे तो 25 पैसे थी, लेकिन फिल्म देखने वाले पांच रूपए की ब्लैक टिकट लेने के लिए भी तैयार रहते थे। इंपीरियल मुवी टोन (मुंबई) ने 124 मिनट की सवाक फिल्म आलम आरा बनायी, जिसे दर्शकों ने खूब सराहा। मास्टर विठ्ठल, जुबेदा, पृथ्वीराज कपूर, सुशीला, जिल्लो एलिजर, जगदीश जैसे कलाकारों से अभिनय से सजी फिल्म आलम आरा की शूटिंग ग्रांट रोड रेलवे स्टेशन के समीप स्थित ज्योति स्टूडियो में हुई।
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फिल्म की शूटिंग रात 1 बजे से लेकर तड़के 4 बजे तक होती थी। कम संसाधनों से बनी फिल्म आलम आरा के गानों ने भी दर्शकों के बीच समां बाधा। दे दे खुदा के नाम पर जिसे भारतीय सिनेमा जगत का पहला गाना माना जाता है। सात गानों वाली फिल्म आलम-आरा, जिसे वजीर मोहम्मद खान से गाया था। हारमोनियम, तबला तथा वायलिन इन वाद्य यंत्रों की सहायता से रिकॉर्ड किए गए भारतीय फिल्म जगत के पहले गाने को दर्शकों ने खूब सराहा था। आलम आरा से शुरु हुई सवाक फिल्मों का सफर आज भी जारी है और आने वाले समय में जारी रहेगा।
सुधीर जोशी