नई दिल्लीः आजादी की लड़ाई में सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं महिलाओं ने भी बराबर की जंग लड़ी, कोड़े भी खाए और गोली भी। लेकिन आजादी के बाद महिलाएं कब समाज के उत्थान से घर के काम तक सिमटती चली गईं पता ही नहीं चला। महिलाएं दुनिया की आधी आबादी हैं और दुनियाभर की संसद में महिलाओं की लगभग 25 फीसदी हिस्सेदारी है। लेकिन अभी आधी आबादी को दुनिया की आधी राजनीति का हिस्सा बनना बाकी है। हालांकि केंद्र की बीजेपी सरकार ने महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण बिल लाकर इस लड़ाई को सहज कर दिया है।
जनगणना और परीसीमन में लंबा समय
केंद्र की बीजेपी सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक 2023 लाकर पूरे देश का ध्यान इस ओर खींचा है कि बीजेपी सरकार सबका साथ सबका विकास के मुद्दे पर ही आगे बढ़ रही है। इस विधेयक का लक्ष्य लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करना है लेकिन अभी इसको लागू करने में लंबा समय लग सकता है। क्योंकि इसका संबंध जनगणना और परिसीमन अभ्यास से जुड़ा हुआ है इसलिए इस विधेयक का इस समय लाया जाना जब लोकसभा चुनाव की तारीखें बहुत नजदीक है। इसलिए इसके निहितार्थ पर भी सवाल उठ रहे है
महिला आरक्षण विधेयक में क्या है खास
1- एक-तिहाई सीटें आरक्षित करना
महिलाओं के उत्थान के लिए महिला आरक्षण विधेयक 2023 बहुत विशेष महत्व रखता है। इसमें महिलाओं के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव रखा गया है। केंद्र सरकार का यह कदम राजनीतिक परिदृश्य में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने की ओर इशारा करता है।
2- जनगणना और परिसीमन के बिना संभव नहीं
महिला आरक्षण विधेयक सिर्फ लोकसभा और राज्यसभा में पास होने से ही लागू किया जा सकता, सरकारों को नई जनगणना और परिसीमन कराना पड़ेगा। क्योंकि परिसीमन प्रक्रिया में जनसंख्या परिवर्तन के मुताबिक क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को परिभाषित करना होता है।
3- 1976 में हुआ था परिसीमन
भारत में आजादी के बाद परीसीमन प्रक्रिया 1976 में हुई थी और वर्तमान निर्वाचन क्षेत्र की सीमाएं 2001 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित हैं। 2002 में एक संविधान संशोधन के माध्यम से, 2026 के बाद आयोजित पहली जनगणना तक परिसीमन पर रोक लगा दी गई थी।
4- जनगणना के आंकड़ों को लेकर अस्पष्टता
जबकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की कि जनगणना और परिसीमन आम चुनाव के तुरंत बाद होगा। पिछली देरी के लिए COVID-19 महामारी को जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन पहले की रिपोर्टों में कोई स्पष्ट कारण नहीं दिया गया था।
5- ऐतिहासिक संदर्भ
महिला आरक्षण विधेयक की यात्रा 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुई जब भारत ने महिलाओं के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में अपना पहला कदम उठाया। पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए 1992 में संविधान में संशोधन किया गया था।
हालाँकि, इन शुरुआती प्रयासों को बाधाओं का सामना करना पड़ा और अंततः राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति की कमी सहित विभिन्न कारणों से विफल रहे। सबसे हालिया प्रयास 2008 में किया गया था जब विधेयक राज्यसभा में पारित किया गया था लेकिन लोकसभा भंग होने के कारण रद्द हो गया था।
जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत
जब हमारी संसद में महिलाओं की संख्या अधिक होगी तो महिलाओं के मुद्दों पर जोरदार बहस होगी। पंचायत स्तर पर महिलाओं में जो आश्चर्यजनक बदलाव आए हैं, उससे पता चलता है कि जब महिलाएं राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रूप से भाग लेंगी, तो न केवल उनसे जुड़े मुद्दों को सुलझाना आसान होगा, बल्कि अपराध भी कम होंगे। समाज में महिलाओं का पोषण स्तर बढ़ेगा, समाज के नीति निर्धारण में महिलाओं की भागीदारी जरूरी है। हालाँकि महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए यह एकमात्र समाधान नहीं है, इसके अलावा सरकार को और मजबूत प्रयास करने होंगे।
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समाज में महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं की आर्थिक भागीदारी बढ़ाने की भी जरूरत है। उनके बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान देने की जरूरत है। महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है ताकि महिला आरक्षण विधेयक को पूरी तरह सफल बनाया जा सके।
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