क्यों होती है कांवड़ यात्रा, जानिए कौन था संसार का पहला कांवड़िया

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नई दिल्ली: कोरोना महामारी के चलते बीते साल की तरह इस साल भी कांवड़ यात्रा पर असर पड़ा है। जहां उत्तराखंड में कांवड़ यात्रा पर रोक लगा दी गई है। वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे मंजूरी दे दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार को नोटिस दी है और सवाल पूछे हैं। बता दें कि इस बार ये यात्रा 22 जुलाई से प्रस्तावित थी। तो आइए हम आपको कांवड़ यात्रा के बारे में बताते है।

हिंदू पंचांग के अनुसार कांवड़ यात्रा श्रावण मास यानि सावन में होती है, जो जुलाई का वो समय होता है। इसकी शुरुआत श्रावण मास की शुरुआत से होती है और ये 13 दिनों तक यानि श्रावण की त्रयोदशी तक चलती है। कांवड़ यात्रा का संबंध गंगा के पवित्र जल और भगवान शिव से है।

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कांवड़ यात्रा के लिए श्रद्धालु उत्तराखंड के हरिद्वार, गोमुख और गंगोत्री पहुंचते हैं। वहां से पवित्र गंगाजल लेकर अपने निवास स्थानों के पास के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में उस जल से चतुर्दशी के दिन उनका जलाभिषेक करते हैं। दरअसल कांवड़ यात्रा के जरिए दुनिया की हर रचना के लिए जल का महत्व और सृष्टि को रचने वाले शिव के प्रति श्रद्धा जाहिर की जाती है और उनकी आराधना की जाती है।

 श्री राम ने शुरू की कांवड़ यात्रा

ऐसा भी माना जाता है कि भगवान राम पहले कांवड़िया थे। कहा जाता है कि श्री राम ने झारखंड के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल लाकर बाबाधाम के शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।

श्रवण कुमार ने की थी कांवड़ की शुरुआत

कुछ लोगों को मानना है कि पहली बार श्रवण कुमार ने त्रेता युग में कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। अपने दृष्टिहीन माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराते समय जब वह हिमाचल के ऊना में थे तब उनसे उनके माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा के बारे में बताया। उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार ने उन्हें कांवड़ में बैठाया और हरिद्वार लाकर गंगा स्नान कराया। वहां से वह अपने साथ गंगाजल भी लाए। माना जाता है तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।

रावण को माना जाता था पहला कांवड़िया

पुराणों के अनुसार इस यात्रा शुरुआत समुद्र मंथन के समय हुई थी। मंथन से निकले विष को पीने की वजह से शिव जी का कंठ नीला पड़ गया था और तब से वह नीलकंठ कहलाए। इसी के साथ विष का बुरा असर भी शिव पर पड़ा। विष के प्रभाव को दूर करने के लिए शिवभक्त रावण ने तप किया। इसके बाद दशानन कांवड़ में जल भरकर लाया और पुरा महादेव में शिवजी का जलाभिषेक किया। इसके बाद शिव जी विष के प्रभाव से मुक्त हुए। कहा जाता हैं कि तभी से कांवड़ यात्रा शुरू हुई।

परशुराम थे पहले कांवड़िया

कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक किया था। वह शिवलिंग का अभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाए थे। इस कथा के अनुसार आज भी लोग गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव का अभिषेक करते हैं। जिसे अब ब्रजघाट के नाम से जाना जाता है।

इस यात्रा को क्यों कहा जाता है कांवड़ यात्रा

इस यात्रा इसमें आने वाले श्रृद्धालु बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं। इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा को कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है। पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे लेकिन अब लोग इस यात्रा के लिए बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं।

किन शिवालयों में जाते है ज्यादातर कांवड़िए

आमतौर पर कांवड़िए मेरठ के औघड़नाथ, पुरा महादेव, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर, झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर और बंगाल के तारकनाथ मंदिर में पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं। कुछ अपने गृहनगर या निवास के करीब के शिवालयों में भी जाते हैं।