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जीवामृत पद्धतिः विदर्भ के किसान ने दिखाई प्राकृतिक खेती की राह

लखनऊः प्रधानमंत्री के आह्वान को आत्मसात करते हुए उर्वरक एवं कीटनाशकों के उपयोग से देश में उत्पादित खाद्यान्नों के दुष्परिणामों से छुटकारा दिलाने की पहल करते हुए कई राज्यों के किसानों ने न केवल प्राकृतिक खेती को व्यावहारिक रूप दिया है। बल्कि जीवामृत पद्धति से स्वास्थ्यवर्धक कृषि उत्पाद लेने का देश के किसानों को संदेश दिया। अगले कुछ वर्षों में इस पद्धति को देश के किसानों ने अपनाया तो देश में कीटनाशकों एवं उर्वरकों का उपयोग कृषि क्षेत्र में नहीं के बराबर हो सकता है।

विदर्भ क्षेत्र से निकले इस अनूठे कंसेप्ट का लोहा अब न केवल देश बल्कि दुनिया मानने लगी है। देश में प्राकृतिक खेती के तहत अब तक 4.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कृषि उत्पादन लिया जाने लगा है। कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वक्त क्वांटिटी का नहीं क्वालिटी कृषि उत्पादन का है। इसलिए वापस पुराने दौर की खेती की ओर लौटने का वक्त आ चुका है, क्योंकि रासायनिक खादों के जरिए उत्पादित खाद्यान्नों को खाकर बढ़ती बीमारियों की वजह से प्राकृतिक खेती ही विकल्प है।

पालेकर हैं प्राकृतिक कृषि के शोधकर्ता -

विदर्भ क्षेत्र के बेलोरा गांव के सुभाष पालेकर ने सर्वप्रथम इस कांसेप्ट की शुरुआत की। जीरो बजट प्राकृतिक खेती जिसे देसी गाय के गोबर और मूत्र पर आधारित रखा गया है। इस विधि में फसल को उर्वरक, कीटनाशक और गहरी सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। पालेकर कहते हैं कि प्राकृतिक खेती के अलावा किसानों की आत्महत्याओं को रोकने का उन्हें कोई विकल्प नजर नहीं आया और हर आदमी को जहर मुक्त खाद्यान्न उपलब्ध करने का एक यही तरीका सही लगा। वे दावे से कहते हैं कि जीवामृत पद्धति से 30 एकड़ जमीन पर खेती के लिए एक देसी गाय का गोबर और गोमूत्र काफी है।

ये प्रमुख राज्य करने लगे जीरो बजट की खेती -

मध्य प्रदेश 99 हजार हेक्टेयर, गुजरात 19 हजार 600 हेक्टेयर - लक्ष्य 57 हजार हेक्टेयर, कर्नाटक 47 हजार हेक्टेयर, केरल 84 हजार हेक्टेयर, हिमाचल प्रदेश 12 हजार हेक्टेयर, झारखंड 34 सौ हेक्टेयर, उड़ीसा 24 हजार हेक्टेयर, तमिलनाडु दो हजार हेक्टेयर, राजस्थान में कुल बुवाई वाले क्षेत्र के 2 भू-भाग में तथा महाराष्ट्र के कुल बुवाई वाले क्षेत्र के 1.6 भूभाग में खेती की जा रही है।

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बैलेंस बनाकर रखना होगा -

महाराष्ट्र में ग्रामीण विकास, पानी और खेती के लिए काम करने वाली मशहूर संस्था वनराई के अध्यक्ष रविंद्र धारिया कहते हैं ऑर्गेनिक और प्राकृतिक खेती वक्त की जरूरत बनती जा रही है। लेकिन इसमें और रासायनिक खेती में बैलेंस बनाकर चलने की जरूरत है, ताकि किसानों की आय भी अच्छी हो और खेती और लोगों की सेहत भी खराब ना हो। इसलिए रसायनिक के साथ-साथ प्राकृतिक कृषि को भी बढ़ाने का अब उचित समय है।

सरकार दे रही प्रोत्साहन -

केंद्र सरकार प्राकृतिक खेती के लिए प्रति हेक्टर किसान को 12 हजार 200 रुपए की मदद दे रही है और इस पद्धति को प्रोत्साहित करने के लिए देश के 8 राज्यों में अब तक 4 हजार 980. 99 लाख रुपए की राशि जारी की जा चुकी है। नेचुरल फार्मिंग सिस्टम में और नए तरीकों के अध्ययन के लिए मोदीपुरम (उत्तर प्रदेश), लुधियाना (पंजाब), पंतनगर (उत्तराखंड) और कुरुक्षेत्र (हरियाणा) में बासमती चावल और गेहूं पर काम शुरू किया गया है।

प्रधानमंत्री का भी है आह्वान -

पिछले एक अरसे से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी किसानों से आह्वान कर रहे हैं कि खेती को रसायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त करें। हमें खेती को केमिकल लैब से निकालकर प्रकृति की प्रयोगशाला में लाना होगा। 21वीं सदी में प्रकृति के अनुरूप जीवनशैली अपनाने की दिशा में भारत विश्व का नेतृत्व करने वाला है।गाय का गोबर फसल सुरक्षा के लिए समाधान प्रदान कर सकता है और मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ा सकता है।

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