उत्तर प्रदेश सरकार ने त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की आरक्षण नियमावली जारी कर दी। इससे उत्तर प्रदेश न केवल और मजबूत होगा बल्कि राज्य में महिलाओं, दलित और पिछड़ी जाति के लोगों का सामाजिक वर्चस्व भी बढ़ेगा। वे सशक्त होंगे तो इसका असर प्रदेश के विकास पर भी व्यापक रूप से दिखेगा। जिला, नगर, ब्लॉक और गांवों का चक्रानुक्रम आधारित आरक्षण कर योगी आदित्यनाथ सरकार ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। इस बहाने सरकार ने दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को अपने अनुकूल करने की मुकम्मल कोशिश भी की है। इससे पंचायतों में वर्षों से चले आ रहे परिवारवादी कॉकस को तोड़ने में मदद मिलेगी, वहीं इसे लेकर उत्पन्न होने वाले असंतोष की जड़ में अवसर प्राप्ति का मट्ठा भी पड़ेगा। महिला सशक्तीकरण अभियान चलाने वाली योगी सरकार ने महिलाओं को सशक्त करने की भी इस बहाने भरपूर कोशिश की है। देखा जाए तो इस नई आरक्षण व्यवस्था से दलितों और पिछड़ों की राजनीति करने वाले बड़े राजनीतिक दलों को भी झटका लगेगा। किसान आंदोलन के मद्देनजर पंचायत चुनाव कराने का जो अदालती दबाव विपक्ष ने सरकार पर बनाया था, योगी सरकार ने अपने एक प्रयास से उसकी हवा निकाल दी है।
रोटेशन आधारित इस आरक्षण प्रक्रिया के चलते प्रदेश में महिलाओं का दबदबा बढ़ेगा, इसमें संदेह नहीं है। उत्तर प्रदेश की 58194 ग्राम पंचायतों में 19659 महिला प्रधान चुनी जाएंगी। जिला पंचायत की 75 में से 25 सीटों पर महिलाओं का कब्जा होगा। ऐसी फूलप्रूफ व्यवस्था कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सत्ता में 33 प्रतिशत भागीदारी की महिलाओं की चिर प्रतीक्षित मांग भी पूरा कर दी है। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की जिला पंचायत पर भी महिला ही काबिज होगी। यहां की जिला पंचायत अध्यक्ष भी अनुसूचित जाति की महिला बनेगी। शामली, बागपत, लखनऊ, कौशाम्बी, सीतापुर और हरदोई में जहां अनुसूचित जाति की महिला जिला पंचायत अध्यक्ष बनेंगी, वहीं संभाल, हापुड़, एटा, बरेली, कुशीनगर, वाराणसी और बड़ों की जिला पंचायत अध्यक्ष ओबीसी की होगी। अनारक्षित जिला पंचायतों में भी 12 जिला पंचायतें कासगंज, फिरोजाबाद, मैनपुरी, मउ, प्रतापगढ़, कन्नौज, हमीरपुर, बहराइच, अमेठी, गाजीपुर, जौनपुर और सोनभद्र महिलाओं के लिए आरक्षित की गई है।
महिला प्रथम की नीति से महिलाओं की सहानुभूति का लाभ योगी सरकार को पंचायतों में तो मिलेगा ही, इसे 2022 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों के तौर पर भी देखा जा रहा है। ब्लॉक प्रमुखों की कुल 826 सीटों में से अनुसूचित जनजाति के लिए 5 सीटें आरक्षित की गई हैं, जिनमें चार पर इसी जाति की महिलाएं चुनाव लड़ेंगी। जबकि अनुसूचित जाति के लिए 171 सीटें छोड़ी गई हैं, जिनमें से 86 सीटों पर इसी जाति की महिलाएं ब्लॉक प्रमुख का चुनाव लड़ेंगी। अन्य पिछडा वर्ग के लिए आरक्षित 223 सीटों में से 97 इस वर्ग की महिलाओं के लिए है। जिला पंचायत में अनुसूचित जाति के लिए 16, अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 20 सीटें आरक्षित कर योगी सरकार ने सूबे में यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह सबका साथ और सबका विकास की अवधारणा में यकीन रखती है।
कोरोना महामारी के चलते पंचायत चुनाव तय समय पर नहीं हो पाए और ग्राम प्रधानों के वित्तीय अधिकार अधिकारियों के हाथों में चले गए थे। उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। कदाचित ऐसा न होता तो स्थिति ज्यादा मुफीद होती लेकिन जब जागे तभी सवेरा। अदालत के निर्देश के बाद सक्रिय हुई योगी आदित्यनाथ सरकार ने त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के लिए आरक्षण नियमावली जारी कर दी है। चक्रानुक्रम यानी रोटेशन के तहत आरक्षण का लाभ पंचायतों को तो होगा ही, आरक्षण से वंचित तबका भी अब ग्राम प्रधान, ब्लाॅक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष के रूप में जोर आजमा सकेगा।
एक ही जाति के व्यक्ति के पास अगर पंचायती हो तो बाकी जाति के लोगों में असंतोष का भाव पैदा होता है। यह स्थिति पंचायत के विकास में रोड़े अटकाती है। सरकार ने इसे न केवल समझा है बल्कि असंतोष की जड़ पर ही प्रहार करने की योजना बनाई है। इससे गांव और शहर के बीच भी संतुलन बनेगा। आरक्षण नियमावली पर कुछ राजनीतिक दलों को असंतोष हो सकता है, उन्हें नाराजगी हो सकती है लेकिन इस दिशा में प्रयास तो बहुत पहले हो जाने चाहिए थे। लेकिन देर आयद- दुरुस्त आयद के तहत जिस तरह योगी सरकार आगे बढ़ रही है, उससे प्रदेश में खासकर पंचायती क्षेत्रों चाहे वह गांव हो, ब्लॅाक हो, नगर हो या जिला, व्यवस्था बदलेगी और काम के स्वरूप में भी नवीनता देखने को मिलेगी। बहुत सारे गांव, ब्लाॅक, नगर व जिला पंचायतों के वार्ड ऐसे थे जिनका कभी आरक्षण हुआ ही नहीं। एक ही परिवार के हाथ में प्रधानी और पंचायती का दायित्व रहा। पंचायतों के इस वंशवादी चरित्र को तोड़ना मौजूदा दौर की सबसे बड़ी जरूरत थी। सरकार ने इस जरूरत को समझा ही नहीं, बल्कि पंचायतों में सुधारों के दृष्टिगत उसमें सुधार-परिष्कार की दिशा में भी वह आगे बढ़ी।
सामान्य निर्वाचन वर्ष 1995, 2000, 2010 और वर्ष 2015 में अनुसूचित जनजातियों को आवंटित जिला पंचायतें अनुसूचित जनजातियों को आवंटित नहीं की गई हैं और अनुसूचित जातियों को आवंटित जिला पंचायतें अनुसूचित जातियों को आवंटित नहीं हुई हैं। इसी तरह पिछड़े वर्गों को आवंटित जिला पंचायतें पिछड़े वर्गों को आवंटित नहीं की गई हैं। इससे मोनोपोली टूटेगी। किसी जाति विशेष का वर्चस्व टूटेगा। बदलाव होगा तो इससे विकास कार्यों में नयापन भी देखने को मिलेगा।
सरकार का प्रयास रहा है कि चक्रानुक्रम आरक्षण प्रणाली के तहत एक भी पंचायत ऐसी न हो जो जातिगत आरक्षण से वंचित रह जाए। अपने इस प्रयास में वह बहुत हद तक सफल भी रही है। मतलब यह कि हर जाति के लोगों को इसबार चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा। किसी के साथ कोई भेदभाव न हो, इस दिशा में उठाया गया कदम बेहद सराहनीय है। खास बात यह है कि वर्ष 1995 से अब तक के 5 चुनावों में जो पंचायतें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होती रहीं और ओबीसी के आरक्षण से वंचित रह गई, वहां ओबीसी का आरक्षण होना बेहद मायने रखता है। अखिलेश सरकार में वर्ष 2015 में ग्राम पंचायतों का आरक्षण शून्य मानकर नए सिरे से आरक्षण लागू किया गया था। क्षेत्र व जिला पंचायतों में वर्ष 1995 के आरक्षण को आधार मानकर सीटों का आरक्षण चक्रानुक्रम से कराया गया था। योगी सरकार आरक्षण चक्र को शून्य करने के पक्ष में हरगिज नहीं थी। चुनाव में सभी जाति-वर्ग को मौका मिले और पंचायती सरकार किसी एक परिवार या वंशवाद की शिकार न हो जाए, इस लिहाज से भी ऐसा करना जरूरी हो गया है।
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चुनाव देर से हों, कोई बात नहीं लेकिन अगर सबके विकास को लक्ष्य रखाकर कोई योजना बनती है तो उसका असर भी दिखता है। योगी सरकार के इस निर्णय का भी असर दिखेगा, इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है। किसानों के आंदोलन के बीच इस तरह का चक्रानुक्रम आरक्षण सरकार के प्रति पंचायतों पर वर्षों से कुंडली मारे बैठे कुछ लोगों की नाराजगी का सबब भी बन सकता है लेकिन काम तो वही करने चाहिए जिसमें सबका हित हो। मौजूदा आरक्षण प्रणाली इसी ओर इंगित करती है।
सियाराम पांडेय