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छह करोड़ साल पुराना है गंगा में तैरता मिला पत्थर, वैज्ञानिकों ने बताया तैरने के पीछे का सच

मीरजापुरः चुनार तहसील के सीखड़ सीखड़ गांव में शुक्रवार को गंगा में तैरता हुआ पत्थर कौतूहल का विषय बना हुआ है। आस्थावानों ने इसे विष्णु मंदिर सीखड़ में रखवा दिया था। रविवार को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के जियोलोजी विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ. बीपी सिंह, असिस्टेंट प्रो. डाॅ. प्रदीप कुमार सिंह के साथ सीखड़ गांव पहुंच कर पत्थर की प्रमाणिकता की जांच की। उन्होंने बाल्टी में तैर रहे हरे रंग के करीब नौ इंच गुणा नौ इंच आकार के पत्थर को देखने के बाद बताया कि इसे प्यूमिस स्टोन (झांवा) कहा जाता है। उन्होंने कहा कि ऐसा माना जाता है कि रामायण काल में प्रभु श्रीराम और उनकी सेना के श्रीलंका जाने के लिए नल-नील द्वारा समुद्र में तैरते प्यूमिस पत्थरों से पुल बनाया गया था। सीखड़ में मिला ये प्यूमिस स्टोन भी ठीक वैसा ही है।

पत्थर के पानी में तैरने के संबंध में वैज्ञानिक तर्क बताते हुए डॉ. बीपी सिंह ने कहा कि जब ज्वालामुखी फूटते हैं तो उनसे निकलने वाले पत्थरों (राक) में छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इन छिद्रों की खाली जगह में हवा भर जाती है और घनत्व कम होने के कारण यह पत्थर पानी में तैरते हैं। डाॅ. सिंह कहना है कि देखने से ये स्टोन डेकन प्लेटू का लगता है। करोड़ों साल पहले मध्य भारत के कई राज्यों में ज्वालामुखी थे। वर्तमान महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु आदि राज्यों के कुछ भागों में कहीं न कहीं इस स्टोन के छोटे-बड़े अवशेष मिल जाते हैं। इस पत्थर के गंगा में तैरकर यहां आने को उन्होंने क्षेत्र के आस्थावानों के लिए सौभाग्य का विषय बताया।

यमुना, चंबल या किसी अन्य नदी से बहकर गंगा में आने की संभावना
डा. सिंह ने इस प्यूमिस स्टोन के या तो यमुना अथवा किसी अन्य सहायक नदी में बहकर गंगा में आने की संभावना जताई। कहा कि मध्य भारत के जिन क्षेत्रों में ये पत्थर मिलता है, वहीं से किसी प्रकार से यह नदी में बहकर यहां आया होगा। उन्होंने इस पत्थर को करीब छह करोड़ वर्ष पुराना बताया और कहा कि बीएचयू समेत अन्य कई संस्थानों में ऐसे पत्थरों में कई शोध हो चुके हैं। उनके साथ आए असिस्टेंट प्रोफेसर प्रदीप कुमार सिंह ने बताया कि करोड़ों वर्षों पूर्व ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान निकलने वाले लावा और उसमें निकलने वाली गैसों के रिएक्शन से इस प्रकार के स्टोन भूगर्भ से निकलते थे और आज भी ये कहीं कहीं मौजूद हैं। दोनों विशेषज्ञों ने पत्थर के संबंध में ग्रामीणों के प्रश्नों के वैज्ञानिक उत्तर देकर उनकी जिज्ञासाओं को भी शांति किया।

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