मणियों की भूमि में ‘शांति की तलाश’

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मणिपुर यानी मणियों की भूमि को आभूषणों की धरती का भी दर्जा इसे दिया जाता है और इस राज्य को यह नाम अपने अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य की वजह से ही मिला था। अब तस्वीर कुछ ऐसी है कि इस दिलकश और खूबसूरत राज्य को पिछले ढाई महीने से शांति की तलाश है। उसकी फिजाओं में चारों ओर गोलियों की आवाजे सुनाई दे रही हैं। बारूद की गंध हवाओं में फैली है। ऐसा लगता है मानो उसे किसी की नजर लग गई है। पिछले ढाई महीने से यह राज्य धधक रहा है। यहां हिंसा, उपद्रव, आगजनी, लूट, प्रदर्शन, मार्च सब चल रहा है। पीड़िता कौन हो रहे हैं, बेगुनाह, महिलाएं, बच्चे-बुजुर्ग। उपद्रव के शिकार यही सब हो रहे हैं। मई से जारी हिंसा के चलते मणिपुर में जिंदगी बद से बदतर हो चली है। यहां के लोगों की जिंदगी अब भी सामान्य से कोसों दूर है। मई से अब तक 130 से ज्यादा लोगों के मौत की खबर सामने आ चुकी है। 60 हजार से अधिक लोग बेघर हैं। बच्चों की पढ़ाई बंद है। बेरोजगारी चरम पर है। लोग अपने काम पर नहीं जा रहे। समय पर दुकानें नहीं खुल रहीं। इंफाल वैली और पहाड़ियों पर असहज कर देने वाला सन्नाटा पसरा है। चिंता की बात यह भी है कि गृह मंत्री अमित शाह खुद भी मणिपुर जाकर आ चुके हैं, पर शांति की राह पर आगे बढ़ने की राह नहीं दिखी है। पिछले दिनों महिलाओं को नग्न करके घुमाने का भयावह वीडियो वायरल हुआ। इसके बाद राज्य में दो समुदायों के बीच और भी खाई पैदा हुई। जारी वीडियो ने देश भर के लोगों की आत्मा को झकझोर दिया। उच्चतम न्यायालय मणिपुर की स्थिति को लेकर अपनी नाराजगी दिखाई। ओलंपियन खिलाड़ी एमसी मैरीकॉम, मीराबाई चानू अपील कर रही हैं कि उनके राज्य मणिपुर को बचा लिया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मणिपुर में महिला के साथ अभद्र, अनैतिक आचरण संबंधी जारी वीडियो के लिए गहरा आक्रोश जताते हुए कहा है कि इससे पूरे देश की बेइज्जती हो रही। दोषी बख्शे नहीं जाएंगे। मणिपुर पर उनका हृदय पीड़ा और क्रोध से भरा है। अब सबों को इंतजार है कि प्रधानमंत्री ने जिस तरह से अब मणिपुर के विषय को देखा है, उससे संभवतः कोई परिणाम और सुधार की राह खुले।

समुदायों के बीच अविश्वास का माहौल

थोड़ा पीछे चलें और मणिपुर राज्य के इतिहास को देखें। मणिपुर पर गरीब नवाज के वंशजों और फिर कई दूसरे वंशों का शासन लंबे समय तक रहा। यह क्रम 1949 तक चला। इसके बाद मणिपुर के राजा ने भारत में विलय का फैसला कर लिया। मणिपुर के महाराज ने शिलॉन्ग में 21 सितंबर 1949 को भारत के साथ विलय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए थे। 15 अक्टूबर 1949 को यह राज्य भारत का अभिन्न अंग बन गया। इसकी औपचारिक घोषणा भारतीय सेना के मेजर जनरल अमर रावल ने की थी। मणिपुर का भारत में विलय करने वाले महाराजा बुधाचंद्र का निधन 1955 में हुआ। विलय के साथ ही मणिपुर में एक निर्वाचित विधायिका के माध्यम से सरकार का गठन किया गया। हालांकि, 1956 में इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया, जो 1972 तक कायम रहा। तमाम आंदोलन हुए और आखिरकार 21 जनवरी 1972 को मणिपुर को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दे दिया गया। अब आइये वर्तमान स्थिति पर, मणिपुर की सामाजिक स्थिति को देखें। मणिपुर की जनसंख्या लगभग 30-35 लाख है। यहां तीन मुख्य समुदाय- मैतेई, नगा और कुकी। मैतेई ज्यादातर हिंदू हैं। मैतेई मुसलमान भी हैं। जनसंख्या में भी मैतेई ज्यादा हैं। नगा और कुकी ज्यादातर ईसाई हैं। नगा और कुकी जनजाति में आते हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व के हिसाब से देखें तो मणिपुर के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैतेई समुदाय से हैं, बाकी 20 नगा और कुकी जनजाति से आते हैं। अब तक हुए 12 मुख्यमंत्रियों में से दो ही जनजाति से थे। मणिपुर की भौगोलिक संरचना विशिष्ट है। मणिपुर एक फ़ुटबॉल स्टेडियम की तरह दिखता है। इसमें इंफाल वैली बिल्कुल सेंटर में प्लेफील्ड है, बाकी चारों तरफ के पहाड़ी इलाके गैलरी की तरह हैं। मणिपुर के 10 प्रतिशत भू-भाग पर मैतेई समुदाय का दबदबा है। ये समुदाय इम्फाल वैली में बसा है, बाकी 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाके में प्रदेश की मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं। इन पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच विवाद काफी पुराना और संवेदनशील है।
इस वर्ष मई महीने से जारी हिंसा के बीच मणिपुर में जिंदगी अब भी सामान्य से कोसों दूर है। इसका बड़ा कारण कहा जा रहा है कि मैतेई समुदाय को एसटी (जनजाति) सूची में शामिल किए जाने के मसले पर मणिपुर हाई कोर्ट के एक प्रयास ने हिंसा भड़का दी। यह हिंसा ऐसा शक्ल लेगी, किसी ने इसकी उम्मीद नहीं की थी। सैकड़ों मौत और हजारों लोगों के बेघर होने की सूचना है। यूं तो मणिपुर में जनजातियों का आपसी संघर्ष नई बात नहीं, लेकिन यह पहली बार है कि दो समुदायों में इतनी गहरी खाई देखने को मिल रही है।

मणिपुर के इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है कि कुकी जनजाति और मैतेई समुदाय के बीच का आपसी विश्वास खत्म हुआ है। इससे पहले कुकी जनजाति के लोग मैतेई बहुसंख्यक इंफाल वैली में भी रात में बगैर किसी हिचक के रुक जाया करते थे। स्कूल, कॉलेज और सारे जरूरी प्रशासनिक विभाग इंफाल में ही हैं, इसलिए ऐसा करना ही पड़ता था। हालांकि, अब हिल्स के लोग इंफाल वैली एरिया से बिल्कुल कट गए हैं। स्वास्थ्य जरूरतों के लिए भी जाने में अब डर की स्थिति पैदा हो गई है। ऐसा नहीं है कि मैतेई लोगों से कुकी समाज के अच्छे संबंध नहीं हैं, पर, अभी के ऐसे हालात में ये संबंध काम नहीं आ रहे। लोगों का विश्वास सिर्फ आपस में ही नहीं, बल्कि प्रशासन और सुरक्षाबलों को लेकर भी टूटा है। मणिपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इबोहल मैतेई इंफाल में रहते हैं। उनके मुताबिक यह सच है कि विश्वास टूटा है, लेकिन दोनों ही तरफ के लोगों ने तनाव झेला है। जानें गई हैं और लोग बेघर हुए हैं। ऐसे में जिंदगी आसान नहीं, लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि दोनों समुदायों में जो खाई पैदा हुई है, उसके पीछे की असल वजह क्या है ? इसमें कहीं ना कहीं राजनीति तो है ही, साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि राज्य में हालात बेहतर करने के लिए 50 के करीब सेंट्रल पुलिस फोर्स मौजूद है, लेकिन लोगों का उन पर भी विश्वास नहीं है, ऐसे में हालात कैसे सुधरेंगे ? हालांकि, अब दोनों ही समुदाय के लोग मान रहे हैं कि कोई रास्ता शांति से निकलना चाहिए लेकिन यह कैसे हो, ये कोई नहीं जानता। कुकी जनजाति के लोग अब राहत शिविरों में सही इंतजाम ना होने पर सवाल उठा रहे हैं तो मैतेई समुदाय के लोग सारे मुद्दों पर खुलकर बात करने पर ही जोर दे रहे हैं।

कहा जाता है कि 28 लाख की आबादी वाले मणिपुर में 53 फ़ीसदी मैतेई समुदाय का दबदबा है। इस समुदाय के ज्यादातर लोग इंफाल वैली में ही रहते हैं, वहीं आदिवासी समुदाय के नागा और कुकी की 40 फीसदी आबादी बाकी पहाड़ी इलाक़ों में रहती है। मौजूदा क़ानून के मुताबिक, मैतेई पहाड़ों के बाहर जमीन नहीं खरीद सकते। कुकी जनजातियों को डर है कि मैतेई को एसटी (जनजाति) का दर्जा देने के बाद उनके लिए रोजगार के अवसर कम हो जाएंगे। हालिया संघर्ष के पीछे मुख्य वजह यही मानी जा रही है, लेकिन लचर क़ानून व्यवस्था के चलते मणिपुर में शांति अभी तक कायम नहीं हो पाई है। जहां एक तरफ पहाड़ी इलाक़ों में एक अलग प्रशासन की मांग उठ रही है, वहीं मैदानी इलाकों के लोग लगातार ये इल्जाम लगाते आ रहे हैं कि इस हिंसा में म्यांमार से मणिपुर में घुसे लोगों की एक बड़ी भूमिका है, इसीलिए घाटी में रहने वाले लोग अब एनआरसी करवा कर अवैध रूप से मणिपुर में घुसे लोगों की पहचान करवाने की मांग कर रहे हैं। पहाड़ी इलाकों में रहने वाले कुकी समुदाय के लोग इस बात का खंडन करते हैं। चुराचांदपुर में विरोध प्रदर्शन कर रही हातनेईनेंग के मुताबिक वो हमें भारतीय नहीं मानते हैं। वो हमें बाहर से आया हुआ समझते हैं। वो कहते हैं कि हम म्यांमार से हैं। वो ऐसा कैसे कह सकते हैं ? हम लोग म्यांमार से नहीं हैं, न ही हम वहां से आए हैं। हम यहीं रहते आए हैं। हमारे पूर्वज अंग्रेजों के साथ युद्ध के दौरान यहीं थे। हम यहाँ के मूल निवासी हैं। वो कैसे हमें अवैध अप्रवासी कह सकते हैं ? निंगथोउजा लांचा एक फिल्म निर्माता हैं। कला संस्कृति से भी उनका जुड़ाव गहरा रहा है। वो मानते हैं कि मणिपुर में अवैध रूप से घुसे लोग मौजूदा संकट की एक बड़ी वजह हैं। लांचा के अनुसार, उन लोगों की पहचान करने के लिए और चेक करने के लिए कोई न कोई मैकेनिज्म लागू करना चाहिए। ऐसा नहीं होगा, तो ऐसे ही झगड़े और संकट पैदा होते रहेंगे। चूंकि मैतेई और कुकी समुदायों के बीच हिंसक झड़पें लगातार जारी हैं, इसलिए बड़ा सवाल ये भी कि ये हिंसा कब और कैसे रुकेगी। लांचा कहते हैं कि कुछ न कुछ विश्वास पैदा करने लायक कुछ मानक लागू करने ही होंगे, लेकिन दोनों समुदायों और राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच विश्वास की कमी अभी एक बड़ी समस्या है।

जनजाति दर्जे की मांग और जंजाल

राज्य में मैतेई समुदाय की मांग है कि उन्हें भी जनजाति का दर्जा मिले। समुदाय ने इसके लिए मणिपुर हाईकोर्ट में याचिका भी डाल रखी है। उनकी दलील है कि 1949 में मणिपुर का भारत में विलय हुआ था। उससे पहले मैतेई को यहां जनजाति का दर्जा मिला हुआ था। इस समुदाय, उनके पूर्वजों की जमीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए मैतेई को जनजाति का दर्जा जरूरी है। समुदाय ने 2012 में अपनी एक कमेटी भी बनाई थी। इसका नाम है शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी ऑफ मणिपुर यानी एसटीडीसीएम। इनका कहना है कि मैतेई समुदाय को बाहरी लोगों के अतिक्रमण से बचाने के लिए एक संवैधानिक कवच की जरूरत है। वे कहते हैं कि मैतेई को पहाड़ों से अलग किया जा रहा है जबकि जिन्हें जनजाति का दर्जा मिला हुआ है, वे पहले से ही सिकुड़ते हुए इंफाल वैली में जमीन खरीद सकते हैं लेकिन जो जनजातियां हैं, वे मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने का विरोध कर रही हैं। इन जनजातियों का कहना है कि मैतेई जनसंख्या में भी ज्यादा हैं। राजनीति में भी उनका दबदबा है। जनजातियों का कहना है कि मैतेई समुदाय आदिवासी नहीं हैं। उनको पहले से ही एससी और ओबीसी आरक्षण के साथ-साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग का आरक्षण मिला हुआ है। उसके फायदे भी मिल रहे हैं। उनकी भाषा भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और संरक्षित है। ऐसे में मैतेई समुदाय को सब कुछ तो नहीं मिल जाना चाहिए। अगर उन्हें और आरक्षण मिला तो फिर बाकी जनजातियों के लिए नौकरी और कॉलेजों में दाखिला मिलने के मौके कम हो जाएंगे फिर मैतेई समुदाय को भी पहाड़ों पर भी जमीन ख़रीदने की इजाजत मिल जाएगी और इससे उनकी जनजातियां और हाशिये पर चली जाएंगी।

हाल ही में मणिपुर हाईकोर्ट ने मैतेई ट्राइब यूनियन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से कहा कि वो मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने को लेकर विचार करे। 10 सालों से ये डिमांड पेंडिंग है। इस पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं आता है, तो आप अगले 4 हफ्ते में बताएं। अदालत ने केंद्र सरकार की ओपिनियन भी मांगी थी। हालांकि, अदालत ने अभी मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने का आदेश नहीं दिया है, सिर्फ एक ऑब्जर्वेशन दी है लेकिन ये बात सामने आ रही है कि उसके इस ऑब्जर्वेशन को गलत समझा गया। इसके अगले दिन मणिपुर विधानसभा की हिल एरियाज कमेटी ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया और कहा कि कोर्ट के इस आदेश से वे दुखी हैं। उनका कहना था कि कमेटी एक संवैधानिक संस्था है। उनसे भी सलाह मशविरा नहीं लिया गया। गौरतलब है कि पहाड़ी इलाके से चुने गए सभी विधायक इस कमेटी के सदस्य होते हैं, चाहे वे किसी भी पार्टी से हों। फिलहाल भाजपा के विधायक डी गेंगमे इसके चेयरमैन हैं। 03 मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने ‘आदिवासी एकजुटता रैली’ आयोजित की। राजधानी इंफाल से करीब 65 किलोमीटर दूर चुराचांदपुर जिले के तोरबंग इलाके में हुई। इसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए थे। पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इसी दौरान जनजातीय समूहों और दूसरे समूहों के बीच झड़पें शुरू हो गईं। फिर ये हिंसा दूसरी जगहों पर भी फैली लेकिन हिंसा के पीछे कुछ और कारण होने की बात भी कही जा रही है। जैसे मणिपुर में सरकार के समर्थकों का कहना है कि जनजाति समूह अपने हितों को साधने के लिए मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को सत्ता से हटाना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने ड्रग्स के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। प्रदेश में बीरेन सिंह की सरकार अफीम की खेती को नष्ट कर रही है। कहा जा रहा है कि इसकी मार म्यांमार के अवैध प्रवासियों पर भी पड़ रही है। जिन्हें म्यांमार से जुड़ा अवैध प्रवासी बताया जा रहा है, वे मणिपुर के कुकी और ज़ोमी जनजाति से ताल्लुक रखते हैं। 02 मई को सीएम एन बीरेन सिंह ने एक ट्वीट किया था। चुराचांदपुर में पुलिस ने दो लोगों के पास से 16 किलो अफीम बरामद की थी। उसी पर मुख्यमंत्री ने लिखा था कि ये लोग हमारे वनों को बर्बाद कर रहे हैं और सांप्रदायिक मुद्दे को अपने ड्रग्स बिज़नेस के लिए भड़का रहे हैं तो यानी ये भी एक साम्प्रदायिक मुद्दा है, जिसका जिक्र मुख्यमंत्री कर रहे हैं।

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वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फंजोबम के मुताबिक मणिपुर प्रदेश में यह हिंसा एक दिन में नहीं भड़की है। पहले से कई मुद्दों को लेकर जनजातियों में नाराजगी पनप रही थी। जनजातियों के कब्जे वाली जमीन खाली करवाई जा रही है। इसमें सबसे ज््यादा कुकी समूह के लोग प्रभावित हो रहे थे। जिस जगह हाल ही में हिंसा भड़की है, वो है चुराचंदपुर इलाका। वहां भी कुकी समुदाय के लोग ज्यादा हैं। इन सब बातों को लेकर भी वहां तनाव पैदा हो गया है। हिंसा की वजह से लगभग 9,000 लोग विस्थापित हुए हैं। मणिपुर के कई लोग राज्य छोड़कर असम की सीमा में दाखिल हो गए हैं। फिलहाल, हालात काबू करने के लिए सेना और पुलिस दोनों तैनात हैं। इधर, गैर-भाजपाई दल अपने हिसाब से मणिपुर को लेकर सियासत कर रहे हैं। कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद राहुल गांधी ने मणिपुर दौरा का कार्यक्रम भी किया। हालांकि, इसके बाद हालात सुधरे तो नहीं, जटिल ही हुए। फिलहाल हिंसा की जांच के लिए केंद्र सरकार ने एक न्यायिक आयोग बना और सीबीआई ने भी मामले की जांच शुरू कर दी है। राज्य सरकार के मुताबिक हालात सुधर रहे हैं लेकिन राज्य में हर दिन हो रही हिंसा ये बात बार-बार याद दिला रही है कि दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की खाई लगातार गहरी होती जा रही है। एक ऐसी खाई है, जिसका खामियाजा मणिपुर के हजारों लोग हर दिन भुगत रहे हैं। जितनी जल्दी इस मनोहर राज्य में जनजीवन सामान्य हो, लोगों के अंदर आत्मविश्वास जगे, विधि व्यवस्था बहाल हो, देश के लिए भी उतना ही अच्छा है।

अमित झा