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चातुर्मास विशेषः चार माह श्रीहरि करेंगे क्षीर सागर में निवास, त्रिलोक की सत्ता अब भगवान शिव के पास

लखनऊः हिन्दी कैलेंडर के चार माह-सावन, भादों, अश्विन (क्वार) और कार्तिक बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। यह परिवर्तन का कालखण्ड है। इस अवधि में न केवल प्रकृति में परिवर्तन होता है बल्कि सूर्य-चन्द्रमा के तेज में भी बदलाव नजर आता है। सर्वाधिक ध्यान योग्य यह है कि इस कालावधि में सत्ता का भी हस्तान्तरण हो जाता है। भगवान श्री हरि विष्णु इन चार महीनों के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं और त्रिलोक का पूरा प्रभार भगवान शिव के पास आ जाता है। वह ही पालनकर्ता भगवान विष्णु का भी काम देखते हैं। यही कारण है सावन में भगवान शिव की विशेष पूजा होती है। चार माह का यह कालखण्ड ‘चातुर्मास’ कहलाता है। चातुर्मास प्रतिवर्ष आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी के बीच पड़ता है। इस वर्ष यह 10 जुलाई से चार नवंबर तक है। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को ‘पद्मनाभा’ भी कहते हैं। सूर्य के कर्क राशि में आने पर यह एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है।

पुराणों में वर्णित है कि देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर वह उठते हैं। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। बीच का अंतराल ही चातुर्मास है। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्राण प्रतिष्ठा जैसे शुभ कार्य नहीं सम्पन्न किये जाते हैं। भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।

चातुर्मास का पौराणिक महत्व
चार्तुमास के दौरान बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाता है। यह भगवान विष्णु के शयन का ही द्योतक है। इस समयावधि में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि चातुर्मास में विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है। चूंकि इस कालावधि में त्रिलोक की सत्ता भगवान शंकर के हाथों रहती है, इसलिए इन चार महीनों में शिव के गणों (विशेषकर बिच्छू, गोजर, सांप आदि जन्तुओं) की सक्रियता बढ़ जाती है।

चातुर्मास की पौराणिक कथा
पुराणों में बताया गया है कि राजा बलि ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। घबराए इंद्र ने जब भगवान विष्णु से सहायता मांगी तो विष्णु ने वामन अवतार लिया और राजा बलि से दान मांगने पहुंच गए। वामन भगवान ने दान में तीन पग भूमि मांगी। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। दूसरे पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। बलि के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर उसे पाताल लोक का अधिपति बना दिया और वर मांगने को कहा। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख भगवान विष्णु की भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान को मुक्त करने का अनुरोध किया। भगवान अपने भक्त को निराश नहीं करना चाहते थे इसलिए बलि को वचन दिया कि वह हर साल आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक पाताल लोक में निवास करेंगे। इसीलिए इन चार महीनों में भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं और वामन रूप में उनका अंश पाताल लोक में होता है। एक अन्य कथा के अनुसार शंखचूर नाम के असुर से भगवान विष्णु का लंबा युद्ध चला और अंत में असुर मारा गया। युद्ध करते हुए भगवान विष्णु बहुत थक गए तो भगवान शिव को त्रिलोक का काम सौंपकर वह योगनिद्रा में चले गए। इसीलिए इन चार महीनों में भगवान शिव ही पालनकर्ता भगवान विष्णु के काम भी देखते हैं। यही कारण है कि सावन में भगवान शिव की विशेष पूजा होती है।

चार्तुमास का प्रारम्भ
दरअसल चातुर्मास का सम्बंध देवशयन से है। इसलिए वर्षाकाल के चार महीने का उपवास ही चातुर्मास व्रत है। कुछ श्रद्धालु इस व्रत को आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरू करते हैं जबकि कुछ द्वादसी या पूर्णिमा से अथवा उस दिन से प्रारम्भ करते हैं जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है। यह चाहे जब प्रारम्भ हो लेकिन इसका समापन कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही होता है। संन्यासी लोग सामान्यतः गुरू पूर्णिमा से चातुर्मास का आरम्भ मानते हैं।

चातुर्मास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण
चूंकि चातुर्मास का समय वर्षाकाल में होता है, इसलिए इस दौरान साधना के साथ परहेज का विशेष महत्व है। संयम बरतने से जिन्दगी का स्वरूप और जीने का ढंग बदल जाता है। आग बरसाती गर्मी की तपन के बाद मनमोहक वर्षा, मौसम परिवर्तन के साथ प्रकृति करवट लेती है और इसी के साथ वातावरण में जीवाणु तथा रोगाणु अधिक सक्रिय हो जाते हैं। ऐसे में चार्तुमास व्रत के नियम शरीर को स्वस्थ रखने में कारगर सिद्ध होते हैं। साथ ही इस कालखण्ड में यात्राओं एवं आयोजनों का निषेध किया गया है ताकि लोग एक साथ एकत्र न हों। इससे संक्रमण होने की सम्भावनाएं क्षीण होती हैं। इसीलिए चातुर्मास शुरू होते ही संत-महात्मा एक स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं। जैन समाज के लोग विधि-विधान से यह व्रत करते हैं। एक ही समय भोजन करते हैं। साथ ही अपना प्रिय फल, प्रिय मिष्ठान आदि का त्याग कर चातुर्मास के समापन पर उसका दान करते हैं।

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चातुर्मास में भोजन के नियम
जहां डॉक्टर मौसम के अनुसार भोजन करने की सलाह देते हैं। वहीं शास्त्र भी विज्ञान की तरह चातुर्मास के लिए कुछ नियमों का पालन करने को कहता है। आयुर्वेद में चातुर्मास के दौरान पत्तेदार शाक-भाजी खाना वर्जित बताया गया है। चूंकि इन महीनों में पाचन तंत्र कमजोर हो जाता है इसलिए इस दौरान एक समय का व्रत रखकर शरीर को निरोगी रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। सावन मास में शाक यानी हरी सब्जी का तो बिल्कुल निषेध है, क्योंकि उसमें कीड़े आदि का डर रहता है। भादों के महीने में दही खाने पर रोक है, क्योंकि यह पेट में तेजाब की तरह काम करने लगती है। इसी तरह अश्विन मास में दूध मना है और कार्तिक के महीने में दाल से परहेज करना बताया गया है। इसे खाने से यूरिक एसिड आदि की समस्या हो सकती है। चातुर्मास में व्रती को रात्रि को तारों के दर्शन के बाद एक समय भोजन करना चाहिए। इसके अलावा चातुर्मास का व्रत करने वाले को जमीन पर शयन करना चाहिए, पूर्णतः शाकाहारी रहना चाहिए और मधु व रसदार वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। मूली और बैगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए। चूंकि भगवान विष्णु चार महीनों के लिए पाताल में निवास करते हैं, इसलिए इस अवधि के दौरान जलाशय में स्नान से पुण्य की प्राप्ति होती है। चातुर्मास के चार महीनों में शरीर और मन को साधने का अभ्यास किया जाता है। ये आत्म संयम और नियम पालन के महीने हैं। देवशयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु चार मास के लिए शयन को चले जाते हैं लेकिन यह भगवान के शयन और मनुष्य को जगाने वाली एकादशी है। इस दिन से अगले चार मास तक हर किसी को संयम और नियम का पालन करने की सीख दी जाती है। ये चार महीने वासनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण का समय है। इसमें शरीर और मन को साधने का अभ्यास किया जाता है।

भगवान विष्णु की पूजा अर्चना
आचार्य डा. ओमप्रकाशचार्य बताते हैं कि वैसे तो हर एकादशी पर भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है लेकिन देवशयनी एकादशी की रात्रि से भगवान का शयन प्रारंभ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस दिन विष्णु जी की प्रतिमा का षोडशोपचार सहित पूजन करके उन्हें पीताम्बर वस्त्रों से सुसज्जित किया जाता है। पंचामृत से स्नान करवाकर धूप-दीप आदि से पूजन पश्चात आरती की जाती है। अनेक परिवारों में इस दिन परंपरानुसार स्त्रियां देव शयन करवाती हैं। पद्यपुराण के उत्तर खंड में भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर को देवशयनी एकादशी व्रत का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं कि हरिशयनी एकादशी पुण्यमयी, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली तथा सब पापों को हरने वाली है। इस दिन कमल पुष्प से भगवान विष्णु का पूजन करने वालों को त्रिदेवों की पूजा का फल स्वतः प्राप्त हो जाता है।

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