अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक वीर सपूतों ने अपने प्राण न्यौछावर किए और उनमें से बहुतों के बलिदान को प्रतिवर्ष किसी न किसी अवसर पर स्मरण किया जाता है लेकिन हर साल 23 मार्च का दिन शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस है। यह वही दिन है, जब भारत की आजादी के लिए लड़े भारत मां के वीर सपूतों भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को अंग्रेजों ने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या के आरोप में फांसी दे दी थी। हालांकि पहले इन वीर सूपतों को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी लेकिन इनके बुलंद हौसलों से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने जन आन्दोलन को कुचलने के लिए उन्हें एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को ही फांसी दे दी थी।
28 सितम्बर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने अपने 23 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में वैचारिक क्रांति की ऐसी मशाल जलाई थी, जिससे आज के दौर में भी युवा काफी प्रभावित हैं। भगत सिंह जब पांच साल के थे, तब एक दिन अपने पिता के साथ खेत में गए और वहां कुछ तिनके चुनकर जमीन में गाड़ने लगे। पिता ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो मासूमियत से भगत सिंह ने जवाब दिया कि मैं खेत में बंदूकें बो रहा हूं। जब ये उगकर बहुत सारी बंदूकें बन जाएंगी, तब इनका उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ करेंगे। शहीदे आजम भगत सिंह ने स्वतंत्रता सेनानी चन्द्रशेखर आजाद से अपनी पहली मुलाकात के समय ही जलती मोमबती की लौ पर हाथ रखकर कसम खाई थी कि उनका समस्त जीवन वतन पर ही कुर्बान होगा।
हालांकि राजगुरू और सुखदेव का नाम सदैव शहीदे आजम भगत सिंह के बाद आता है लेकिन भगत सिंह का नाम आजादी के इन दोनों महान क्रांतिकारियों के बगैर अधूरा है क्योंकि इनका योगदान भी भगत सिंह से किसी भी मायने में कमतर नहीं था। तीनों की विचारधारा एक थी, इसीलिए तीनों की मित्रता बेहद सुदृढ़ और मजबूत थी। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में आसपास ही रहते थे और दोनों परिवारों में गहरी दोस्ती थी। 15 मई 1907 को पंजाब के लायलपुर में जन्मे सुखदेव, भगतसिंह की ही तरह बचपन से आजादी का सपना पाले हुए थे। भगत सिंह, कामरेड रामचन्द्र और भगवती चरण बोहरा के साथ मिलकर उन्होंने लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन कर सॉन्डर्स हत्याकांड में भगतसिंह तथा राजगुरू का साथ दिया था। 24 अगस्त 1908 को पुणे के खेड़ा में जन्मे राजगुरू छत्रपति शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक थे और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से काफी प्रभावित थे। अच्छे निशानेबाज रहे राजगुरू का रूझान जीवन के शुरूआती दिनों से ही क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था। वाराणसी में उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह और जतिन दास राजगुरू के अभिन्न मित्र थे।
राजगुरू ने पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के कारण स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गज नेता लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए 19 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में जॉन सॉन्डर्स को गोली मारकर स्वयं को गिरफ्तार करा दिया था और भगत सिंह वेश बदलकर कलकत्ता निकल गए थे, जहां उन्होंने बम बनाने की विधि सीखी। भगत सिंह बिना कोई खून-खराबा किए ब्रिटिश शासन तक अपनी आवाज पहुंचाना चाहते थे लेकिन तीनों क्रांतिकारियों को अब यकीन हो गया था कि पराधीन भारत की बेडि़यां केवल अहिंसा की नीतियों से नहीं काटी जा सकती, इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीतियों के पारित होने के खिलाफ लाहौर की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई।
चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ के विरोध में सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए 1929 में ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी‘ की पहली बैठक हुई। योजनाबद्ध तरीके से भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ केन्द्रीय असेंबली में एक खाली स्थान पर बम फेंका, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि वे चाहते तो भाग सकते थे लेकिन भगत सिंह का मानना था कि गिरफ्तार होकर वे बेहतर ढंग से अपना संदेश दुनिया के सामने रख पाएंगे। असेंबली में फेंके गए बम के साथ कुछ पर्चे भी फेंके गए थे, जिनमें भगत सिंह ने लिखा था, ‘आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को हालांकि अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया था लेकिन पुलिस ने तीनों को जॉन सॉन्डर्स की हत्या के लिए आरोपित किया। गिरफ्तारी के बाद सॉन्डर्स की हत्या में शामिल होने के आरोप में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव पर देशद्रोह तथा हत्या का मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई। इसी मामले को बाद में ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से जाना गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की। 23 मार्च 1931 की शाम करीब 7.33 बजे भारत मां के इन तीनों महान वीर सपूतों को फांसी दे दी गई।
फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पहले भगत सिंह एक मार्क्सवादी पुस्तक पढ़ रहे थे, राजगुरू वेद मंत्रों का गान कर रहे थे जबकि सुखदेव कोई क्रांतिकारी गीत गुनगुना रहे थे। फांसी के तख्ते पर चढ़कर तीनों ने फंदे को चूमा और अपने ही हाथों फंदा अपने गले में डाल लिया। जेल वार्डन ने यह दृश्य देखकर कहा था कि इन युवकों के दिमाग बिगड़े हुए हैं और ये पागल हैं। इस पर सुखदेव ने गुनगुनाते हुए कहा, ‘इन बिगड़े दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।’
भगत सिंह कहा करते थे कि एक सच्चा बलिदानी वही है, जो जरूरत पड़ने पर सब कुछ त्याग दे। भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव भारत माता के ऐसे सच्चे सपूत थे, जिन्होंने देशप्रेम और देशभक्ति को अपने प्राणों से भी ज्यादा महत्व दिया और देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले इन तीनों महान स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को देश सदैव याद रखेगा। वतन के लिए त्याग और बलिदान इनके लिए सर्वोपरि रहा। इनके विचार आज भी देश के करोड़ों युवाओं का मार्गदर्शन करते हैं।
योगेश कुमार गोयल