नई दिल्लीः मनुष्य के जीवन में धैर्य का सबसे महत्वपूर्ण स्थान होता है। क्योंकि जो मनुष्य अपने जीवन में सहनशील एवं धैर्यवान होता है, वह कभी भी किसी भी प्रकार की समस्या और विपत्ति से भयभीत नहीं होता और अंत में सफलता भी उसी के हाथ लगती है। प्रकृति भी हमें यही संदेश देती है कि हमें स्वयं को निरंतर गतिमान और संतुलित रखने के लिए धैर्य चाहिए। महर्षि अरविंद अपने पास आने वाले अपने अनुयायियों व जिज्ञासु व्यक्तियों को भी ये ही संदेश तथा शिक्षा देते थे। वो प्रकृति का उदाहरण देते हुए समझाते थे कि पेड़ों पर मंजरी या बौर आने के तुरंत बाद ही तो फल नहीं आ जाता। हौले-हौले ही यह प्रक्रिया सम्पन्न होती है।
माटी, हवा और पानी से जिस तरह एक पौधा धीरज रखकर खुद को पुष्पित और पल्लवित करता है, हमें भी ऐसा ही जीवन दर्शन अपनाना चाहिए। उनका मानना था कि मनुष्य अपने सारे जीवन का वास्तुकार स्वयं ही है। उनका कहना था कि हम अपनी रुचि और सोच-विचार के हिसाब से दिनचर्या तय करते हैं। अपने तौर-तरीके से दिन बिताते हैं। सब सामान्य रहता है, तो हम खुश रहते हैं। लेकिन इस दिनचर्या में जरा-सा भी कुछ अनचाहा हुआ नहीं कि हम सिर पीटने लगते है। यहीं हम अपना धैर्य खो देते हैं। हमारी पसंद से बने हुए जीवन की हलचल और हिचकोले हमें विचलित कर देते हैं। हम गलती से भी आत्म अवलोकन नहीं करते। ऐसी परिस्थिति में हम अपनी भूमिका न देखकर किसी और पर दोष मढ़ देते हैं। ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि इस हालत के लिए उनके अलावा बाकि दूसरे सब जिम्मेदार हैं। आरोप लगाने और खुद साफ बच जाने के इस पल में हम चतुराई से यह सच छिपा जाते हैं कि कर्म का नियम कुछ और ही है।
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कर्म का सिद्धांत यह साफ कहता है कि हमारे हर दुख कष्ट आदि के लिए हम ही जिम्मेदार हैं, कोई दूसरा नहीं। महर्षि अरविंद कहते हैं कि हम जो भी हैं, जैसे भी हैं और जैसा भी महसूस कर रहे हैं, यह सब हमारे पिछले कर्मों का फल ही है। जब भी बाधा, संकट अथवा दुख का भार किसी पर पड़ता है तो उसे समस्या को समझना चाहिए। किसी और को अपशब्द न कहकर समस्या से निपटने में पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। अगर हम अपना मूल्यांकन करना जानते हैं या ऐसा चाहते भी है, तब कोई न कोई मार्ग खुल ही जाता है।
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