कोलकाताः पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित मेट्रो डेयरी विनिवेश मामले में आखिरकार राज्य सरकार को हाईकोर्ट से राहत मिली है। मुख्य न्यायाधीश प्रकाश श्रीवास्तव और राजर्षि भारद्वाज की खंडपीठ ने सोमवार को इस पर स्थिति स्पष्ट करते हुए साफ कर दिया है कि हाईकोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि लंबी सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से पेश किए गए दस्तावेजों से स्पष्ट है कि विनिवेश प्रक्रिया में किसी तरह की कोई धांधली नजर नहीं आ रही। राज्य सरकार ने अपने शेयर को तय प्रक्रिया के मुताबिक बेचा है और इसमें हाईकोर्ट हस्तक्षेप नहीं करेगा। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस मामले में याचिका दाखिल की थी जिस पर सुनवाई चल रही थी। मेट्रो डेयरी उपक्रम में राज्य सरकार का 47 फ़ीसदी शेयर था जिसे एग्रोटेक प्राइवेट लिमिटेड को 2017 में बेच दिया गया था। 2018 में हाईकोर्ट में इस बाबत याचिका लगाई गई थी।
मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ ने कहा कि अख़बार देखकर मामला किया गया था। राज्य सरकार का फैसला पूरी तरह से सटीक है। इस कारण हाई कोर्ट इस मामले में कोई भी हस्तक्षेप नहीं करेगा। खास बात यह है कि इस मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता पी चिदंबरम ने राज्य सरकार की पैरवी की थी जिसे लेकर उन्हें कांग्रेस समर्थकों के विरोध का भी सामना करना पड़ा था।
इस मामले में ईडी ने बंगाल के चार वरिष्ठ आइएएस अफसरों से मेट्रो डेयरी में राज्य सरकार की हिस्सेदारी बेचने के मामले में जवाब तलब किया थ। इसमें पूर्व मुख्य सचिव राजीव सिन्हा के साथ-साथ वर्तमान मुख्य सचिव हरिकृष्ण द्विवेदी शामिल थे।
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मेट्रो डेयरी, पश्चिम बंगाल दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड, केवेंटर एग्रो (प्राइवेट प्लेयर) और नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) के बीच एक संयुक्त उद्यम था। इसमें निजी-सार्वजनिक भागीदारी थी। इसकी शुरुआत 1996 में हुई थी। बाद में एनडीडीबी ने केवेंटर एग्रो को अपनी 10 फीसद हिस्सेदारी बेच दी जिससे निजी कंपनियों के पास इसका 53 फीसदी शेयर हिस्सेदारी हो गई थी। बाद में पश्चिम बंगाल सरकार ने केवेंटर एग्रो को मेट्रो डेयरी में अपनी 47 फीसदी हिस्सेदारी बेच दी। इससे निजी कंपनी का इसपर पूरी तरह से नियंत्रण हो गया है, लेकिन जब ई-निलामी से सरकार ने निविदा मंगाई थी, तो केवेंटर एग्रो एक मात्र बोली लगाने वाली कंपनी थी और यह सौदा 85.5 करोड़ रुपये में हुआ था। आरोप लगाया गया था कि तत्कालीन बाजार मानकों के अनुसार लाभ कमाने वाले उपक्रम के लिये घाटे का सौदा किया गया। बाद में कवेंटर्स एग्रो लिमिटेड ने इसे एक विदेशी कंपनी को कई गुना अधिक कीमत पर बेचा था जिसे लेकर सवाल खड़े हुए थे।
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